04 जुलाई 2009

मूर्तियों और पार्कों वाली मुख्यमंत्री

संदीप कुमार दुबे

एक ख़बर आयी मूर्तियों और पार्को के अनावरण की। मेरे एक मित्र ने कहा कि ये सब तो केवल आपके प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ही कर सकती है। आरोप तो बेबुनियाद नही था। पूरा समाचार सुनने पर पता चला की मूर्तियों में खुद मायावती की ही तीन चतुर्भुजी आदमकद मूर्तियां है और मूर्तियों और पार्को के अनावरण का कार्यक्रम बडी आनन फानन में हुआ। अपनी मूर्ति के अनावरण के पीछे तर्क देते हुए मायावती ने गिनेचुने अधिकारियों के सामने दिये अपने संक्षिप्त भाषण में कहा की कि कांशीराम ने खुद ये इच्छा व्यक्त की थी कि मेरी मूर्तियों के बगल में ही मायावती की भी मूर्ति लगवाई जाय। यहाॅ गौरतलब बात ये है कि कांशीराम जी ने ये ‘‘तथाकथित इच्छा‘‘ तब व्यक्त की होगी जब वो मायावती की गहन निगरानी में अपनी अंतिम सांसे ले रहे थे और ख़बर थी की उनके परिवार को भी उनसे मिलने नही दिया जा रहा था।
स्थापत्य कला के विकास के लिए कृतसंकल्प मुख्यमंत्री पर इतिहास में मूर्तियों और पार्कों वाली मुख्यमंत्री के बतौर याद किये जाने का खतरा मड़राने लगा है। उधर मुख्य विपक्षी पार्टी समाजवादी पार्टी को जैसा की पार्टी नेताओं का स्वयं कहना है आगे आने वाले समय में अगर सरकार बनी तो पार्को और मूर्तियों के तोड़-फोड़ की सरकारी जिम्मेदारी मिलने वाली है जिसके लिए वो सार्वजनिक निर्माण विभाग को काम पर लगायेगें। ये जिम्मेदारी सत्ता में आने वाली अन्य पार्टियाॅ भी महसूस कर सकती है। ये ख़बर विशुद्ध जनहित में है। प्रदेश की जनता इस ख़बर से अदाजा लगा ले की लोक निर्माण विभाग अब व्यस्त होने जा रहा है, अतः अब जनता बेवजह सडक नाली बनवाने के लिए न सरकार को और न ही विभाग को परेशान करें। इधर अनावरण की ब्राम्हणों की पंडिताई वाली प्रथा को आनन फानन में कराये जाने के पीछे का कारण ये पता चला है कि मायावती को ये आत्मविश्वास नही है कि न्यायपालिका उनके इस मूर्ति और पार्क प्रेम को जायज ठहराये। ख़तरा है कि मूर्तियां और पार्क सावजनिक होने से पहले ही किसी जाॅच कमेटी के हत्थे न चढ़ जायें, क्योंकि मुख्यमंत्री के इस प्रस्तर प्रतिमा और उपवन उद्यान प्रेम को सार्वजनिक धन का अपव्यय मानकर किसी जुझारु समाजप्रेमी ने कोर्ट में जनहित वाली याचिका दाखि़ल कर दी। उधर कोर्ट ने भी इसे जरुरी मामले में शामिल समझा और जुलाई के बजाय इसी महीने की 29 तारीख़ को सुनवाई की तिथि मुकर्रर कर दी। सो सुनवाई हो और कुछ अनहोनी हो जाय इससे पहले ही मुख्यमंत्री ने तमाम मूर्तियों सहित अपनी मूर्ति और पार्क को जनता प्रदेश की जनता को या देश की जनता को हडबडी में ये पता नही लग सका को सर्मपित कर दिया।
करोडों रुपये की मूर्तियों कें पीछे मायावती ने कहा की अगर पहले ही दलित नेताओं की मूर्तियां लगवाई गयी होती तो उन्हे आज ये मूर्तियां न लगवानी पडती। मुख्यमंत्री का कहना तो उत्तर प्रदेश में कमोबेश ठीक हो सकता है पर जरा देश के और हिस्सों में जाकर देखे तो उन्हे पता चल जायेगा की उनके तथाकथित दलित प्रेम से कही ज्यादा सम्मान से दलित व्यक्तित्वों की मूर्तियां देश के कई हिस्सों में लगी है। महाराष्ट्र इसका एक उदाहरण है। अपने अनाप शनाप के हिटलरी आदेशों से पार्कोे और मूर्तियों के निर्माण के खर्चे की तुलना राजघाट की जमीन की की़मत से कर मायावती ने महात्मा गाॅधी पर फिर निशाना साधा है। इस तरह की बयानबाजी से मायावती अपनी किस तरह की छवि बनाना चाहती है समझ से परे है। ऐसा लगता है कि ये बयानबाजी बेशर्मी छिपाने के लिए की जा रही है। उधर भाजपा सपा जैसी प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टियां इस प्रवृत्ति पर अपने राजनैतिक उत्तर दायित्व से भटकती दिखाई दे रही है। कांग्रेस भी कोई और कलावती तलाश रही है। कुशासन के खिलाफ जनादेश पायी मायावती प्रदेश की जनता को बेहतर शासन देने में अब तक सफल नही रही हैं। उलटे दलित उत्पीडन के मामले भी बढे ही है। ये तो सरासर जनादेश का अपमान जैसा है।
