21 नवंबर 2009

भारत में 'माओवादी' प्रवृत्ति का उदय और उसकी वर्तमान भूमिका

अरिंदम सेन*

इस समय,जब हम ये पंक्तियां लिख रहे हैं, माओवादी खेमे से लगातार बढ़ते अंत:पार्टी संघर्षों के संकेत मिल रहे हैं। ऎसी रिपोर्ट है कि गिरफ़्तारी के बाद माओवदी नेता कोबाड गांधी ने कहा हॆ कि वे खुद तथा कुछ दूसरे नेता पार्टी द्वारा अत्यधिक खून-खराबे के विरोधी हैं। लगभग इसी समय कोलकाता के आनंद बाज़ार पत्रिका समेत दूसरे दैनिक अखबारों ने भाकपा (माओवादी) के पोलितब्यूरो सदस्य किशनजी का विस्तृत बयान छापा है जिसमें उन्होंने बताया है कि कैसे ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री के बतौर बुद्धदेब भट्टाचार्य का स्थान ग्रहण करने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति हैं। इसका तत्काल करारा विरोध माओवदी पार्टी के पश्चिम बंगाल राज्य-सचिव की दस्तखत से छपे एक पर्चे में किया गया। कुछ दूसरे सवाल भी राजनीतिक हल्कों में चर्चा में हैं। मसलन प.बंगाल में एक पुलिस अधिकारी के अपहरण ऒर लेन-देन के बाद उनकी रिहाई की क्या व्याख्या है? क्या यह सत्ताधारियों के साथ किसी समग्र बातचीत की संभावना की ज़मीन तैयार करने का संकेत हो सकता है? जबकि कोबाड गांधी की गिरफ़्तारी को कुछ ही समय हुआ है और एक ऎसी परिस्थिति में जबकि भूमिगत संगठनों पर राज्य ने हमले तेज़ किए हों, स्वयं पार्टी महासचिव गणपति का अचानक छोटे पर्दे पर दिखना (जिसका स्रोत पार्टी द्वारा जारी एक सी.डी.है) किस तरह का संकेत है? इन सब चीज़ों का योगफल क्या हो सकता है?
माओवाद पर टिप्पणी करने वालों ने उसे तमाम सतही तरीकों से या तो रूमानी रंग में पेश किया है, गौरवान्वित किया है या फिर उसे दैत्य बना कर प्रस्तुत किया है; ज़रूरी लेकिन यह है कि इस महत्वपूर्ण प्रवृत्ति का वैग्यानिक आकलन किया जाए ऒर उसके प्रति एक सही नज़रिया विकसित किया जाए। इस लेख में यह प्रस्तावित है कि भाकपा(माओवादी) को सबसे बेहतर एक अराजक-सैन्यवादी संगठन के बतौर समझा जा सकता है। हमारी समझ से यह आकलन तथाकथित माओवाद को न केवल उसकी वैचारिक जड़ों (अराजकतावाद) से समझता है, बल्कि साथ-साथ उसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता या प्रतिफलन(सैन्यवाद) को भी सामने लाता है। यह बिलकुल साफ़ तब हो जाता है जब हम माओवाद की परिघटना को किसी अपरिवर्तनीय कोटि के बतौर नहीं, बल्कि एक वैचारिक-राजनैतिक प्रवृत्ति के बतौर समझने की कोशिश करते हैं जो कि दी हुई ऎतिहासिक अवस्था में एक खास तरीके से विकसित हुई ऒर एक खास दिशा की ओर अग्रसर है।



अराजकतावाद ऒर सर्वहारा का आदोलन: अंतर्राष्ट्रीय अनुभव

इंटरनेशनल वर्किंग मेन्स असोसियेशन के दिनों से ही अराजकतावाद-- जो कि क्रांतिकारी लक्ष्यों की प्राप्ति की ज़रूरी शर्त के बतौर लम्बी चलने वाली जन-राजनैतिक कार्रवाइयों को नकारता है या उनकी उपेक्षा करता है, बार-बार मज़दूर वर्ग के आंदोलन में विघ्न डालने वाली प्रवृत्ति के रूप में सर उठाता रहा है। इस प्रवृत्ति के पहले और सबसे प्रभावशाली प्रस्तावकों में रूस के बाकुनिन थे, जिनका मानना था कि बूर्जुआ राज्य का खात्मा मज़दूर वर्ग का तात्कालिक कार्यभार है जिसे मज़दूरों की राजनीतिक पार्टी बनाने के ज़रिए नहीं, राजनीतिक संघर्षों के ज़रिए नहीं, बल्कि 'सीधी कार्रवाई' के ज़रिए हासिल करना है। एंगेल्स ने थियोडोर कूनो को लिखे पत्र (२४ जनवरी, १८७२) मे लिखा कि अराजकतवाअदी प्रचार " सुनने में अत्यधिक रैडिकल ऒर इतना सरल प्रतीत होता है। उसे पांच मिनट में ही ह्रदयंगम किया जा सकता है; यही कारण है कि बाकुनिन का सिद्धांत इटली और स्पेन में युवा वकीलों, डाक्टरों और दूसरे सिद्धांतकारों के बीच इतनी तेज़ी से लोकप्रिय हुआ है। लेकिन मज़दूर जनता इससे प्रभावित कभी भी नहीं हो सकेगी......."



