09 जून 2009

चुनाव आयोग का सावरकरवादी एजेंडा !


धर्मनिरपेक्षता की चादर ओढे "सर्व धर्म सम्भाव" का दिखावा करने वाले इस देश में अल्पसंख्यकों के साथ होने वाले दोयम दर्जे के बर्ताव को उजागर करने वाली एक शाहनवाज़ की सनसनीखेज़ रिपोर्ट. रिपोर्ट में हाल में लोकसभा चुनाव से पहले कैसे सोची समझी रणनीत के तहत मुसलमानों के नाम मतदाता सूचियों से काटा गया. सिर्फ आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में ही लगभग पचहत्तर हजार मुस्लिम मतदाता बनने की शर्तें पूरी होने के बावजूद मताधिकार से वचित हैं। आवामी काउंसिल फाॅर डेमोक्रेसी एण्ड पीस नाम के गैरसरकारी संस्था ने एक सर्वे के आधार पर इलाहाबाद हाईकोर्ट में याचिका दायर की है.-
संपादक


शाहनवाज आलम

वैधानिक संस्थाओं में सांप्रदायिकता कितनी गहराई तक जड़ जमा चुकी है और कितने संस्थाबद्ध तरीके से काम करती है, मतदाता सूची और परिसीमन इसके ताजा उदाहरण हैं। जहां देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय के एक खासे हिस्से को मतदान के उसके वैधानिक अधिकार से उसे वंचित कर दोयम दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। और यह सब हुआ है लोकतांत्रिक प्रणाली को पारदर्शी और चुस्त-दुरुस्त बनाए रखने की जिम्मेदारी उठाने वाले चुनाव आयोग की सरपरस्ती में।
दरअसल मुस्लिमों के एक खासे हिस्से को राजनैतिक तौर पर ‘अनागरिक’ बनाने के इस सांप्रदायिक साजिश का खुलासा तब हुआ जब आवामी काउंसिल फाॅर डेमोक्रेसी एण्ड पीस नाम के गैरसरकारी संस्था ने आजमगढ़ और मऊ जिलों में लगभग डेढ़ लाख मुस्लिमों के नाम मतदाता सूची से बाहर होने के मुद्दे पर इलाहाबाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की। जिस पर मुख्य न्यायाधीश हेमंत गोखले ने चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली पर तल्ख टिप्पणी करते हुए इसे तत्काल सुधारने का निर्देश दिया था। लेकिन बावजूद इसके चुनाव आयोग ने कोई ठोस कदम नहीं उठाया।
आवामी काउंसिल ने ये याचिका अपने छः महीने के सर्वे के बाद किया था जिसमें उसके कार्यकर्ताओं ने आजमगढ़ और मऊ जिलों के मुस्लिम आबादी के दरवाजे-दरवाजे जाकर मतदाता बनने से वंचित रह गए लोगों की संख्या इकठ्ठी की और उन्हें मतदाता बनने के लिए भरे जाने वाले फार्म 6 को भरवाया था। इस सर्वे के नतीजे चैंकाने वाले तो थे ही, वैधानिक संस्थाओं में किस तरह अल्पसंख्यक विरोधी मानसिकता गहरी पैठ कर चुकी है इसका भी अफसोसनाक खुलासा हुआ। जब पाया गया कि सिर्फ आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र में ही लगभग पचहत्तर हजार मुस्लिम मतदाता बनने की शर्तें पूरी होने के बावजूद मताधिकार से वचित हैं। जो आजमगढ़ लोकसभा क्षेत्र के कुल मुस्लिम मतदाताओं का 44 प्रतिशत है। तो वहीं घोसी लोकसभा क्षेत्र में लगभग अस्सी हजार मुस्लिमों के नाम मतदाता सूची से गायब है। घोसी के मामले में तो पीस पार्टी आॅफ इंडिया (पीपीआई) ने चुनाव आयोग के विरुद्ध उच्च न्यायालय में रिट दायर किया हुआ है।
जब सिर्फ दो लोकसभा क्षेत्रों में ही डेढ़ लाख मुस्लिम मतदाता सूची से बाहर हैं तो फिर पूरे प्रदेश की क्या स्थिति होगी इसकी कल्पना की जा सकती है। अवामी काउंसिल के महासचिव असद हयात जिन्होंने आजमगढ़ और मऊ की आंख खोल देने वाले आकड़ों के बाद पूरे प्रदेश के एक-एक बूथ के मतदाता सूची के गहन पड़ताल के बाद उच्च न्यालय का दरवाजा खटखटाया है का दावा है कि पूरे प्रदेश में लगभग बावन लाख पच्चीस हजार छः सौ तिरासी मुसलमान मतदाता सूची से बाहर हैं।
