02 जनवरी 2010

माध्यम, संदेश और धन

हाल ही में सम्पन्न हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में पार्टीयों और उम्मीदवारों के द्वारा अपने प्रचार के लिए मीडिया में धन का जम कर इस्तेमाल हुआ। अपने किसी भी चुनावी कवरेज के लिए एक उम्मीदवार को धन के इस संगठित खेल का हिस्सा होना पड़ा या कहें तो जबरन मजबूरी में इसका हिस्सा होना पड़ा। क्योंकि ऐसी धन संस्कृति का मीडिया में इस्तेमाल होने लगा है कि पैसा नहीं तो कवरेज भी नहीं । मीडियाई दुनिया में ‘‘कवरेज पैकेज‘‘ शब्द ने एक संस्कृति का रूप ले लिया है। जिसमें पार्टीयों के साथ संाठ-गांठ , खरीद-बिक्री और उसके चुनावी कवरेज , इन सब के केंद्र में धन आ गया है। लोकतंत्र में अमीर निर्वाचित प्रतिनिधियों की बढ़ती संख्या , सारे नियमों - कानूनों को धत्ता बता कर मीडिया द्वारा ‘‘कवरेज पैकेज‘‘ संस्कृति का निर्माण । इन सारे पहलुओं की एक साफ तस्वीर देश के जाने- माने पत्रकार और मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित पी साईनाथ के इस संपादकीय लेख जो 26 अक्टूबर 2009,सोमवार को द हिंदू में प्रकाशित हुआ था, में साफ तौर पर उभरती है।

पी साईनाथ

अनुवाद - रजनेश
सी राम पंडित को अपने साप्ताहिक स्तंभ को कुछ समय के लिए नहीं लिखना है, मतलब उन्हें रोका जा रहा है। डा पंडित (बदला हुआ नाम ) लम्बे समय से महाराष्ट्र के एक जाने माने भारतीय भाषा वाले अखबार में लिख रहे हैं। राज्य विधानसभा में जिस तारीख को उम्मीदवारों के द्वारा अपना नाम वापस करने की आखिरी तारीख थी , उसके बाद डा पंडित को कुछ समय के लिए अखबार से किनारे कर दिया।
अखबार के संपादक ने क्षमाभाव के लहजे से उन से कहा ‘‘ पंडित जी आपका स्तंभ 13 अक्टूबर के बाद दुबारा प्रकाशित होगा,क्योंकि तब तक अखबार का हर पन्ना बिक चुका है।‘‘ संपादक जो खुद एक ईमानदार व्यक्ति है, दबे मन से सच्चाई को बयां कर रहे थे। महाराष्ट्र चुनाव में धन के इस नशोत्सव में मीडिया भी अपने को मालदार बनाने में लगा रहा और धनवान बनने से नहीं चूका।
धनवान बनने के इस खेल में पूरी मीडिया बिरादरी तो नहीं थी पर कुछ तो इसमें अत्यधिक सक्रिय थे। इस अत्यधिक सक्रिय मालदार बनने वालों की टीम में छोटे मीडियाई संस्था तो शामिल थे ही, परंतु शक्तिशाली अखबार और समाचार चैनल भी कहीं पीछे नहीं थे। बहुत सारे उम्मीदवारों ने इस ‘‘लूट‘‘ की शिकायत तो की पर वो इसे एक बड़ा मुद्या बनाने से इसलिए बचते रहे क्योंकि उन्हें मीडियाई खौफ (मीडिया द्वारा उनके खिलाफ चलाए जाने वाले अभियान, कवरेज न देना) ने घेरे रखा था।

