ऐक्टिविस्ट फिल्मकार के रूप में मशहूर आनंद पटवर्धन एक बहुचर्चित नाम है। "राम के नामं", "पिता-पुत्र और धर्मयुद्धं", "अमन और जंगं", "उन मितरां दी यादं", "बबई हमारा शहरं" उनकी कुछ चर्चित फिल्में हैं। आनंद ने राम के नामं फिल्म उस समय बनाई थी, जब बाबरी ध्वंस नहीं हुआ था, लेकिन उसके ध्वंस के षड्यंत्र चल रहे थे। जब उनसे पूछा जाता है कि आपने इस फिल्म में मुस्लिम कट्टरपन को क्यों नहीं दिखाया, तब उन्होंने जवाब दिया कि मैं कम से कम भारत में तो इसे बैलेंस नहीं कर सकता क्योंकि यहां हिंदू कट्टरपन ज्यादा है। यदि मैं यह फिल्म पाकिस्तान में बनाता तब जरूर ऐसा करता क्योंकि वहां मुस्लिम कट्टरपन ज्यादा है। पेश है आनंद पटवर्धन से नई पीढी की साथी शालिनी वाजपेयी की बातचीत...
आप लखनऊ पहली बार आए या इससे पहले भी आए हैं?
- मैं लखनऊ पहले भी आ चुका हूं। पर इस बार यहां पर मैंने जो मायावती की जगमगाहट देखी, ऐसी शायद और कहीं नहीं मिलती है। गांव अंधेरे में डूबे हैं और लखनऊ या कहिए कि मायावती के चौराहे रोशनी में नहाए हुए हैं।
आपने राजग सरकार में सा प्रदायिकता विषय पर फिल्म बनाई और अब जब कांग्रेस का राज है तो आप किस विषय पर फिल्म बनाएंगे?
-मैं लगभग 30 सालों से फिल्में बना रहा हूं। मैंने जयप्रकाश आंदोलन से लगाकर इमरजेंसी, सा प्र्रदायिकता, गरीबी, परमाणु ऊर्जा की होड़ आदि विषयों पर फिल्में बनाई हैं। मैंने दोनों पाटिüयों के समय में फिल्में बनाई हैं और दोनों का रवैया एक जैसा रहा है। दोनों ही ऐसी फिल्मों को दिखाने में आनाकानी करती हैं। जबकि मैं वही मांगता हूं, जो संविधान में है। संविधान में जो अधिकार मिले हैं, उसके विपरीत कुछ नहीं करता फिर भी हमारी फिल्मों को लोगों तक पहुंचने में इतनी मशक्कत करनी पड़ती है। रही बात सा प्रदायिकता की तो यह कांग्रेस में भी है लेकिन राजग की अपेक्षा कम है। कांग्रेस थोड़ी लिबरल है। इसके समय में बुद्धिजीवियों को थोड़ी सांस लेने का मौका मिलता है। हां, इमरजेंसी के समय में इसने भी सबकी सांस रोक दी थी। तब हम सब लोग जेल में थे और कांग्रेस के खिलाफ लड़ रहे थे। कांग्रेस कितनी भी बुरी हो, लेकिन फिर भी हम राजग जैसी फासीवादी पार्टी की वापसी नहीं चाहेंगे।
आपने डाक्यूमेंट्री सिनेमा ही क्यों चुना, मु य धारा की फिल्में क्यों नहीं बनाते हैं?
- मु य धारा के सिनेमा के लिए ज्यादा पैसे की जरूरत होती है। अच्छी तकनीक चाहिए होती है, कोई बिजनेस मैन भी चाहिए, जो पैसा दे सके। हमारी अपनी सीमाएं हैं, अपनी लिमिटेशंस हैं और दूसरी बात यह भी है कि यदि मैं फिक्शन फिल्में बनाता होता तो शायद कोई मेरी फिल्मों पर विश्वास भी नहीं करता। जबकि डाक्यूमेंट्री में मैं साफ-साफ दिखाता हूं कि क्या हो रहा है। नेताओं के वक्तव्य उसमें होते हैं, कोई भी सुन सकता है। मैं वही दिखाता हूं, जो सच है। उसमें बाहर से कुछ भी नहीं डालता। यदि मैं भी फिक्शन फिल्में बनाऊंगा तो फिर डाक्यूमेंट्री कौन बनाएगा?
70 के दशक में जैसी फिल्में बनती थीं- डाक्यूमेंट्री सिनेमा की तरह, अब ऐसी फिल्में क्यों नहीं बनती हैं?