दरअसल अल्पसंख्कों के सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक हैसियत का आकलन करने के लिए संप्रग सरकार द्वारा गठित सच्चर कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में अल्पसंख्यकों खास कर मुसलमानों के नाम मतदाता सूचियों से गायब होने पर चिंता जाहिर करते हुए कहा था ‘ऐसा होने से न केवल मुसलमान राजनैतिक तौर पर कमजोर हो रहे हैं बल्कि सरकारी विकास योजनाओं से भी महरुम हो रहे हैं।’ लेकिन मनमोहन सरकार के लिए सच्चर कमेटी की सिफारिशें कितना महत्व रखतीं हैं यह उसके दो साल बीत जाने के बाद भी ठंडे बस्ते में पड़े रहने से समझा जा सकता है। वैसे भी हमारे यहां ऐसी रिपोर्टो (मंडल कमीशन) को डेढ़-डेढ़ दशक तक सीट के नीचे दबाकर बैठने का चलन है।
उत्तर प्रदेश में 2001 में हुए जनगणना और उसके आधार पर बने मतदाता सूची के मुताबिक प्रदेश में कुल जनसंख्या सोलह करोड़ इकसठ लाख सत्तानबे हजार नौ सौ इक्कीस है जिसमें मुस्लिम तीन करोड़ चैहत्तर लाख एक सौ अट्ठावन है जो कुल जनसंख्या का 18.5 प्रतिशत है। वहीं गैर मुस्लिम आबादी तेरह करोड़ चैव्वन लाख सत्तावन हजार सात सौ तिरसठ है जो कुल जनसंख्या का 81.5 प्रतिशत है। तो वहीं पूरे प्रदेश में 2007 में संपन्न विधान सभा चुनावों में प्रयुक्त मतदाता सूची के मुताबिक कुल मतदाता संख्या ग्यारह करोड़ चैतिस लाख उन्तालिस हजार आठ सौ तिहत्तर है। यानि 2001 के जनगणना की 68.25 प्रतिशत जनता 2007 में मतदाता बन गयी। इसमें मुस्लिम मतदाताओं की संख्या एक करोड़ सत्तावन लाख साठ हजार छः सौ तिरानबे है जो कि कुल मतदाताओं का 13.89 प्रतिशत है। जबकि गैर मुस्लिमों की संख्या नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी है जो कुल मतदाताओं का 86.10 प्रतिशत है।
यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर जब कुल जनगणना के हिसाब से मुस्लिम आबादी 18.5 प्रतिशत है तो फिर मतदाता सूची में यही आकड़ा घट कर कैसे 13.89 प्रतिशत हो गया। जबकी दोनों को एक समान होना चाहिए। वहीं दूसरी ओर गैर मुस्लिम आबादी अपने जनगणना का 81.5 प्रतिशत है लेकिन मतदाता सूची में यह आंकड़ा बढ़ कर 86.10 प्रतिशत हो गया है। यानि जहां एक ओर गैरमुस्लिम अपनी 2001 की घोषित आबादी के मुकाबले आश्चर्यजनक रुप से 5.05 प्रतिशत (5728713) अधिक मतदाता बन गए। वहीं इसके उलट सैतालिस लाख उन्नीस हजार अटठानवे मुस्लिम नागरिक अपनी आबादी से 4.16 प्रतिशत कम हो कर मतदाता बनने से वंचित रह गए।
मुस्लिमों और गैर मुस्लिमों के मतदाता बनने के इस असमानता को एक दूसरे दृष्टिकोण से भी देखा जा सकता है। 2001 के जनगणना में कुल मुस्लिम आबादी तीन करोड़ चैहत्तर लाख एक सौ अट्ठावन है। जिसमें से सिर्फ 51.27 प्रतिशत यानि एक करोड़ सत्तावन लाख छः हजार तिरानबे लोग ही मतदाता हैं। वहीं गैर मुस्लिमों की कुल आबादी तेरह करोड़ चैव्वन लाख सत्तावन हजार सात सौ तिरसठ में से नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी लोग मताधिकारी हैं। जो अपनी आबादी का 72.11 प्रतिशत है। इसका मतलब कि मुसलमानों की मतदाता बनने की दर गैर मुसलमानों के मुकाबले 20.84 प्रतिशत कम रही। जबकि इसे भी 72.11 प्रतिशत होनी चाहिए थी क्योंकि मतदाता बनने की दर समान होनी चाहिए। इस प्रकार मुस्लिम मतदाताओं की संख्या दो करोड़ इक्कीस लाख छाछठ हजार दो सौ अठहत्तर होनी चाहिए थी जबकि यह है सिर्फ एक करोड़ सत्तावन लाख छिहत्तर हजार छः सौ तिरानबे। यानि चैसठ लाख छः हजार पैतिस मुसलमान मतदाता बनने से वंचित कर दिए गए हैं।