मुख्यमंत्री बनने के बाद से मायावती ने जिस तरीके से खुद को जनता से दूर किया वो सामंती प्रवृत्ति द्योतक है। अपने विकास कार्यक्रमों को अम्बेडकर ग्रामों तक सीमित रखने वाली मायावती ने लगता है प्रदे्रश के दौरों का कार्यक्रम अगले विधानसभा चुनाव आने तक मुल्तवी कर रखा है। इधर प्रदेश की सुरक्षा व्यवस्था की नकेल कितनी कसी है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि एक डकैत को मारने में प्रदेश के आला पुलिस अफसरों सहित पाॅच सौ पुलिस वाले लगे और बावन घण्टे की मोर्चाबंदी में फायरिंग के बाद डकैत मारा गया। तब तक चार पुलिसवाले ‘‘शहीद’’ हो चुके थे और इस शहादत पर प्रदेश के वरिष्ठ पुलिस अधिकारी टीवी चैनलों पर अॅासू बहाते दिखाई दिये और डकैत मारने पर अपनी पीठ भी खुद ही ठोंक ली। अनुमान है की इस अभियान में करोडों रुपये का खर्चा आया। ये रकम डकैत पर रखे सरकारी इनाम से कई गुना ज्यादा है।
काॅशीराम की स्थापित बहुजन समाज पार्टी मायावती की बहुजन समाज पार्टी बनते ही अपने उद्देश्य से भी भटक गयी। मनुवाद और ब्राम्हणवाद का विरोध कर सत्ता पाने वाली मायावती ब्राम्हणवादी सामंती मानसिकता वाली कारगुजारियां कर रही है। दलितों के मसीहा बनने को आतुर मायावती ने हाथी को गणेश ब्रम्हा विष्णु महेश बता कर सत्ता के लिए उन्ही ताकतों से गठजोड किया जो उन्ही के शब्दों में कभी ‘‘दलितों का शोषक और पिछडेपन का कारण’’ थी। अब ये गठजोड़ भी किसी पिछडे का पिछडापन दूर करता दिखाई नही देता।
लोकसभा चुनावी नतीजों ने मायावती को इस कदर गुस्सा दिला दिया की चुनाव अचार संहिता की अवधि खत्म होने के चैबीस घण्टे में ही प्रधानमंत्री बनने की राह में रोडे बने चुनिंदा नौकरशाह ताश के पत्ते की तरह फेंट दिये गये। राजनीति पर नजर रखने वाले कहते सुने गये की बसपा की जड तो नौकरशाही में ही है। ये तो होना ही था। दलितों के पिछडेपन की आग में अपनी राजनीति की रोटी सेंकती मायावती का दलित जनाधार कितना मजबूत रह गया है इसका एक नमूना 2009 के लोकसभा चुनाव के परिणाम में दिखाई दिया। उत्तर प्रदेश की बीस सुरक्षित सीटों में अठारह पर हार बसपा सहित दलित वोटो की राजनीति करने वाले सभी दलों के लिए चेतावनी है। बसपा में ‘‘सुप्रीमों’’ की तानाशाही प्रवृत्ति के कारण कोई नया नेता उभरता दिखाई नही देता। हाल ही में राजस्थान में बसपा की हालत और पार्टी छोडकर गये नेताओं के आरोप न तो नये है और न ही बेबुनियाद। अगर समय रहते पार्टी हाइकमान ने अपनी नीतियों में सुधार नही लाया तो ये हालात और आरोप बसपा के बिखरने का कारण बन जायेंगे।
जड़ मूर्तियों के सहारे दलित मसीहा बनने का ख्वाब पाले मायावती को एक और ’’दलित मसीहा‘‘ रामविलास पासवान पर भी एक निगाह जरुर डाल लेनी चाहिए। पासवान की हार का कारण बिहार की तरह उत्तर प्रदेश में भी पनप रहा है और इसकी एक झलक लोस चुनाव के परिणामों में दिख गयी है। लोक सभा और विधान सभा के चुनावों में माहौल और मुद्दे बेशक अलग होते हो फिर भी जीत हार का अधिकतर कारण विकास और सुरक्षा का मुद्दा ही होता है। सत्ताधारी दल के लिए ये जनता के सामने जवाब देने की घडी होती है। पर मौजूदा हालातों के आधार पर यदि बसपा जनता के सामने जायेगी तो उसके पास मात्र आकडों की बाजीगरी के कुछ भी नही होगा। अब हालात ऐसे बन रहे है कि अगर प्रदेश की जनता नेतृत्व परिवर्तन को वरीयता दे तो ये कोइ आश्चर्य की बात नही होगी। और अब प्रदेश की दलित जनता को अपने नेता के लिए नये विकल्प का भी मन बनाना शुरु कर देना चाहिए।

संदीप इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसम्पर्क विभाग के छात्र है।

1 टिप्पणी:

laxman' allhabad ने कहा…

avi tak to bsp ke chall dalit ko lakar thi lakin mamala shab gudhagober ho gaya hai cout mai jane wale to coucres ke hai loge hai.rahul baba ke verashat up mai maya ke kai uhukar lage.shab parthi ke pole up mai shapa kalti hai. avi vi dalit ka shawal mahpursh ke murti se suru hoti hai. garibo ke rosi-roti ka shabal mandi awr parko se bhuk kab tak metgi.

अपना समय