19 नवंबर 2009

घंटी का समाजशास्त्र

शरद जायसवाल

समाज को देखने का नजरिया समाज में स्थापित मनुष्य की भूमिका से तय होता है. ज्यों ही हमारी भूमिका बदलती है, समाज को देखने का हमारा नजरिया भी बदलता है. चीजें और सामाजिक घटनाएं अब एक नये तरीके से दिखायी पड़ने लगती हैं और उनके कुछ नये अर्थ भी खुलते दिखते हैं. इस बात का अहसास मुझे हाल ही में अध्यापन के कार्य से जुड़ने के बाद हुआ. मैं एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के जिस विभाग में कार्यरत हूं उसमें हमारे अधीन कार्य करने वाले दो लोग हैं, जिसमें एक क्लर्क और एक चपरासी है और ये दोनों ही हमारी आवाज पर दौड़े चले आते हैं. चाय बनाने से लेकर विभाग के छोटे-मोटे सभी कामों के लिए हम इन पर निर्भर हैं. शुरू में मुझे अपने कामों को किसी दूसरे से करवाने में खास तौर से चाय बनवाने में बड़ा असहज महसूस होता था. क्योंकि मैं इससे पहले इस तरह की निम्न उच्च क्रम (हाइरारकी) का हिस्सा कभी नहीं था. लेकिन मैं इस बात को लेकर आश्वस्त था कि आने वाले दिनों में मैं इस हाइरारकी हिस्सा हो जाऊंगा और तब मुझे ये चीजें अपने आप सहज लगने लगेंगी.

तभी मेरा ध्यान विभाग में रखी एक छोटी सी घंटी पर गया और उसकी ताकत को देखकर मैं चकित था. वह छोटी सी घंटी बजाते ही विभाग का चपरासी दौड़ा चला आता है, घंटी पूरे हांड़मांस के मनुष्य को नियंत्रित करती है. मानो उस आदमी का पूरा व्यक्तित्व घंटी में से निकलने वाली मधुर आवाज की गुलाम है. पूंजीवाद ने जिस गजब की तकनीक को विकसित किया है, उसका गतिविज्ञान मुझे धीरे-धीरे समझ में आ रहा था और इसका सीधा सम्बन्ध भी मुझे समाज में मिली नई भूमिका से था.

ठीक उसी समय जब मैं घंटी के गतिविज्ञान को समझने में व्यस्त था, मेरे एक मित्र का फोन आया. वे भी एक घंटी को ही लेकर बेतरह परेशान थे. हांलाकि वह घंटी विभाग में रखी घंटी नहीं थी. वस्तुत: मेरे मित्र मोबाइल की घंटी से आक्रान्त थे. वे इस समय एक बहुराष्ट्रीय निगम में कार्यरत हैं और वहां से मोटी तनख्वाह लेते हैं. वे मुझे बड़े दुखी स्वर में बता रहे थे कि एक मोबाइल फोन ने उनकी जिन्दगी तबाह कर दी है. उनका चीफ मोबाइल के चलते ही दिन भर चैन नहीं लेने देता और आधी रात को भी उसका फोन आ जाता है और पूछता है कहां हो? जाहिर सी बात है कि आधी रात के वक्त कोई शरीफ आदमी अपने घर पर ही होगा. उनकी पूरी जिन्दगी मोबाइल फोन के चलते एक दूसरे व्यक्ति के द्वारा नियन्त्रित हो रही थी.

उन्हीं दिनों मेरा अपने घर जाना हुआ और मैं घर में रुका ही था कि विश्वविद्यालय से फोन आया कि एक मीटिंग के सिलसिले में आपको विश्वविद्यालय वापस आना होगा. मेरी बातचीत भी मोबाइल के द्वारा ही हुई थी. उस समय मुझे तकनीक का वर्गीय चरित्र समझ में आया. हांलाकि तकनीक अपने आप में पूंजी की तरह निरपेक्ष चरित्र की होती है. कोई भी इसको किसी भी तरह इस्तेमाल कर सकता है. एक अखबार को निकालने के लिए जिस पूंजी या तकनीक की जरूरत होती है, उसको हासिल करके कोई भी समाज को प्रगतिशील चेतना से लैस भी कर सकता है. जिसका उदाहरण हम वैकल्पिक मीडिया के रूप में देख सकते हैं और कुछ लोग उसी पूंजी और तकनीक से ‘पान्चजन्य’ जैसे अखबार छापकर समाज में घृणा फैलाने और प्रतिक्रियावादी चेतना का निर्माण करने में भी सफलता हासिल करते हैं.

लेकिन एक ऐसे देश में जहां गैर बराबरी बहुत ज्यादा हो, अमीरी और गरीबी की खांई बहुत चौड़ी हो, तकनीक अपने आप में एक खास चरित्र को धारण करती है और गैर बराबरी बनाए रखने में मददगार भी होती है. मैं तकनीक के माध्यम से ही अपने चपरासी को नियंत्रित करता हूं और मैं खुद अपने ऊपर के लोगों द्वारा नियंत्रित होता हूं. मेरे ऊपर के लोग और बड़े लोगों द्वारा नियंत्रित होते हैं। तकनीक इस पूरी हाइरारकी को बनाए रखती है और हम सभी शिक्षित लोग इस तंत्र को बनाए रखते हैं. अगर हमें तकनीक के इस वर्गीय चरित्र को बदलना है, तो समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाना होगा.

शरद म.गा.अ.हि.वि.वि., वर्धा के स्त्री अध्ययन विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.

2 टिप्‍पणियां:

kishore ghildiyal ने कहा…

achha laga aapka yah samajshastra

बेनामी ने कहा…

wah guru

अपना समय