बहरहाल यह तो चुनाव आयोग के हेरा-फेरी की सिर्फ सतह है जिसके नीचे और भी कई चैंकाने वाले तथ्य दबे हैं। मसलन 1981 के जनगणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश में कुल मुस्लिम आबादी एक करोड़ छिहत्तर लाख सत्तावन हजार सात सौ पैंतिस और गैर मुस्लिम आबादी नौ करोड़ बत्तीस लाख चार हजार दो सौ अठहत्तर बतायी गई है। लेकिन 2007 के मतदाता सूची से पता चलता है कि मुस्लिम मतदाताओं की कुल तादात एक करोड़ सत्तावन लाख साठ हजार छः सौ तिरानवे है जो उनकी 1981 की जनसंख्या से भी लगभग बीस लाख कम है। यानि 2007 तक प्रदेश में मुसलमान उतनी संख्या में भी मतदाता नहीं बन पाए जितनी सत्ताइस साल पहले उनकी आबादी थी। जबकि दूसरी ओर गैर मुस्लिम इसी समयावधि में अपने 1981 के जनगणना से 104 प्रतिशत ज्यादा यानि नौ करोड़ छिहत्तर लाख उन्यासी हजार एक सौ अस्सी मतदाता बन गए।
इन हतप्रभ कर देने वाले तथ्यों के आलोक में यह जानना भी दिलचस्प होगा कि आखिर चुनाव आयोग जैसे वैधानिक संस्था के देख-रेख में बनाए जाने वाली मतदाता सूचियों में आखिर ये घोर सांप्रदायिक और राष्ट्र विरोधी कृत्य कैसे अंजाम दिया जाता है। आजमगढ़ के मुबारकपुर कस्बे के पचपन वर्षीय रियाज अहमद जिनका नाम वोटर लिस्ट से गायब है कहते हैं कि सरकारी अधिकारी सघन और गंदी मुस्लिम बस्तियों में जाने से कतराते हैं जिसके पीछे कभी उनकी सांप्रदायिक मानसिकता काम करती है तो कभी लापरवाही और उदासीनता। वहीं मऊ के मुस्लिम मोहल्ले डोमनपुरा की पैतालिस वर्षीय हाजरा बेगम बताती हैं कि मुस्लिम लड़कियों का नाम तो एक सिरे से मतदाता सूची में इस तर्क के आधार पर शामिल ही नहीं किया गया कि शादी के बाद वे अपने पति के घर चली जाएंगी। इस तरह अविवाहित लेकिन बालिग मुस्लिम युवतियां तो एक सिरे से मताधिकार से वंचित हो गई हैं। मुस्लिम महिलाओं में प्रचलित पर्दा प्रथा भी कई बार उनके खिलाफ हथियार के बतौर इस्तेमाल होता है। मऊ के शाही मस्जिद मोहल्ले की रुबीना, यास्मीन बीबी और फातिमा बेगम के मुताबिक उनका नाम इस आधार पर मतदाता सूची में शामिल ही नहीं किया गया कि अधिकारियों ने यह मानने से इनकार कर दिया कि वे अपनी सही पहचान बता रही हैं। तो वहीं एक खासे तबके को लखनऊ, कानपुर और फैजाबाद में बांग्लादेशी होने के संदेह में मतदाता सूची में शामिल नहीं किया गया।
यही स्थिति युवाओं की भी है। जो मताधिकार से वंचित मुस्लिम नागरिकों की कुल संख्या के लगभग पच्चीस प्रतिशत हैं। इनमें से अधिकतर की उम्र 18 से 24 वर्ष के बीच है। जिन्हें बहुत ही हास्यास्पद और कमजोर बहानों से ‘अनागरिक’ बना दिया गया है। मसलन जिन युवाओं के पास स्कूली शिक्षा के अभाव के चलते जन्म तिथि प्रमाण पत्र नहीं है उन्हें यह कहते हुए मतदाता सूची में शामिल नहीं किया गया कि अभी इनकी उम्र मतदाता बनने की नहीं लगती। दूसरी ओर अशिक्षा के चलते एक बड़ा तबका मतदाता बनने के लिए अनिवार्य फार्म-6 को पढ़कर उसमें मांगी गई जानकारी को उल्लिखित कर पाने में असमर्थ होने के चलते मताधिकारी नहीं बन पाते। यहां गौरतलब है कि मुस्लिम आबादी में बावन प्रतिशत लोग निरक्षर हैं। वहीं फार्म-6 के उर्दू में नहीं प्रकाशित होने के चलते सिर्फ उर्दू जानने वाले नागरिक भी मतदाता बनने से वंचित रह जाते हैं।