कुछ वरिष्ठ पत्रकार और संपादक प्रबंधन के ऐसे कारनामें से परेशान थे। जाहिर है ये उनके लिए एक दमघोंटू वातावरण था,जहां हर दिन उनके पत्रकारिता के मूल्यों की हत्या हो रही थी।
एक उम्मीदवार ने बहुत निराशा के साथ ये बात कहा कि ‘‘मीडिया इस चुनाव का सबसे बड़ा विजेता रहा।‘‘
एक दूसरे उम्मीदवार के अनुसार ,‘‘ इस एकमात्र वक्त (समय) में (जो भी इस पैकेजिंग के खेल में शामिल थे) मीडिया ने बड़ी तेजी से मंदी की भरपाई की। बड़ी बात यह है कि मीडिया ने इसे बड़े ही योजनाबद्ध तरीके से अंजाम दिया।‘‘ इस पूरे चुनावी समय में तकरीबन 10 करोड़ रूपये मीडिया की जेब में गये। इतनी बड़ी धनराशि सीधे विज्ञापन के रूप में नहीं आई , बल्कि ‘समाचार पैकेज‘ के रूप् में प्रचार करने के लिए इस बड़ी धनराशि का इस्तेमाल हुआ।
यह मीडियाई सौदा एक बड़ा मुद्या नहीं बन पाया । ‘नो मनी, नो न्यूज‘ (पैसा नहीं तो खबर भी नहीं)। मीडिया के इस आवश्यक शर्त के कारण छोटी पार्टीयां और स्वतंत्र एवं निर्दलीय उम्मीदवारों की आवाजें दब सी गयी, क्योंकि इनके पास पूंजी और संसाधन की कमी थी। इन कारनामों के कारण दर्शक और पाठक भ्रम में रहे, और उन तक वो सही मुद्दे नहीें पहुंच पाये जो इन छोटी पार्टीयों ने उठाए थे।

‘द हिन्दू‘ ने इन मामलों पर (अप्रैल 7,2009) लोकसभा चुनाव के दौरान भी रिर्पोट प्रकाशित किया था। जहां चुनावी ‘कवरेज पैकेज‘ के लिए मीडिया ने कम से कम 15 से 20 लाख रूपये की बोली लगाई थी। ज्यादा की कल्पना हम खुद कर सकते हैं। राज्य विधानसभा चुनाव में भी कुछ ऐसी ही तस्वीर सामने आयी।
कुछ संपादकों के अनुसार , ये सब कुछ नया नहीं है। कुछ भी हो ,इस बार का का पैमाना नया और आश्चर्यजनक भी रहा।

