06 मई 2009

जूता तो पड़ना ही था

-राघवेंद्र प्रताप सिंह

एक इराकी पत्रकार ने जूता क्या मारा जैसे प्रतिरोध का एक नया तरीका मिल गया हो। वैसे भी जनता नेता लोगों को ठीक करने के लिए नया-नया तरीका अपनाती रही है। अब बुश साहब को ही जाते-जाते विदाई समारोह की भेंट मिल गई। उनको अपने जीवन में किए गए कमोZ का पुरस्कार जनता की जागरूक बिरादरी ने दे ही दिया। अभी पिछले दिनों पी। चिद बरम साहब को प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान एक पत्रकार ने जूता मार कर अपना विरोध जताया। पी. चिद बरम साहब भी अपने प्रेरणास्त्रोत बुश साहब ही की तरह मुस्कुराए और उनसे नसीहत देकर छोड़ दिए। जैसे वे समझाना चाह रहे हों कि हे! जरनैल सिंह तुम अभी बच्चे हो। मगर मैं तुमसे बड़ा हूं और तु हारा अपराध अक्ष य है फिर भी मैं क्षमादान दे रहा हूं। आप उस प्रकरण को याद कर सकते हैं जब ऋषि भृगु विष्णु जी से कुपित हो गए और शेषषायी विष्णु की छाती पर जाकर जोर से लात मारी। शेषषायी विष्णु भगवान मुस्कराए और उन्हें क्षमा कर दिया।कहने का मतलब यह है कि आप भारी अपराध करें और जब कोई भुक्तभोगी आपको गाली दे तो आप मुस्कराएं और क्षमा कर दें। यह बाह्मणवादी पर परा हमारे समाज में बहुत पहले से ही चली आ रही है सो चिद बरम साहब उसे निभा रहे हैं। निहगई और बेहयाई का यह आलम अब सत्ताधारी लोगों के मन में घर कर गया है।वाह री हमारी जनता। परमानंद में खुश है। वह चिद बरम साहब के धैर्य की प्रशंसा कर रही है और जरनैल सिंह की थू-थू हो गई है। बहुत से सिख भाई कहते मिल गए कि मुद्दा ठीक है मगर तरीका गलत है। गांधी के देश में खोखली नैतिकता की दुहाई देने वालों की कमी तो है नहीं। परेशानी का सबब तब ज्यादा हो गया जब नवीन जिंदल साहब को एक हेडमास्टर ने जूता मारा। सारे के सारे दल आपसी तू-तू मैं-मैं को भूल कर कहने लगे यह लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है।यह बात तो ठीक ही कह रहे हैं कि हमारे लोकतंत्र के लिए जनता का प्रतिरोध खतरनाक ही तो है। जनता की आवाज से लोकतंत्र को खतरा तो होता ही है। आप जरा सोचें विधानसभा के सामने पड़े-पड़े भूखी प्यासी जनता बीमार हो जाती, अपनी मांगे मनवाने के लिए दिन-रात एक किए रहती है। धरना स्थल पर लइया-चने के बलबूते पर लड़ाई लड़ती है। यह सत्ताधारी सुध नहीं लेते हैं। उस पर तुर्रा यह है कि वह अब धरना-प्रदर्शन करने भी नहीं देंगे।अब जरा सोचें कि हम अपनी समस्या सुनाने जाते हैं तो आप मिलते नहीं हैं। आपके दरवाजे जाओ तो दरवाजा खुलते-खुलते हमारा धैर्य जबाव दे देता है। हमारे घर आपको आने की फुरसत नहीं है। अब चुनाव में मौका मिला है तो क्या करें। तो भइया अब लो जूता।कर्ज से मर रहे किसान के पास अनाज का दाना नहीं है घर पर जो जमा पूंजी थी लड़की की शादी में खर्च हो गई। घर बारिश में गिर गया था सो बैठने रहने की जगह नहीं है। आप हमारे घर आएं तो हम कहां बैठाएं और क्या खिलाएं। तो भइया खाओ जूता।