राजकिशोर जी अब सठिया गए हैं जैसे-जैसे वो बूढे हो रहे हैं,उनके अपने ही लेखों में अन्तरविरोध बढ़ते जा रहे हैं.इसमें उनका भी दोष नहीं है जिस प्रशासनिक व्यवस्था में रहें हैं,उस जगह रचनात्मकता अपने शुरुवाती दिनों में ही व्यक्ति का साथ छोड़ देती है.'जनसत्ता' में पिछले दिनों से छप रहे लगातार लेख इसकी तस्दीक करते हैं.जो एक वाक्य में कहें तो अंतर्विरोधों का पुलिंदा बन गया है.अभी बहुत दिन नहीं हुए,अभी नंदीग्राम पर ही कागज़ काला करते हुए उनहोंने वहां चल रहे नक्सलियों के आंदोलन को जायज ठहराते हुए,यहाँ तक कह दिया कि अगर गाँधी यहाँ होते तो नक्सलवादियों के साथ होते.तो वहीं अपने लेख'मार्क्सवाद अब भी संभावना है' में अपने ही बात को कांट रहे हैं।
दूसरी बात उनहोंने इसी लेख में नेपाल से कुछ कम्युनिस्ट विरोधी अफवाहों को जिस तरह बिना स्रोतों पर बात किये सवाल उठाए हैं.उससे इनकी लेखकीय विश्वसनियता खंडित होती है.उन्हें जरुर बताना चाहिए कि ये बातें उनहोंने पांचजन्य,सच्ची कथाएं या इंडिया टुडे में पढ़ी थीं.राजकिशोर जी जिस बिनाहपर मार्क्सवादियों की समाजवादियों की समालोचना कर रहे हैं वह भी उनके वैचारिक दिवालियापन का नमूना है.क्योकि मार्क्सवाद और समाजवाद की मतभिन्नताएं किस वर्गीय विश्लेषण पर आधारित होती है यह राजनीतिशास्त्र का कोई स्नातक भी बता सकता है.इसी तरह वे मार्क्सवादियों और समाजवादियों की जिस एकता की बात कर रहे हैं,उसमें उन्हें कम से कम उनकी नजर में जो समाजवादी हैं उनका नम भी लेना चाहिए.कहीं ये समाजवादी मुलायम सिंह यादव,अमर सिंह,लालू प्रसाद यादव या जॉर्ज फर्नांडीज तो नहीं हैं।
एक बहुत मजेदार बात राजकिशोर जी लिखते हैं"इतिहास की बहुत व्याख्या मार्क्सवादी तरीकों का इस्तेमाल किए बिना संभव नहीं है."उन्हें यह भी जरुर बताना चाहिए था कि इतिहास की वह कौन सी व्याख्या है जिन्हें गैरामार्क्सवादी तरीक़े से समझा जा सकता है.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें