07 अप्रैल 2014

मुज़फ्फरनगर दंगे : इंसाफ की आस

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर में पिछले साल हुई सांप्रदायिक हिंसा ने हमारे लोकतंत्र को शर्मसार कर दिया था | इसने राज्य मशीनरी की उपेक्षा से उपजी सांप्रदायिक हिंसा का वीभत्स रूप पेश किया | नफरत भरे सांप्रदायिक प्रचार को त्वरित रूप से रोकने के बजाय राज्य मशीनरी ने निष्क्रिय रहकर फलने-फूलने का भरपूर अवसर दिया जिसके परिणाम स्वरुप पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धार्मिक उन्माद से लबरेज़ सांप्रदायिक हिंसा का क्रूरतम रूप दृष्टिगोचर हुआ जबकि यह क्षेत्र बाबरी विध्वंस और बीजेपी की रथयात्रा के दौरान भी बिलकुल शांत रहा था| मुज़फ्फरनगर में सांप्रदायिक हिंसा के बाद तमाम मानवाधिकार और गैरसरकारी संगठनों ने इस बात को रेंखाकित किया है कि इस पूरे प्रकरण में राज्य की भूमिका संदिग्ध है |


लोकसभा चुनावों के ठीक पहले मुज़फ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिया गया फैसला कई मायनों में महत्वपूर्ण है | यह फैसला कई बिन्दुओं पर राज्य मशीनरी की खामियों को उजागर करता है जिनकी उपेक्षा की गयी और इसने साम्प्रदायिक हिंसा को जन्म दिया जबकि इसे रोका जा सकता था | सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह फैसला ऐसे समय में दिया गया है जबकि चुनाव सर पर हैं और यह फैसला सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के लिए नुकसानदेह साबित होगा क्योंकि राज्य की भूमिका मूक दर्शक की रही है और राज्य अपने कर्तव्य को पूरा करने बुरी तरह विफल हुआ है राज्य सरकार को लापरवाही का जिम्मेदार कहा गया है |

इसके साथ ही यह फैसला पीड़ितों के लिए इंसाफ की  एक आस भी है| अपने 92 पृष्ठ के फैसले में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने राज्य सरकार को जरुरी दिशानिर्देश जारी किये हैं जिनमे  हिंसा में मारे गए लोगों के परिवार को 15 लाख मुआवज़ा तथा यौन उत्पीड़न की शिकार महिलाओं को 5 लाख का मुआवज़ा तथा अन्य सहायता देने,पुनर्वास की समुचित व्यवस्था करने इत्यादि का निर्देश शामिल है |इस फैसले में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के दोषियों को गिरफ्तार न कर पाने सम्बन्धी कठिनाइयों को दरकिनार करते हुए अतार्किक करार दिया और कहा है कि पुलिस की ओर से कार्यवाही न कर पाने की दशा में सम्बंधित अधिकारी के खिलाफ कार्यवाही की जाएगी |

सर्वोच्च न्यायालय की यह टिप्पणी निश्चित तौर पर राज्य मशीनरी को एक चेतावनी है कि उसे कानून व्यवस्था को सर्वोपरि मानना होगा साथ ही यह राज्य सरकार को हताश करने वाला भी है कि सर्वोच्च  न्यायालय को ऐसी टिप्पणी करनी पड़ी | यह टिप्पणी राज्य के सेक्युलर चरित्र पर भी सवाल खड़ा करती है कि राज्य अभियुक्तों के प्रति नरमी क्यों बरत रही है ? राज्य सरकार को सभी अभियुक्तों को उनके राजनीतिक रसूख और पृष्ठभूमि के भेदभाव के बिना सक्षम न्यायालय के समक्ष पेश करने का निर्देश दिया है | यह निर्देश वास्तव में विधि की समानता और समान विधिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत को ही पुष्ट करता है कि कानून की दृष्टि में सभी समान हैं | यह फैसला पीड़ितों के लिए एक उम्मीद है कि उन्हें भी इन्साफ मिलेगा |

