29 अप्रैल 2009

सीबीआई का चेहरा

शाहनवाज आलम
पिछले दिनों सी0बी0आई0 ने बहुत गुप-चुप तरीके से एक ऐसी जांच पर फाइनल रिपोर्ट लगा दिया जिसके सार्वजनिक होने का इन्तजा़ार लम्बे समय से देश की जनता को था। यह जांच 9 मार्च 2001 को उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में कथित नक्सलियों के साथ पुलिस मुठभेड़ को लेकर थी जिसमें 16 दलित और आदिवासी सरकारी गोली के शिकार हुए थे। जिस पर समाज के विभिन्न तबकों ने यहाॅं तक कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने भी सन्देह व्यक्त किया था। लेकिन अब सी0बी0आई0 ने फाइनल रिपोर्ट लगाते हुए उन तमाम लोगों को क्लीन चिट दे दिया है जो इस जनसंहार में शामिल थे और जिसे प्रदेश की तमाम सरकारें नक्सलवाद उन्मूलन अभियान के नाम पर अपनी अब तक की सबसे बड़ी उपलब्धि मानती हैं। गौरतलब है कि तत्कालीन राजनाथ सरकार जो बसपा के बाहरी सहयोग से चल रही थी कि ये ‘उपलब्धि’ शुरू से ही संदेहास्पद रही। जहाॅं खूंखार नक्सली होने के नाम पर 12 वर्ष के एक बच्चे कल्लू की भी हत्या पुलिस ने की थी। तो वहीं इस मुठभेड़ के पांच दिन बाद मिर्जापुर कचहरी पर इस हत्याकाण्ड के खिलाफ भाकपा (माले) द्वारा बुलाई गयी आम सभा में सुरेश बियार नाम का वह नौजवान भी प्रकट हो गया जिसे पुलिस मुठभेड़ में मारने का दावा कर चुकी थी। इस सन्दर्भ में पुलिस द्वारा दिए गए तमाम अंतर्विरोधी बयानों के कारण पुलिस खुद उलझ गयी और भारी जनदबाव व विभिन्न मानवाधिकार संगठनों की पहल पर प्रदेश सरकार को सी0बी0आई0े जांच का आदेश देना पड़ा था। लेकिन चूंकि केंद्र में भी भाजपा के नेतृत्व वाली वाजपेयी सरकार थी इसलिए जांच के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति ही हुई। बहरहाल, घटना के अगले साल (2002) में हुए विधानसभा चुनावो में बसपा की सरकार बनने के बाद इस ‘मुठभेड़’ में मारे गए दलितों और आदिवासियों के परिजनों में न्याय की उम्मीद जगी। लेकिन मायावती के रवैये से यह जल्दी ही स्पष्ट हो गया कि इस खूनी हमाम में मनुवादी भाजपा ही नहीं दलितों की झंडावरदार बसपा भी नंगी है। भाजपा के बाहरी सहयोग से सरकार चला रही मायावती ने सत्ता में आने पर सबसे पहला काम सी।बी।आई। जांच को रोकर कर सी0बी0सी0आई0डी0 जाॅंच का आदेश देने का किया। इस जांच का परिणाम वही हुआ जिसकी उम्मीद थी। सारे अभियुक्तों को सरकार ने क्लीन चिट दे दी। बहरहाल, बसपा का अंकगणित गड़बड़ाने और सपा की भाजपा के अप्रत्यक्ष सहयेाग से 2003 में सरकार बनने के बाद एक बार फिर पीड़ित परिवारों के साथ न्याय की लुका-छिपी का खेल शुरू हुआ और घटना की जाॅंच फिर से सी.बी.आई. को सौंप दी गयी। लेकिन सपा सरकार में भी मामला वहीं का वहीं लटका रह गया। लेकिन अब पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई सर्वजन हिताय की सरकार में सी0बी0आई0 ने पूरे घटना पर पटाछेप करते हुए सभी आरोपियांे दोषमुक्त घोषित कर दिया। यहां गौर करने वाली बात यह है कि सीबीआई जांच केंद्र सरकार के अनुरोध पर करवाती है। जहां अमूमन राज्य और केंद्र में अलग-अलग दलों की सरकारें होने के चलते जांच रिपोर्ट पर घमासान मच जाता है। लेकिन