14 मई 2009

किसका फैसला किसका लोकतंत्र

राजीव यादव

‘जनता का फैसला 86 फीसदी लोगों ने कहा लखनऊ और कानपुर में भी मैट्रो रेल होनी चाहिए।’ लखनऊ में बड़े-बड़े विशालकाय होर्डिंगों पर लिखा यह इश्तिहार शायद ही किसी को न दिखा हो। आइडिया का यह विज्ञापन देखने और पढ़ने में आम लग सकता है पर इसके सहारे जो खास राजनीति की जा रही है वह चुनाव आचार संहिता का सीधा उल्लंघन है। इस चुनावी बयार में सरकार इसके सहारे कई हितों को एक साथ साधने में लगी है।
पहला तो सरकार जो चुनावी आचार संहिता लागू होने के बाद अपनी महत्वाकांक्षी योजनाओं का गुणगान नहीं कर सकती थी वो अब उस काम को बहुराष्टीªय कम्पनियों के जरिए साधने की कोशिश कर रही है। ऐसा वह चुनाव आचार संहिता के डर से कर रही है यह मान लेना अपने को भ्रम में रखना होगा। गौर से देखने पर यह विज्ञापन खुद ब खुद अपना चरित्र बयां करता है कि वो क्या है, क्या चाहता है। मौजूदा राजनीति जिसकी स्वीकार्यता दिन ब दिन कम होती गई है। वो ऐसे विज्ञापनों के सहारे अपने विकास के नए माडल गढ़ने की कोशिश करती है। आजकल विकास को लेकर हो रहे हो हल्ले में गुजरात को भारत के विकास का इंजन कहते हुए नरेन्द्र मोदी को नवाजा जा रहा है। विकास के पुरोधाओं ने तो मोदी में भारत के प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री का अक्स तक देख डाला। शायद मोदी देश का पहला ऐसा प्रधामंत्री होंगे जिनका विदेश में ही नहीं देश में भी कई प्रदेशों में प्रवेश निषेध होगा। जिसकी तस्दीक पिछले दिनों एनडीए के सहयोगी दलों ने भी की है।
बहरहाल इस ‘जनता के फैसले’ वाली होर्डिंग के निचले हिस्से में स्रोत के रुप में वाइस आफ इंडिया को उद्धृत किया गया है। अब यहां पर यह जानना जरुरी है कि मैट्रो रेल चाहने वाली ये जनता कौन है। असल में ये वो प्राइम टाइमिया मिडिल क्लास है जिसका वोटिंग प्रतिशत सबसे कम होता है। पर इस लोकतंत्र के पैरोकार ने भ्रम का एसएमएसिया लोकतंत्र खड़ा करके इनको जो अहमियत दी है वो इस लोकतंत्र की सबसे आस्थावान जनता को मुंह चिढ़ाता है। लखनऊ में मायावी ड्रीम प्राजेक्ट का हाथी अब तक हजारों जिंदगियों को रौंद चुका है उस पर अब ये मैट्रो रेल की कवायद कोढ़ में खाज की तरह है। ये वो जनता है जिसका जीवन स्तर सुधारने के लिए मूलभूत आवश्यकतांए यहां नदारद हैं पर लोकतांत्रिक राज्य के दमन की हर मशीनरी यहां कई दशकों से मौजूद है।
एक आइडिया जो बदल दे आपकी दुनिया को पेश कर रहे गुरु वाले अभिषेक बच्चन को गौर से पहचानना जरुरी होगा। ब्राउन रंग की शर्ट, जेब में दो पेन, हाथ में हैण्ड बैग, हल्की दाढ़ी, चस्मा पहने हुए अभिषेक बच्चन मोबाइल स्क्रीन दिखाते हुए जिस पर यस लिखा है। वो जिस छवि को पेश कर रहे है उसे किसी भी शहर में सुबह-शाम काम पर जाते-आते हुए थके हारे लोगों में देखा जा सकता है। दरअसल ये वो चरित्र है जो घोर गैरराजनैतिक और व्यक्तिवादी है। मसलन वो एक अदना सी नौकरी को सामाजिक क्रांन्ति मान लेता है पर जब सड़क पर उतरने की बात आती है तो खुद सुधरो जग सुधरेगा का फार्मूला अपना लेता है। विज्ञापन कम्पनियां अक्सरहां ऐसी छवि को पेश करती हैं जिसमें खुद की अनुभूति देखने वाला करे जिससे उन्हें स्वीकार्यता जल्द हासिल हो सके। इस विज्ञापन में भारी जनसैलाब जो भीड़ में हाथ उठाए हामी भर रहा है और बैक ग्राउंड में सूरज की रोशनी की तरह पीले रंग का समायोजन एक छद्म आशावादिता का संचार कर रहा है।
