29 सितंबर 2008

भगत सिंह

एक पूरी-की-पूरी

सदी विश्वासघात की गुजरी जाती है

मिट्टी से बंदूकें नहीं

उगीं लहू से सिंची फसलें मारी गईं उठती गई हैं

काराएं साम्राज्यवाद के कारिन्दे फिरते हैं

चारों ओर तुम्हारे हत्यारों का ही जयगान है

आज... लाहौर के उस निर्जन में गूंजी तुम्हारी आखिरी आवाज़ टकराकर लौट आती है

इस देश के विरान खेतों, उजाड़ शहरों से

मैकाले हंसता है

क्लिटन की बाहें थाम ब्लेयर और बुश के अट्टाहास में डूबता है

सतलज के तट से उठता रूदन.......

वे कुछ दिन थे

सन 1931 की वसंत के

जब एक सपने के डैने फिरते थे

चनाब से गंगा के कछारों तक

मौत को पराजित करती एक हंसी थी

जो गूंजी थी हिंदूकुश से विंध्य तक

मक़तल को जाती तुम्हारी वह धज सलामत है

गुज़रते गए हैं बरस दर बरस जुल्म और तबाही के

इस मुल्क ने तुम्हारा कैलेंडर बना दिया,

और तो और पूंजी के गुमाश्ते और

धर्म के सियासती भी तुम्हारी जयकार में लगे ठीक आयोध्या के बाद !

वह रंग जो उड़ा था फिजाओं

मेंबलिदान का वसंती रंग देखो तो आज किनका झंडा है!.....

लोग तुम्हे भूले नहीं

पर यह याद रखना भी क्या याद रखना है?

जानता हूं तुमने लानत भेजी होती इस तरह के याद रखने

पर शहादत की जयकार के इस शोर को खामोश करने को शायद तुमने धमाका किया होता.....

-आलोक श्रीवास्तव

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