बाक्स १. " हर धड़ा अनिवार्यत: और अपनी कट्टरता के बल-बूते, खास तौर पर उन क्षेत्रों में जहां वह नया है।.......पार्टी के मुकाबले कहीं ज़्यादा तात्कालिक सफ़लता हासिल करता है जबकि पार्टी वहां वास्तविक आंदोलन का प्रतिनिधित्व करती है, बगैर संयोगवश प्राप्त चीज़ों के। लेकिन दूसरी ओर कट्टरता बहुत दिन नहीं चला करती।" ( एंगेल्स का खत बेबेल के नाम: २० जून, १८७३)


मुख्यत: मार्क्स के प्रयासों को यह श्रेय जाएगा कि बाकुनिन ऒर उनके अनुयायी लम्बे संघर्ष के बाद इंटरनेशनल से बहर किए गए। इस ऎतिहासिक पराजय के बाद, अराजकतावाद के लिए अपने शुद्ध, आदिम रूप में मज़दूर वर्ग के आंदोलन की शाखा के बतौर फिर से प्रकट होना संभव नहीं रह गया। उदाहरण के लिए रूस मे एनार्को-सिंडिकलिस्ट ने 'क्षुद्र कार्यों' को नकारा, खास तौर पर संसदीय मंच के इस्तेमाल को; उनका मानना था कि मज़दूरों को अनुशासित सर्वहारा पार्टी के बगैर ही ट्रेड यूनियनों के ज़रिए कारखानों और सत्ता पर कब्ज़ा करना चाहिए। दूसरी अति-वाम प्रवृत्तियां भी अराजकतावाद के साथ घुल-मिल कर ' निम्न -पूंजीवादी, अर्द्ध-अराजकतावादी क्रांतिकारितावाद' की अनेक रंग-बिरंगी प्रवृत्तियों को पैदा करती हैं। लेनिन ने इन प्रवृत्तियों से अपने जीवन भर चलनेवाले संघर्षों का सार 'वामपंथी कम्यूनिज़्म- एक बचकाना मर्ज़' शीर्षक प्रबंध में प्रस्तुत कर दिया है।

चीन में भी रूस की ही तरह कम्यूनिस्ट पार्टी को लगातार 'दो मोर्चों पर संघर्ष' चलाना पड़ा-- यानी 'दक्षिण' और 'वाम' दोनों तरह के अवसरवाअदों के खिलाफ़। दूसरे शब्दों में 'दक्षिणपंथी निराशावाद' और 'वामपंथी उतावलेपन' दोनों के खिलाफ़। 'पार्टी में गलत विचारों को दुरुस्त करने के बारे में' शीर्षक लेख में माओ ने ' विभिन्न गैर-सर्वहारा विचारों' के बारे में लिखा जिनमें पहला और सबसे प्रमुख विचार गैर-सर्वहारा विचार है-- ' विशुद्ध सैन्यवादी दृष्टिकोण'। माओ के शब्दों में यह दृष्टिकोण "सैन्य मामलों और राजनीति को एक दूसरे के खिलाफ़ समझता है और यह मानने से इनकार करता है कि सैन्य मामले राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने के तरीकों में महज एक तरीका है। कुछ तो यहां तक कहते हैं कि 'अगर आप सैन्य दृष्टि से अच्छे हैं तो आप राजनीतिक तौर पर भी अच्छे हैं'--यह कहना एक कदम और आगे जाकर सैन्य मामलों को राजनीति के ऊपर नेतृत्वकारी हैसियत प्रदान करने जैसा है.......इसका स्रोत शुद्धत: सैन्यवादी दृष्टिकोण है......निम्न राजनीतिक स्तर.है.....भाड़े के सैनिकों जैसी मानसिकता है.......सैन्य ताकत में अतिरिक्त विश्वास और जनता की ताकत में विश्वास की कमी है.... " (ओर मेरा)

माओ ने पराए विचारों के अंतर्गत 'आत्मगत चिंतन', 'सांगठनिक अनुशासन के प्रति अवहेलना', ' घुमंतू विद्रोहियों जैसी विचारधारा', और ''षड़्यंत्रवादी तरीके से अचानक हमले के ज़रिए क्रांति करने की मानसिकता के अवशेषों (पुचिज़्म)' को भी इस संदर्भ में लक्ष्य किया। पुचिज़्म माओ के अनुसार वह "अंधी कार्रवाई है जो आत्मगत और वस्तुगत परिस्थितियों की अवहेलना के साथ की जाती है", उन्होंने आगे जोड़ा कि ऎसी कार्रवाइयों का " सामाजिक उदगम.....लम्पट सर्वहारा ऒर निम्नपूंजीवादी विचारधारा की मिलावट में निहित है।"

इसीतरह अलग अलग समय में अलग अलग तरीके से "निम्नपूंजीवादी क्रांतिवाद, जो अराजकतावाद का पुट लिए रहता है, या उससे प्रभाव ग्रहण करता है"(लेनिन, 'वामपंथी कम्यूनिज़्म:एक बचकाना मर्ज़') दूसरी पराई प्रवृत्तियों से मिलकर "पहले से अपरिचित पोशाक और परिवेश में कुछ नए रूपों" में उभरता है। (वही) दूसरे शब्दों में अराजकतावाद का जीवाणु अलग अलग सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों और इतिहास की अवस्थाओं में खुद को परिवर्तित करके अनेक प्रकार के जटिल रूप अख्तियार करता है, लगातार नए से नए और पेचीदा उपभेदों में प्रकट होता रहता है--काफ़ी कुछ एच १एन १ या स्वाइन फ़्लू के जीवाणु की तरह जिसे पहचानना और जिससे मुक्त होना कठिन होता है। (जारी)
साभार समकालीन जनमत

* अरिंदम सेन के इस विशेष लिख को किश्तों में पोस्ट करेंगे.

1 टिप्पणी:

राजेश अग्रवाल ने कहा…

विजय जी,
आपके दोनों ब्लाग संवेदनशील मुद्दों को अच्छी तरह उठा रहे हैं. आप की सक्रियता बनी रहे. शुभकामनाएं.

अपना समय