21 दिसंबर 2009

"सांस्कृतिक फूहड़पन और भड़ैती के विरूद्ध'' लोकरंग - 2010

लोकरंग - 2010


ग्राम-जोगिया जनूबी पट्टी ,
फाजिलनगर,
कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)

कार्यक्रम दो रात और एक दिन का होगा ।
इस बार हुड़का वादन,आल्हा,अचरी गायन, फाग गायन, कबीर गायन,पंवरिया नृत्य, सारंगी वादन,सोहर गायन, फरी नृत्य,झारी गायन एवं नाथ संप्रदाय के योगियों का गायन,जांघिया नृत्य, नौटंकी, और तमाम लोकगीतों का गायन होगा।

संभावित तिथि मई २०१० के प्रथम सप्ताह में रखी जायेगी।
यह एक नि:शुल्क आयोजन है । आप सादर आमंत्रित हैं।
`लोकरंग 2010´ के आयोजन के लिए अपने सुझाव, अपने आसपास के महत्वपूर्ण लोक कलाकारों, लोक कलाकारों की टीमों और लोकसंस्कृतियों के बारे में जानकारी उपलब्ध करा कर आप हमारा सहयोग कर सकते हैं

संपर्क :

सुभाष चन्द्र कुशवाहा,
बी - १४, गोमती नगर,
लखनऊ
mobile : 09415582577
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"लोकरंग - 2009" की एक रिपोर्ट


कौशल किशोर

लोककला का उत्सव और उत्सव का गांव के रूप में चर्चित जोगिया जनूबी पट्टी,आजकल चर्चा में है । यह गांव गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली कुशीनगर से लगभग 17 किलोमीटर दूर राष्ट्रीय राजमार्ग पर स्थित एक छोटा सा कस्बा, फाजिलनगर से तीन किलोमीटर दूर है । राष्ट्रीयकृत मार्ग से एक ऊबड़-खाबड़, पगडण्डीनुमा सड़क जोगिया जनूबा पट्टी को जाती है । जोगिया जनूबी पट्टी हिन्दी कथाकार सुभाष चन्द्र कुशवाहा का पैतृक गांव है। उनके संयोजन में `लोकरंग सांस्कृतिक समिति ने एक नई सांस्कृतिक पहल ली है ।

युवाओं को अपसंस्कृति और फूहड़नप से बचाने, खत्म हो रही समरसता,सामाजिकता और भाईचारा को नव जीवन प्रदान करने के लिए, लोक कलाओं को मंच प्रदान कर इस संस्था ने पूरे गांव को कला गांव के रूप में बदल डाला है । दीवारों व अनाज के बखारों पर बनी सुन्दर कलाकृतियां, जगह।जगह भोजपुरी व हिन्दी कविताओं, गीतों के पोस्टरों ने गांव को आर्ट गैलरी की शक्ल दे दी है । गांव और देश के तमाम साहित्यकार,कलाप्रेमी चकित मन से यहां खींचे चले आ रहे हैं । विगत वर्ष यह आयोजन 23 व 24 मई 2008 को संपन्न हुआ था और इस वर्ष 28 व 29 मई को `लोक रंग-2009´ के दो दिवसीय कार्यक्रम में सौ से अधिक क्षेत्रीय लोक कलाकारों के साथ बड़ी संख्या में हिन्दी के जाने-माने लेखक व बुद्धिजीवी आये। दो दिनों तक चले इस कार्यक्रम में विविध लोक कलाओं, जनगीतों व नाटकों का प्रदर्शन हुआ तथा `विकास की आन्हीं : उड़ गइल छान्हीं´ विषय पर संगोष्ठी हुई। इस आयोजन के द्वारा यह विचार मजबूती के साथ उभरा कि लोक संस्कृति की जन पक्षधर धारा को आगे बढ़ाकर ही अपसंस्कृति का मुकाबला किया जा सकता है।

`लोक-रंग´ के इस आयोजन को देखने-सुनने के लिए बड़ी संख्या में लोग आये। उन्होंने फूहड़ पुरबिया गानों की जगह अपनी मिट्टी, जीवन के गीत।संगीत तथा अपनी लोक कलाओं का भरपूर आनन्द उठाया। इस आयोजन की एक बड़ी खासियत थी कि यह बिना किसी सरकारी मदद के संपन्न हुआ और पूरी तरह जनता के सहयोग व भागीदारी पर निर्भर था। जन संस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ तथा प्रगतिशील लेखक संघ जैसे सांस्कृतिक संगठनों का इसे सहयोग मिला। हिरावल, पटना तथा इप्टा, आजमगढ़ तो अपने पूरे दल-बल के साथ यहां मौजूद रहे ही। इस तरह `लोक-रंग-2009´ लोक कलाकारों के मिलन का मंच भी बना।