इसे हम भले ही किसी नयी परिघटना के बतौर देख रहे हैं पर वैश्विक स्तर पर हुए ऐसे ढेर सारे कारनामे हमें खुले तौर पर चेता रहे हैं कि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की जकड़न दिन ब दिन संसद पर मजबूत होती जा रही है। आगामी लोकसभा चुनावों में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में युवाओं को दस हजार रुपए में लैपटाप व गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वालों को मोबाइल देने का वायदा किया है। इसे हम सिर्फ चुनावी लालीपाप कह कर नकार नहीं सकते क्यों की यह एक बड़ी साजिस का हिस्सा है। पिछले दिनों कर लो दुनिया मुठ्ठी में कहने वालों की मुठ्ठी से आर्थिक मंदी के इस दौर में जब रेत निकल गई और खुद को बचाने का संकट आया तो उन्होंने टेलीकाम घोटेले से लेकर भारी पैमाने पर पच्चीस-पच्चीस रुपए में सिम कार्ड बाटे। जो आने वाले समय में उनकी पूजी के लिए बड़ा बाजार होगा ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने अपने जन्म काल के समय पांच-पांच सौ रुपए में मोबाइल बाटे थे। आखिर क्या जरुरत आन पड़ी की जो लोग कल तक त्रिशूल बाट रहे थे वो आज लैपटाप, मोबाइल बाट रहे हैं और वहीं दूसरा जय हो कर रहा है।
दरअसल ये पूरी बाजीगरी आर्थिक मंदी की वजह से रसातल में जा रहे पूजीवाद और उसके सबसे बड़े मरकज को बचाने की ही कांग्रेस और भाजपा जैसे उनके पैदल सैनिको की कवायद है। इसे इस तरह से भी समझा जा सकता है कि जब अमरीका आर्थिक मंदी में नहीं फसा था और उसका एजेण्डा आतंकवाद से निपटने के नाम पर मुस्लिम देशों की खनिज पदार्थों पर कब्जा करना था। तब उसके ये पैदल सैनिक अपने देश में भी आतंकवाद को छद्म एजेण्डा बनाकर अपने-अपने उग्र और नर्म हिन्दुत्व से मुस्लिमों की छवि को आतंकवाद से जोड़कर, पाकिस्तान पर हमला करने का माहौल बना कर अमरीका की इसी नीति को भारत में स्वीकार्यता दिलाकर उसे मजबूत करने की कोशिश कर रहे थे।
हमारे देश में आम चुनावों में तकरीबन दो हजार करोड़ रुपए राजनीतिक दल खर्च करते हैं। जिसका पचास फीसदी हिस्सा उद्योगपतियों द्वारा काले धन के रुप में दिया जाता है। पिछले दिनों एसोचेम के अध्यक्ष ने 12 सूत्रिय चुनावी घोषणा पत्र जारी करते हुए अपनी मांगों को विकास का हवाला देकर उसे राजनैतिक दलों को उनके अपने घोषणापत्र में शामिल करने की बात कही। उन्होंने अधिकृत तौर पर ये मांग की कि वे राजनैतिक पार्टियों को खुलआम चन्दा देंगे। ये सब हमारे देश के लिए भले ही नया लग रहा हो पर अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में उद्योगपति जो चन्दा देते हैं उसको बकायदा वे अपनी बैलेंस सीट में भी प्रदर्शित करते हैं। ऐसा ही खेल अब भारत में लोकतंत्र को मजबूत करने के नाम पर खेला जाएगा जो किसी चुनाव आचार संहिता से परे होगा।

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