सर्वोच्च न्यायालय के  इस फैसले से साफ़ ज़ाहिर  है कि सांप्रदायिक हिंसा  में हत्याओं को गंभीर  अपराध मानते हुए मुआवज़े  की व्यवस्था करने का  निर्देश है हालाँकि मुआवज़ा  पीड़ा से मुक्ति नहीं  दिला सकता लेकिन राज्य  अपने मूलभूत कर्तव्य  को पूरा करने में असफल  रहा है क्योंकि जीवन  और संपत्ति की सुरक्षा  ही वह सामाजिक संविदा  थी जिसने राज्य को जन्म  दिया | अतः राज्य को पीड़ित  नागरिकों को पुनः जीवन  शुरू करने के लिए सहायता  देना कर्तव्य है इसी  अवधारणा को इस फैसले  में पुष्ट किया गया  है |

हालाँकि यह काफी नहीं  है क्योंकि सांप्रदायिक  हिंसा के बाद बड़े पैमाने  पर लोगों का विस्थापन  हुआ है  और विस्थापन के बाद पुनर्वास एक धीमी और संघर्षपूर्ण प्रक्रिया होती है विस्थापन न केवल मानसिक और आर्थिक रूप से व्यक्ति को तोड़ देता है बल्कि पीढ़ियों से चले आ रहे सामाजिक ताने बाने को भी छिन्न-भिन्न कर देता है | ऐसे में यह आवश्यक हो जाता है कि राज्य अपने मूल कर्तव्यों का पालन करे और विस्थापितों को पुनर्वास में में यथासंभव सहायता और सहयोग प्रदान करे |

सांप्रदायिक हिंसा  में विस्थापन के बाद प्रायः प्रभावित क्षेत्र मिलीजुली आबादी से एकांगी और सहधर्मी आबादी में परिवर्तित हो जाते हैं |अतः पुनर्वास सम्बन्धी ऐसी नीति होनी चाहिए कि आबादी का मिलाजुला स्वरुप हो न कि एकांगी और धर्म विशेष के बाहुल्य का क्षेत्र क्योंकि ऐसी बसावटें देश के अन्दर विभाजनकारी साम्प्रदायिकता को ही बढ़ावा देती हैं और समुदायों के भीतर असुरक्षा का भाव पैदा करती हैं | ऐसी स्थिति में व्यक्ति अपने सहधर्मी समूह के साथ ही स्वयं को सुरक्षित महसूस करता है |

मुज़फ्फरनगर हिंसा के बाद एक सामाजिक  संगठन ने यह मांग की है की सरकार द्वारा या निजी क्षेत्र में विकसित की जा रही नयी बसाहटों में आरक्षण की व्यवस्था लागू कर एक मिलीजुली आबादी वाले इलाक़े बसाएं जाये तथा इन्हें सरकारी प्रोत्साहन एवं बढ़ावा दिया जाये | निश्चित रूप से ऐसी नीति आपसी सौहार्द्र और परस्पर विश्वास को जन्म देगी जो विभाजनकारी विचारों पर अंकुश लगाएगी | इस प्रक्रिया में यह भी निश्चित किया जन चाहिए की किसी भी नयी कालोनी का नाम किसी धर्म से जुड़े प्रतीक.चिन्ह या नाम पर न रखा जाये |

सर्वोच्च न्यायालय द्वारा  दिए गए फैसले को इन्हीं  सन्दर्भों में विश्लेषित  किया जाना चाहिए ताकि  आनेवाले समय में सांप्रदायिक  हिंसा की ऐसी भयावह  पुनरावृत्ति से बचा जा  सके और हमे सांप्रदायिक  हिंसा का दंश न झेलना  पड़े क्योंकि सांप्रदायिक  हिंसा हमेशा मानवता को शर्मसार करती है |

मो0 आरिफ

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व स्वतंत्र पत्रकार हैं)
(इनसे  mdarifmedia@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

1 टिप्पणी:

anwar suhail ने कहा…

मो. आरिफ ने मुज़फ्फरनगर दंगे से प्रभावित लोगों को जुबान देने का प्रयास किया है...राजनितिक पार्टियां मुस्लिम समाज को मतदाता के आलावा अहमियत देने को तैयार नही..ऐसे में अल्लाह जाने क्या होगा आगे...

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