वर्श 2009 का आयोजन भोजपुरी के लोकप्रिय कवि मोती बी0ए0 और लोक कलाकार मो0 रसूल को समर्पित था। इस मायने में `लोक-रंग´ की यह उपलब्धि कही जायेगी कि उसने गुमनाम लोक कलाकार रसूल की खोज की है जिनकी मृत्यु 1952 में हो चुकी है । बिहार के गोपालगंज के गांव जिगना के रहने वाले रसूल का नाम कभी बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और बंगाल तक मशहूर था। वे हिन्दू।मुस्लिम की साझी पुरबिया संस्कृति की अनूठी मिसाल थे। अपने लिखे भजनों, गीतों व नाटकों के द्वारा वे काफी लोकप्रिय रहे । उन्होंने आजादी की लड़ाई में योगदान दिया था और अंग्रेजी सत्ता के विरूद्ध आवज उठाई थी -

`छोड़ द गोरकी के अब तू खुशामी बालमाएकर कहिया ले करब,गुलामी बालमा ।´

रसूल की खोज करते हुए संस्था ने 350 पृष्ठों की लोक संस्कृति की अनूठी पुस्तक `लोकरंग-1´, प्रकाशित किया है जिसके संपादक, सुभाष चन्द्र कुशवाहा हैं ।

दो दिनों तक चले इस समारोह में श्रीमती शान्ती के नेतृत्व में गांव की महिलाओं के द्वारा कजरी गायन, रामजीत सिंह और उनके साथियों के द्वारा एकतारा वादन व निर्गुन गायकी, नागेश्वर यादव और उनके साथियों के द्वारा बिरहा गायकी व फरी नृत्य, मीर बिहार व कटहरी बाग की टीमों के द्वारा चइता गायन, देसही देवरिया की टीम के द्वारा खजड़ी, एकतारा वादन व निर्गुन गायकी, आदि विविध कार्यक्रमों के द्वारा लोक संस्कृति का प्रदर्शन हुआ। इप्टा, आजमगढ़ ने लोकगीतों के अलावा कहरवा , जांघिया नृत्य, धोबियाऊ नृत्य और जोगीरा प्रस्तुत किया।

हिरावल ने भारतेन्दु हरिश्चन्द के प्रसिद्ध नाटक `अंधेर नगरी चौपट राजा´ का मंचन किया। इसके मूल नाट्या लेख में परिवर्तन किए बिना देश के अन्दर बढ़ती साम्प्रदायिकता, बाजारवाद के विभिन्न दृश्यों के समायोजन के द्वारा हिरावल ने इस नाटक को सामयिक बनाने का प्रयास किया है। सूत्रधार, आजमगढ़ ने इस मौके पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के द्वारा लिखित नाटक `हवालात´ का मंचन किया। हिरावल के द्वारा वीरेन डंगवाल, महेश्वर, गोरख पाण्डेय, दिनेश कुमार शुक्ल, प्रकाश उदय आदि की कविताओं व गीतों की प्रस्तुति इस आयोजन का विशेष आकर्षण था।

पूर्वांचल में गायन, वादन, नृत्य आदि के जो कला रूप आम तौर पर प्रचलित व लोकप्रिय हैं, `लोक-रंग´ में उनकी एक बानगी देखने को मिलती है। वैसे ये विधाएं आज संकट में हैं और धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं। लेकिन इस समारोह से इन विधाओं को फिर से अपनी जमीन मिल रही है। कलाकारों में अच्छा-खासा उत्साह है। वे अपनी कला को मांजने तथा नयी विषय-वस्तु से उसे सजाने-संवारने की दिशा में सोचने लगे हैं।

`लोक-रंग´ की एक खासियत यह भी रही कि उसने अपनी बहसों में किसानों से लेकर बुद्धिजीवियों तक को हिस्सेदार बनाया। एक अनूठा प्रयोग भी यहां देखने को मिला, वह है लोक कलाओं को आधुनिक कला तथा बुद्धिजीवी समुदाय को गंवई जनता के साथ जोड़ने का। यह एक नई बात थी। इसीलिए लोग सोचने लगे हैं कि यदि `लोक-रंग´ अपनी निरन्तरता आगे कायम रख सका तो यह निसन्देह सांस्कृतिक आन्दोलन का रूप ले सकता है और पूरब की इस पट्टी में सांस्कृतिक चेतना की एक नयी बयार महसूस की जा सकती है।

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