ऐसा घृणास्पद कार्य (पार्टी और मीडिया दोनों और से ) बड़ा ही भयप्रद था।
पश्चिमी महाराष्ट्र के एक विद्रोही उम्मीदवार के अनुसार , उस क्षेत्र के एक संपादक ने 1 करोड़ रू केवल लोकल मीडिया पर खर्च किया,और परिणाम यह कि उसने अपनी पार्टी के ही आधिकारिक उम्मीदवार को हरा दिया।
सौदे खूब हुए और भिन्न-भिन्न प्रकार के रहे। एक उम्मीदवार को प्रोफाइल के लिए अलग रेट , अपनी उपलब्धियों के लिए अलग रेट, साक्षात्कार के लिए अलग रेट, और अगर आप पर कोई मामला दर्ज है तो उसके लिए अलग रेट चैनल को उपलब्ध कराना होता था (इसका परिणाम यह होता कि चैनल आपके चुनावी कार्यक्रम का सीधा प्रसारण या आपके कार्यक्रम पर विशेष फोकस या एक टीम जो आपके साथ आपके चुनावी कार्यक्रम के दौरान एक घंटे रहती प्रत्येक दिन)। आपके विद्रोहियों के खिलाफ भी यह बिकाऊ मीडिया अपना काम करता। यह धन लेन-देन की संस्कृति आपके लिए इतनी विश्वसनीय बन जाती की चैनल और अखबार अपने दर्शक एवं पाठक को आपके आपराधिक पृष्ठभूमि के बारे में खबर नहीं लगने देते।
महाराष्ट्र विधानसभा में जितने भी विधायक चयनित हुए हैं उसमें 50प्रतिशत से ज्यादा पर आपराधिक मुकदमें चल रहे हैं।
इनमें से कुछ के बारे में फीचर टाईप समाचार भी अगर बनते तो जब उनके पृष्ठभूमि को खंगाला जाता तो उसमें ऐसे रिकाॅर्ड गायब रहते।
इस चुनावी महासंग्राम के प्रथम चरण के समापन पर ‘विशेष परिशिष्ट‘ का मूल्य बम विस्फोट समान था। एक के अनुसार,राज्य के एक महत्वपूर्ण राजनेता ने राजनीति में अपने एक युग पूरे होने के अवसर पर एक उत्सव का आयोजन करते हुए उसमें तकरीबन डेढ़ करोड़ खर्च किए गए।
मीडिया में केवल इस निवेश पर जो खर्च हुआ वो एक उम्मीदवार के रूप में जितना खर्च किया था उसका 15 गुणा था। उसने इन तराकों का इस्तेमाल कर चुनाव भी जीत लिया।
एक सामान्य कम पैकेज की दर कुछ इस प्रकार है: आपका प्रोफाइल और ‘आपके पसंद का समाचार‘ के लिए आपको कम से कम चार लाख या उससे ज्यादा देना पड़ेगा और ये निर्भर करेगा की आप किस पेज पर ये सब कुछ चाहते हैं। आपके पसंद के समाचार अंश के लिए कुछ हतोत्साह की स्थिति थी,क्योंकि यहां समाचार क्रम के अनुसार पैसा देना पड़ता है(आपके खबरों को थोड़ा बढ़ा चढ़ा कर पेश किया जाता और अखबार का एक लेखक आपके खबर संबंधित सामग्री का ड्राटिंग करता)। अखबारें के कुछ पन्नों में ऐसे खबरों की उपस्थिति बड़ी विचित्र रहती। मिसाल के तौर पर आप एक ही दिन के समाचार पत्र में एक ही दिन के समाचार पत्र में एक ही दिन देखते अलग-अलग बात कहते हुए। क्योंकि ये सब कुछ एक छद्म विज्ञापन और प्रोपगैंडा होता था(जाहिर है ये सब कुछ पाठकों को भरमाने के लिए था)। खबर एक विशेष आकार दस सेंटीमीटर चार काॅलम का होता था। एक केसरिया (भगवा) गठबंधन समर्थक अखबार अपने समाचारों में कांग्रेस और राकंपा का काफी प्रशंसा करता था, आप समझ सकते हैं अजीबो गरीब चीजें बस इस पैकेज संस्कृति का कमाल थीं(और हां मजेदार बात यह है कि अगर आप अपने पसंद का वार समाचार छपवाते तो पांचवा आपको मुत में मिलता)।
कायदे और नियम से चलने वाले कुछ अपवाद भी मौजूद थे। कुछ संपादकों ने कड़े प्रयास किए इन सौदों से दूर रहने के और समाचारों का आॅडिट भी करवाया इस विश्वास के साथ कि कुछ गड़बड़ तो नहीं हो रहा । और जो पत्रकार अपने को इस संकट के कारण परेशान महसूूस कर रहे थे ,उन्होंने अपने प्रधान संपर्कों (लोगों से) के साथ बैठकों को रद्द कर दिया। क्योंकि प्रायः पत्रकारों का जिनका संबंध राजनेताओं से होता है पैरवी के लिए या अपने फायदे के लिए उपयोग किए जाते हैं(यह एक कड़वा सच है कि पत्रकारों का राजनेताओं से निकटता का इस्तेमाल अमूमन अपने फायदे के लिए किया जाता है)।
यह सूचना एक रिर्पोटर से प्राप्त हुई जिसका अखबार प्रत्येक शाखा के पास ई-मेल भेज कर प्रत्येक संस्करण पर अपने टारगेट को पूरा करने को कहता था। जो इन सौदों से इतर बेहतरीन अपवाद थे वो खबरों के व्यापार,पैकेज की बाढ़ में दब गए। और जो बड़ी राशि अखबारों द्वारा ली जा रही थी वो अपने कर्मचारियों को भी इस लूट में शामिल होने से नहीं रोक पाए। जो संस्करण अपने टारगेट को पूरा कर रहे थे वो भी। इस पूरी प्रक्रिया के बचाव में मानक तर्क भी बना लिए गए।