बहरहाल मतदाता सूची तैयार करने वाले चुनाव आयोग के अधिकारियों का सांप्रदायिक रवैया तो कई बार फूहड़ रुप में सामने आ जाता है। मसलन अभी सम्पन्न हुए लोकसभा चुनावों में जहां जौनपुर में लेखपाल मुस्लिम नागरिकों के सैकड़ो मतदाता फार्म के बंडल जलाते हुए रंगे हाथ पहड़े गए जिसके खिलाफ लोगों ने शिकायत भी दर्ज कराई। तो वहीं आजमगढ़ के बदरका मोहल्ले में मुस्लिम मतदाताओं के फोटो पहचान पत्र कूड़े में फेंके मिले।
बहरहाल मुस्लिमों के साथ हुए इस भेदभाव के लिए चुनाव आयोग तो जिम्मेदार है हि, राजनैतिक दल भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। क्योंकि जनता के बीच जाकर वैध लोगों के नाम मतदाता सूचियों में शामिल कराना चुनाव आयोग के साथ-साथ उनकी भी जिम्मेदारी है। खास कर अपने को मुस्लिम हितैषी बताने वाले राजनैतिक दलों की तो यह प्राथमिकता होनी चाहिए थी। आजमगढ़ के सरायमीर के मसीउद्दीन संजरी कहते हैं ‘मुस्लिम राजनैतिक दल भावनात्मक मुद्दों पर ज्यादा राजनीति करते हैं क्योंकि इससे उन्हें चंदा और कैडर आसानी से मिल जाते हैं। घर-घर जाकर मतदाता बनाने के लिए फार्म भरवाना उनके एजेंडे में नहीं होता क्योंकि इसमें खुद अपना पैसा खर्च करना पड़ेगा।’ मुस्लिम राजनीतिक दलों का यह दिवालियापन इस चुनाव में भी दिखा जब बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ कांड मुद्दे पर गठित उलेमा काउंसिल ने अपने चुनावी अभियान में इस पर एक बार भी नहीं बोला।
मुस्लिम नागरिकों के मतदाता बनाने में चुनाव आयोग के इस सांप्रदायिक और भेदभावपूर्ण रवैये को हम सीटों के परिसीमिन में भी देख सकते हैं। जहां ऐसी कई सीटों को जिस पर मुस्लिमों की तादाद अनुसूचित जाति की आबादी से अधिक होते हुए भी सुरक्षित कर दी गई है। दरअसल सच्चर कमेटी ने भी अपनी रिपोर्ट में इस मुद्दे को गंभीरता से लेते हुए पेज-225 पर लिखा है- ‘एक अधिक विवेकशील सीमांकन प्रक्रिया अधिक अल्पसंख्यक आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्रों को अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित न कर, अल्पसंख्यकों विशेषकर मुस्लिमों के लिए संसद और विधानसभाओं के लिए चुनाव लड़ने और चुने जाने के अवसर को बढ़ा देगी। समिति इस विषमता को खत्म करने की संस्तुति करती है।’
लेकिन बावजूद आयोग के इस संस्तुति के सरकार ने इसे नजरअंदाज कर दिया जिसके चलते कई ऐसी सीटें जहां मुस्लिम आबादी दलितों से अधिक है, सुरक्षित कर दी गयी हंै। मसलन, बहराइच लोकसभा क्षेत्र में मुसलमानों की तादाद कुल आबादी की चैतिस प्रतिशत है जबकि दलित सिर्फ 18 प्रतिशत हैं। बावजूद इसके इसे सुरक्षित घोषित कर दिया गया है। इसी तरह बिजनौर को तोड़कर बनाई गयी नगीना लोकसभा सीट आरक्षित कर दी गई है जबकि यहां मुस्लिम आबादी 40 फीसद है। इसी तरह बुलंद शहर में मुस्लिम आबादी दलितों से अधिक है लेकिन इसे भी सुरक्षित कर दिया गया है। दरअसल मुस्लिमों के जनप्रतिनिधि बनने के अधिकार के मामले में यह भेद-भाव सिर्फ लोकसभा और विधानसभाओं जैसे ऊपरी स्तर पर ही नहीं है बल्कि ग्रामपंचायत जैसे लोकतंत्र के शुरुआती पायदानों पर भी दिखता है। मसलन आजमगढ़ के फूलपुर ब्लाक का लोहनिया डीह ग्राम सभा सुरक्षित है जबकि यहां सिर्फ दो दलित परिवार ही रहते हैं।