अबकी महंगाई में दवाई, कपड़े, घर, भोजन सब महंगे हो गए हैं। हम खरीद भी नहीं पाए। सब कुछ पुराना-धुराना पड़ा है सो जूता भी पुराना हो गया। अबकी बार तो एक लाल कार्ड बनवाने में यह घिस गया था तो आप ले जाओ जूता।यह जूतम पैजार और मारा-मारी की संस्कृति भी आपकी बनाई हुई है। संसद में विश्वासमत के दौरान हमने देखा की कैसे आप सत्ता के खेल में तू-तू, मैं-मैं कर रहे थे और जूते तो छोड़ो टोपियां भी उछल रही थीं।हमने भी अपने नेताओं का अनुकरण किया है और पूर्णतया लोकतांत्रिक तरीके से जूता चला रहे हैं।संसद में ही हमारी गाढ़ी कमाई लुटाते रहे और बेवजह की बहस में उलझे दिखे। कभी भी यह संसद भुखमरी बेरोजगारी के सवालों पर जबाव देती नजर नहीं आई। हम तब भी सब हंसते हंसते सह गए। आपने उस पर भी अपनी वही चिर-परिचित मुस्कान बिखेरी जैसे शेषषायी विष्णु भगवान मुस्काते थे। भगवान विष्णु अपनी इंद्रसभा के लिए अक्सर असुरों से लड़े। जब असुरों पर अत्याचार हुआ विष्णु जी चुप रहे। वही हाल हमारी संसद का है जब जनता के मुद््दे आते हैं तो चुप रहते हैं। जब अपनी बारी आई तो खूब उछले-कूदे। सरकार बचाने की जुगत भिड़ाई और बच भी गए।हमारी जनता ने फरियाद लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर से लगातार आवाज लगाई। आप नहीं जागे। आपने हमें उल्टे पांव लौटाया। जब जिद पर अड़े तो पुलिस के बूटों के नीचे पिटवाया। हम पिटे। हम लुटे। हम पर चोटें पड़ीं। हम सह गए मगर हम टूटे नहीं क्योंकि हमें मालूम था कि आप आओगे। सो अब आप आए हैं। हमारे पास बूटे नहीं है तो क्या हुआ? जूता तो है? छह न बर का जूता, 12 न बर का जूता, रिबॉक नहीं तो गोल्ड स्टार का जूता वह नहीं तो कोई भी लोकल क पनी का जूता है अब भइया हम अपना बूट चलाए रहे हैं आप स भल सको तो स भल लो।यह नेता सह नहीं पाते कि कोई उन्हें जूता मारे या पहनाए? क्योंकि वह माला पहनते आए हैं। उन्हें यह बात पचेगी नहीं। आज तक तो यह भूमिका पाले रखे कि वह एक कर्तव्यनिष्ठ, कर्मठ, प्रतापी, युवा Nदय सम्राट, ओजमयी, तेजमयी, लौह पुरुष, लौह महिला, लोकनायक, महात्मा बने थे। उनके आगे पीछे कुछ लगुए-भगुए उनका गुणगान भी करते नजर आए। कभी बोले क्वजय हों तो कभी बोले क्वभय हों।तो हे मेरे देश के आभा मंडल अध्यक्षों अब जनता का भ्रम टूट गया। यहां अब प्रजा नहीं जनता रहती है। अब प्रजातंत्र नहीं जनतंत्र पर विश्वास है। हमारे यहां राजा महराजा के दिन लद गए। अब इस लोकतांत्रिक महासमर में वही सफल होगा जो जनता के साथ चले। जो जनता के मुद्दों पर लड़े और व्यवस्था में जनता के लिए सही जगह का निर्माण करे। वरना तो अपना-अपना बिल्ला है और अपना-अपना चिन्ह सो लगाए घूम रहे हो सो घूमो।मगर हमारा चिन्ह तो साफ हो गया है। जिसका नाम है जूता। अभी तो यह शुरुआत है साहब आगे-आगे देखिएगा क्या होता है। मगर अभी जूता है तो पड़ना ही था।

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