‘एडवरटाईजिंग पैकेज‘ उधोग के लिए ब्रेड और बटर का काम करते हैं। क्या गलत है इसमें ? पर्व के मौसम में भी हम पैकेज जारी करते हैं।दिवाली पैकेज और गणेश पूजा पैकेज। इस पूरी प्रक्रिया से जिसमें झूठ ,बनावटी समाचार, और मनगढ़ंत बातें थीं केंद्र के निर्वाचन भारतीय चुनावी लोकतंत्र को प्रभावित कर रहा था।
यह अनैतिक रूप से अनुचित है उन उम्मीदवारों के लिए जिनके पास कम पैसे हैं या है ही नहीं। उन्हें भी ऐसे प्रयोग को मजबूरन अपनाना पड़ेगा मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए।
एक और जो बहुत खराब मीडिया संबंधी आयाम है वो ये कि काफी सारे सेलिब्रटी मई में चुनाव प्रवार कर लोगों से वोट की अपील करने आए थे। इस समय काफी सारे सेलिब्रटियों को चुनाव अभियान प्रबंधकों के द्वारा किराये पर ले लिया जाता था भीड़ इकट्ठा करने के लिए । इनके कीमतों का पता नहीं चल सका है। ये सब कुछ हाथों-हाथ हो रहा था उम्मीदवारों के धन में हुई भारी वृद्धि से।
इसमें ज्यादातर वैसे उम्मीदवार थे जिन्होंने पिछली बार सन् 2004 के विधानसभा में बतौर विधायकों इंट्री की थी और तब से अब तक उन्होंने काफी पैसा बना लिया था। मीडिया और पैसे की ताकत जैसे एक गमले में दो पौधों की तरह, यह पूरी तरह से छोटे और कम खर्च वाली आवाज को दबा देते हैं। इसका मूल्य आम आदमी को भ्रमजाल में फंस कर चूकाना हौता है। मत सोचिए वे फिर भी इस चुनावी प्रक्रिया के हिस्सा जरूर हैं।
महाराष्ट्र चुनाव में आपके चुनाव जीतने की संभावना उस समय अधिक बढ़ जाती है,जब आप 100 मिलयन खर्च करते हैं,तब आपके चुनाव जीतने की संभावना 48 गुणा बढ़ जाती है, अगर आप केवल एक मिलयन खर्च करते हैं। और हां अगर सामने वाला आधा मिलयन खर्च करता है तब आपकी संभावना इस तंत्र के द्वारा और प्रबल है।
कुल 288विधायकों में महाराष्ट्र में जिन्होंने चुनाव जीता है,केवल 6 की संपत्ति पांच लाख के करीब है। इन अमीर निर्वाचित सछस्यों को इन(1-10लाख) वाले लखपति से बिल्कुल भी खतरा नहीं था। आपके चुनाव जीतने की संभावना इन से छह गुणा ज्यादा है,नेशनल इलेक्शन वाच के अनुसार।
सम्पन्न हुए विधानसभा चुनाव में करोड़पति विधायकों की संख्या (जिनकी संपत्ति 1 करोड़ से ज्यादा है) 70 प्रतिशत से ज्यादा है। 2004 में ऐसे 108 करोड़पति निर्वाचित सदस्य थे। इस समय इनकी संख्या 184 है। महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में दो -तिहाई निर्वाचित सदस्य करोड़पति हैं जो संपन्न हुए हरियाणा विधानसभा चुनाव में निर्वाचित तीन-चैथाई सदस्यों के बराबर हैं। ऐसी भौंच्क्क करने वाली रिर्पोट न्यू(नेशनल इलेक्शन वाॅच),जिसमें विभिन्न संगठनों के पूरे 1200 नागरिक समाज के लोग पूरे देश से हैं के द्वारा सामने आई है। लोकसभा चुनाव के दौरान भी ऐसी रिपोर्टें इन नागरिक समाज संगठनों के द्वारा आई थी अप्रैल-मई में। ‘‘एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक राइट्स‘‘ ने एन जी ओ के साथ मिलकर लागों को वोट के अधिकार के उपयोग के लिए आगे किया। महाराष्ट्र में प्रत्येक विधायक की औसत संपत्ति करीब-करीब 40मिलयन है। यह उनके द्वारा स्वंय घोषित है ,अगर सही माने तो। औसत रूप से कांग्रेस और बीजेपी के विधायक अन्य विधायकों से ज्यादा अमीर हैं। राकंपा और शिवसेना के विधायक भी ज्यादा पीछे नहीं हैं।इनके विधायकों की औसत संपत्ति 30मिलयन है।
इस जटिल चुनावी लोकतंत्र में हमेशा एक व्यापक मत प्रयोग का दौर चलता रहता है। हम चुनाव आयोग को उसके कार्य के लिए बधाई देते हैं। अधिकतर माामलों में,अधिकतर बार चुनाव आयोग के हस्तक्षेप और जागरूकता के कारण ही बुथ लूट,वोटों की हेराफरी पर लगाम लगा। परंतु,चुनाव में धन प्रयोग पर मीडिया पैकेजिंगपर अभी आयोग की तरफ से कोई सख्त कदम नहीं उठाए गए हैं।
यह सौदा अधिक योजनाबद्ध तरीके से किया जा रहा है,जो मतों की हेराफेरी से ज्यादा खतरनाक है।क्योंकि यहां सब कुछ अपरोक्ष तरीके से होता है।यह शर्मनाक सौदा न सिर्फ चुनाव के लिए बल्कि संपूर्ण लोकतंत्र के लिए शर्मनाक भी है और खतरनाक भी।

पी र्साइनाथ प्रख्यात पत्रकार व द हिंदू में ग्रामीण मामलों के संपादक हैं.
रजनेश महात्मा गांधी अंतरराश्ट्ीय हिंदी विष्वविद्यालय के छात्र हैं.

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