नए परिसीमन में अल्पसंख्यक मतदाताओं के साथ भाषाई स्तर पर भी भेद-भाव साफ देखा जा सकता है। मसलन 1976 के आाधार पर परिसीमित विधानसभा/लोकसभा क्षेत्रों में 134 विधानसभा क्षेत्रों की मतदाता सूचियां उर्दू में प्रकाशित होती थीं जिनमें मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक बताई गई थी। लेकिन नए परिसीमन के बाद सिर्फ 48 विधानसभा क्षेत्रों में ही उर्दू में मतदाता सूची प्रकाशित की जा रही है। यह आश्चर्य का विषय है कि यह संख्या 134 से घटकर 48 कैसे हो गई और किस तरह जहां पहले 134 विधानसभा क्षेत्रों में उर्दू मतदाताओं की संख्या 20 प्रतिशत से अधिक थी वो अब कैसे घटकर 48 हो गई।
बहरहाल, चुनाव आयोग के खिलाफ रिट दर्ज होने और उस पर इलाहाबाद हाईकोर्ट द्वारा सख्त निर्देश के बावजूद आयोग अपनी गड़बड़ियों को सुधारने के लिए तैयार नहीं दिखता। उप मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी पूछने पर यह तो मानते हैं कि मामला बहुत गंभीर है और सर्वे करने वालों ने प्रशंसनीय काम किया है। लेकिन वे 2005 में चुनाव आयोग द्वारा बनाए गए उस नियम का हवाला देते हैं जिसमें उसने राजनैतिक दलों और संस्थाओं से थोक में मतदाता फार्म लेने पर रोक लगा दिया है। श्री कुरैशी कहते हैं कि कई बार राजनैतिक दल थोक में फर्जी मतदाताओं का फार्म अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए दे देते हैं। ऐसे में उन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता। वहीं दूसरी ओर सुप्रिम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण निर्वाचन आयोग के इस प्रतिबंध को न केवल मतदाता बनने से वंचित अशिक्षित, असुरक्षित नागरिकों के राजनैतिक स्वतंत्रता से जुड़े अधिकारों पर कुठाराघात मानते हैं बल्कि इसे संविधान विरोधी भी बताते हैं। प्रशांत भूषण कहते हैं ‘प्रत्येक फार्म में मतदाता बनने की प्रार्थना की जांच उसके जमा होने के पश्चात मतदाता पंजीकरण अधिकारियों द्वारा की जाती है। लिहाजा थोक में फार्म जमा करने पर प्रतिबंध लगाने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि फार्म जमा होना कोई अंतिम रुप से आवेदन के प्रार्थना को स्वीकार कर लेना नहीं होता और इसके बाद भी जांच का विषय रह जात है। इसलिए थोक में मतदाता फार्म जमा कराये जाने में निर्वाचन आयोग को कोई संकोच नहीं होना चाहिए।’
दरअसल चुनाव आयोग का यह मुस्लिम विरोधी रवैया सिर्फ उनको चुनावी प्रक्रिया से अलग-थलग काटकर रखने वाला ही नहीं है। बल्कि मुसलमानों के उस भावनात्मक और ऐतिहासिक निर्णय पर कुठाराघात है जब उन्होंने एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के निर्माण के लिए पृथक निर्वाचन मंडल और पृथक प्रतिनिधित्व के सिद्वांत का त्याग किया था। लेकिन ऐसा लगता है कि चुनाव आयोग की प्रतिबद्वता भारत को धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने के बजाय सावरकर के काल्पनिक हिंदू राष्ट्र के प्रति है जिसने अल्पसंख्यकों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने के लिए उन्हें मतदान के अधिकार से वंचित रखने का फार्मूला गढ़ा था।

1 टिप्पणी:

anurag ने कहा…

bahut bhadiya

अपना समय