- श्याम बेनेगल अभी भी ऐसी फिल्में बनाते हैं। जैसे उनकी फिल्म है क्वअंकुरं। यह फिल्म कितने लोगों ने देखी है, जबकि हमारी फिल्में बहुत-से लोगों ने देखी है। सत्यजीत राय जो इतने बड़े फिल्मकार थे, उनकी फिल्में कितने लोगों ने दखी है। क्वपथेर पांचालीं कितने लोगों ने देखी है। ऐसी फिल्में बहुत कम देखी जाती हैं।
मु य धारा के सिनेमा की कोई फिल्म आपको पसंद है?
-(बहुत सोचते हुए) हां, जैसे मुन्नाभाई वाली दोनों फिल्में मजेदार थीं। अब जैसे देव-डी फिल्म है, इसका जो ऐक्टर है, वह सबको अपनी ओर बहुत आकर्षित कर लेता है। लेकिन बाद में मुझे पता चलता है कि वह तो बीएमडब्लू कांड का अपराधी है। ऐसे लोगों को तो सजा मिलनी चाहिए लेकिन फिल्म से वह सबकी सि पैथी हासिल कर लेता है। यह तो दर्शक के साथ छल है।
मु य धारा के सिनेमा का कोई अभिनेता-अभिनेत्री पसंद है?
- नसीरुद्दीन शाह हैं, अभिनेत्री नहीं बता सकता। मैं वैसी फिल्में बहुत कम देखता हूं।
युवा राजनीति का जो शोर मचा हुआ है, इन युवाओं से आपको कोई उ मीद दिखती है?
- युवा जिन्हें कहते हैं न कि बाबा लोग, इनसे क्या उ मीदें। उम्र के अंतर से क्या फर्क पड़ता है। हैं तो वही। वही बड़े-बड़े लोगों के बेटे।
वर्तमान राजनीति में आपको कौन-सी बड़ी समस्या दिखती है?
- इस समय पर शिक्षा के मौलिक अधिकार के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है, यह एक बड़ी समस्या है। शिक्षा और स्वास्थ्य का जिस तरह से निजीकरण हो रहा है, यह एक बड़ा सवाल है।
आपने भगत सिंह पर जो फिल्म बनाई है "उन मितरां दी यादं" उसमें आपने बहुत सफाई के साथ भगत सिंह के वामपंथी विचारों को रखा है तो आपको अब इस वामपंथ में क्या दिखता है?
- ले ट और राइट से क्या फर्क पड़ता है? ले ट को बंगाल में ही देखिए, क्या किया। जब ले ट ही सेज ला रहा है तो फिर और क्या कहा जाए। ले ट को भी बड़े-बड़े प्रोजेक्ट चाहिए, जो रूस में बनते थे। हरित क्रांति की बात करते हैं, जबकि हरित क्रांति के चक्कर में ही जमीन बबाüद हुई। उसमें जैसे कमिकल्स का प्रयोग किया गया, वह जमीन के लिए नुकसानदायक था। ले ट का विकास जिस दिशा में चल रहा है, उसमें बदलाव की जरूरत है। वह पुरानी गलतियों को ही फिर से दोहरा रहा है।
पुरस्कारों में आपकी रुचि कहां तक है?
- इसके लिए ही तो हम लड़ते हैं क्योंकि यदि फिल्म पर बैन ही रहेगा तो फिर नेशनल अवार्ड कैसे मिलेगा। फिल्म पर बैन हटाने के लिए ही तो लड़ाई होती है।
यदि आपको यह पुरस्कार योगी आदित्य नाथ या नरेंद्र मोदी के हाथों से मिले तो?
- इसका भी मेरे पास तरीका है। एक फिल्म "बबई हमारा शहरं" के लिए हमें पुरस्कार मिला था, जो बबई की झोपड़पटि्टयों पर बनी है तो उसके लिए मैंने एक झोपड़ी में रहने वाले व्यçक्त को ही भेजा था। मैं वह पुरस्कार नहीं लेने गया था।
2 टिप्पणियां:
Badhiya baatcheet.
आनंद पटवर्धन की फिल्मों के तेवर का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है की उनकी ज्यादातर फिल्मे फिल्म सेंसर बोर्ड नहीं बल्कि सुप्रीम कोर्ट रिलीज करती है. अच्छी बातचीत के लिए शालिनी जी को बधाई !!!
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