इस पूरे प्रकरण में एक खामोश सहमति दोनों ही पालों में साफ दिखती है। नहीं तो जो केंद्र सरकार मायावती पर नकेल कसने के लए ताज काॅरिडोर और आय से अधिक संपत्ति मामलों में सीबीआई का डर जब-तब दिखाती रहती है और जिसके युवराज मायावती के जनाधार में सेंध मारने के लिए दलितों के घर खाना खाकर उन्हें कृतज्ञ करते हैं। वो सिर्फ जांच में पारदर्शिता और ईमानदारी बरत कर ही बसपा और भाजपा सरकार को निर्दोष दलितों-आदिवासियों के कत्ल का मुजरिम बना सकती थी। लेकिन चुनावी मौसम होने के बावजूद ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और बहुत बेशर्मी से इस हत्या कांड के सूत्रधारों को दोष मुक्त घोषित कर दिया गया। दरअसल नक्सलवाद और आतंकवाद से निपटने के नाम पर आज सभी राजनैतिक दलों में एक आम सहमति बन गई है। जिसमें किसी भी निर्दोष की हत्या पर किसी भी राजनैतिक हल्के से सवाल नहीं उठता और न ही जांच एजेंसियां सरकार के नजरिए के खिलाफ जाती हैं। ऐसे में अगर व्यक्तिगत या सांगठनिक स्तर पर कोई सवाल उठाता भी है तो उसे सत्ता तंत्र तमाम तरह से अपनी औकात न भूलने की चेतावनी देता है। मसलन अभी पिछले दिनों ही जब पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता ऋषी सिंह ने यूपी पुलिस से सूचना के अधिकार के तहत जानकारी मांगी कि एसटीएफ ने अपने गठन के बाद से कितने एनकाउंटर किए हैं, एनकाउंटरों का समय क्या रहा, मारे गए लोगों और एसटीएफ के अधिकारियों के जातीय और वर्गीय स्तर क्या थे। तो उन्हें तो पहले टरकाने की कोशिश की गई फिर यह पूछा गया कि आप सूचना क्यों चाहते हैं और अंत में इस कानून की धज्जियां उड़ाते हुए साफ-साफ मना कर दिया गया। वहीं इसी तरह के सवालों को पूछने वाले एक उर्दू अखबार के इलाहाबादी पत्रकार साहबे आलम मुसलमान होने के चलते इतने खुशकिस्मत नहीं निकले। उन्हें दो दिनों तक पुलिस थाने में बैठाकर पूछताछ करती रही। यहां यह समझा जा सकता है कि पुलिस ऐसे सीधे-सादे सवालों का जवाब देने से क्यों कतराती है। वो नहीं चाहती कि यह बात सामने आए कि 99 प्रतिशत मुठभेड़ भोर में और आबादी से दूर फर्जी तरीके से किए जाते हैं। जहां कुछ नक्सली अक्सर अंधेरे का लाभ उठाकर भाग जाते हैं। मरने वाले कमजोर तबके और मारने वाले कथित ऊंची जातियों के होते हैं। दरअसल ये ऐसी तल्ख सच्चाइयां हैं जिन्हें नागरिक समाज बहुत अच्छी तरह जानता है लेकिन इसकी तस्दीक नहीं करना चाहता। क्योंकि राजसत्ता द्वारा निर्मित इस कृत्रिम असुरक्षाबोध और उस पर टिके हमारे राजनैतिक माहौल में ऐसा करना देशद्रोह कहलाएगा। यह सोचने वाली बात है कि जैसे-जैसे हमारा लोकतंत्र उम्रदराज हो रहा है उसमें देश भक्त बने रहने की शर्ते भी उसी अनुपात में कठोर और संकीर्ण होती जा रही हैं। जो आरोप कभी विदेशी दुश्मनों से सांठ-गांठ पर लगते थे आज वही हमारे आस-पास अपने जल-जंगल-जमीन की रक्षा के लिए लड़ने वालों के पक्ष में आवाज उठाने पर लग जाता है। जो दरअसल एक लोकतांत्रिक ढांचे में राज्य के फासिस्ट रुपांतरण की प्रक्रिया है। जिसे सत्ता की नजर में देशद्रोही बने बिना नहीं रोका जा सकता।

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