15 जून 2009

मीडिया भी दे अपनी ‘खबर’

अनिल चमड़िया

कोलकाता के जे एन मुखर्जी ने एक समाचार पत्र में एक लेख पढ़कर लेखक की पृष्ठभूमि के बारे में जानने के लिए पत्र लिखा. उन्हें महीनों तक जवाब नहीं मिला. लेकिन लेखक के बारे में जानना जरूरी था क्योंकि स्वास्थ्य संबंधी एक विषय पर उन्होने जो दावे किए थे वो भ्रामक थे और एक हद तक बेबुनियाद भी थे. उस लेख में किसी नये उत्पाद का बाजार बनाने की योजना दिखाई दे रही थी.
जे एन मुखर्जी समाचार पत्र के दफ्तर पहुंच गए. लेकिन उन्हें कई बार की भागदौड़ के बाद भी उस लेखक का न तो पता ठिकाना मिला और वो शोधकर्ता है भी या नहीं, उसके बारे में कोई जानकारी नहीं मिली. लेकिन उस दफ्तर के आखिरी चक्कर में एक संपादकीय सहयोगी ने उन्हें एक जानकारी दी कि कई चीजें प्रायोजित होती हैं और उसमें लेखक का पता ठिकाना और पृष्ठभूमि तलाशना व्यर्थ है.
जन संचार माध्यमों में रोजाना जितनी तरह की सामग्री परोसी जाती है, उनमें से बहुत बड़ा हिस्सा खबरों का नहीं होता है. उन्हें मौटे तौर पर प्रचार सामग्री कहा जा सकता है. लेकिन वो खबरों की तरह प्रस्तुत की जाती है और उन पर खबरों की तरह भरोसा भी किया जाता है. अपनी बातें लोगों तक पहुंचाने के लिए तमाम तरह के संगठन रिपोर्टरों को तरह तरह से प्रेरित करते हैं
ये एक खुली किताब की तरह है कि पत्रकारों को बड़े बड़े गिफ्ट मिलते हैं. सैर सपाटे करने की सुविधाएं मिलती है. इन सबके प्रभाव में रिपोर्टर खबरें प्रस्तुत करते हैं. कहा जा सकता है कि दूसरे पेशों की तरह पत्रकारिता में भी बहुत लोग ऐसे हो सकते हैं. उस संस्थान को उनके व्यक्तिगत आचरण के बारे में कैसे हर बात की जानकारी हो सकती है जिसमें वह काम करता है. लेकिन संस्थान को एक बात की जरूर जानकारी होती है, यदि कोई संस्था या व्यक्ति अपनी उपलब्धियों या अपने शोध की सफलता के लिए किसी रिपोर्टर को कहीं ले जाता है लेकिन उसकी रिपोर्ट को रिपोर्टर की खबर के रूप में प्रस्तुत किया जाता है. क्या किसी को यह लगे कि उस खबर को प्राप्त करने के लिए किसके संसाधन का इस्तेमाल किया गया तो ये बताया जाना चाहिए?
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