- कौशल किशोर
बड़ी पुरानी कहावत है
घूरे के दिन भी फिरते हैं
ऐसे ही फिरे हैं हरिजन बस्ती के दिन
इस साल दो अक्तूबर के दिन
गाँव के चप्पे चप्पे की सफाई हो चुकी है
सड़क जो जगह जगह से टूटी
जिस पर पड़ी थी निराशा की कई कई परतें
पेवन लग गया है उस पर
बस्ती को घेर रखा था झाड़ झंखाड़ ने
सब काट दिये गये हैं
हर गली हर मोड़
दिख रही है साफ सुथरी
झण्डे लहरा रहे हैं चारो तरफ
तिरंगों वाली साड़ियाँ बांट दी गई हैं
सलवार समीज फ्राक में बच्चियां
छिप गई है गरीबी
बच्चों का नंगापन
बूढे बुजुर्गों के सिर पर गाँधी टोपी
तिरंगा गमछा लहरा रहा है हर नौजवान के गले में
सज धज कर तैयार है बस्ती
बदली बदली सी
क्यों न बदले आज के दिन
शहर से नेताजी आये हैं
नहीं........नहीं.....
बस्ती में अपने साथ वे पूरा शहर लाये हैं
मंत्री आये हैं
संतरी आये हैं
अफसर कमाण्डों
चमचा दलाल सब साथ लाये हैं
ट्रकों में भर भर कर आया है सारा सामान
टेंट कनात पंखा जेनरेटर मोटे मोटे गद्दे
सुविधा का यहाँ सारा इन्तजाम
और तो और लुका छिपा कर लाई गई है अंगरेजी
कुछ भी छूट न जाये रखा गया है ख्याल
कोई इधर दौड़ रहा कोई उधर भागा
जैसे सबको मिल गया काम
जेनरेटर की आवाज धक्...धक्...धक्
उछल कूद रहे हैं बच्चे
उनके लिए तो मेला है
टेंट कनात लग गया है
गद्दे बिछ गये हैं
झर... झर... हवा फेकता पंखा चल रहा है
जगमग चारो तरफ
किसी अल्हड़ बाला की तरह छिटक रही है रोशनी
गांधी स्नान ऐसा
कि रात में हो गया दिन
कि लोग कहते रोज होता गांधी बाबा का जन्म दिन
बड़ा सुदर्शन सा दृश्य है
जो बदल रहा परिदृश्य है
हलवाइयों ने संभाल लिया है मोर्चा
मुर्गा हलाल हो रहा
पूड़ियाँ तली जा रही
विविध व्यंजनों की सुगन्ध ऐसी
कि चाम की यह जीभ लपलपा उठे
मछली का झोल तैयार है
बस चैपाल के खत्म होने का इन्तजार है
वाह... वाह रे चैपाल
लगता जैसे किसी सितारा होटल का हाॅल
बड़ा सा पण्डाल
आम और खास
सब बैठे हैं साथ साथ
नरेगा में मिलता काम अभी सौ दिन
यह मिलेगा पूरे साल
सड़क पक्की होगी
इनार पोखर सबका होगा
छुआछूत मिटेगा
पास पूरी गठरी है
नाम है बापू का
पर माल वादे और वफादारी का
भर भर अँजुरी बांट रहे
सुखिया को लगता
मिट जायेंगे उसके दुख के दिन
दुखिया खुश है
आयेंगे उसके सुख के दिन
यह सब देख देख
मेरा मनवा भी कुछ कुछ कहता
गर जिन्दा होते गांधी बाबा
चेलों के इस पर नेह में
पूरा तर जाते गाँधी बाबा।
(लखनऊ, 03 अक्तूबर 2009)
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कौशल किशोर : एक परिचय
जन्म: सुरेमनपुर (बलिया), उत्तर प्रदेश, 01 जनवरी 1954
जन संस्कृति मंच के संस्थापकों में एक तथा जसम के प्रथम राष्ट्रीय संगठन सचिव।
‘युवालेखन’ (1972 से 74) ‘परिपत्र’ (1975 से 78) तथा ‘जन संस्कृति’ (1983 से 90) का संपादन।
पहल, युग परिबोध, उतरगाथा, जनमत, वर्तमान साहित्य, पुरुष, इसलिए, आइना, रविवार, प्रारुप, युवा, शरर, जनसत्ता, अमृत प्रभात, अमर उजाला, आज, अन्ततः आदि दर्जनों पत्र-पत्रिकाओ में रचनाएं प्रकाशित।
कुछ कविताओं का बांग्ला, असमिया, पंजाबी व तेलुगु में अनुवाद।
संप्रति: जन संस्कृति मंच, लखनऊ के संयोजक।
संपर्क: एफ.3144, राजाजीपुरम, लखनऊ.226017
फोन : 0522 2417726, 09335226034
ई मेल: kaushalsil.2008@rediffmail.com
kaushalsil.2008@gmail.com
कार्टून - इरफान
4 टिप्पणियां:
nice
कविता और कार्टून दोनों ही उत्कृष्ट हैं.
ऐसी ओछी राजनीती के जरिए कांग्रेस के 'बाबा' दलितों में पैठ बनाना चाहते हैं. लेकिन ये पब्लिक है सब जानती है...अच्छी कविता.
गांधी बाबा ने बनाया,
दलितों को "हरिजन"
कांग्रेस बना रही है,
उन्हें अपना "परिजन"
पार्टी की हालत खराब है
अब बचा कोई जगजीवन राम सा मुखौटा
तभी राहुल बाबा ने,
उठा लिया लाठी-लौटा
चल पड़ते है हॉलीडे पर मन-मर्जी
आप असल समझे या फ़र्जी
ये है आपकी मर्जी-2
राहुल बाबा तो जाऐेगें ही
नाना जी की भारत एक खोज का,
पार्ट टू जो बनना है
कांग्रेस का दलित प्रेम जो दिखाना है।
ये देख सोचने लगे सारे नंबर बनाऊ,
एक दिन का फ्री स्टे मैं भी कर आऊं?
"पर का करैंगे अछूतन के घर को खा कै
सौनों का है अछूतन के घर
रोटी खवा दो बौहत हैगो"
2 अक्टूबर है बढ़़िया दिन
सारे "गांधीन" को खुश करबै को।
हरिजन से है राहुल बाबा को प्यार
आज उन्हें भी गोश्त खिला दो
गांधी का बड्डे बता दो।
चलो-चलो आज फिर,
दलित "हरिजन" हो गए
बहनजी के बड़्डे में,
बुलाया नहीं किसी नें
"गांधी बाबा" तो उन्हीं के है सदा से
कल वाले भी और आज वाले भी।
ये सोच चल पड़े नेता तन
संग ले चले अपनी पंखा-पलटन
का पता था कि,
जो माल ले कै जाएंगे
सारा चमचै ही चट कर जाएंगे।
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