आवेश तिवारी
2 सितंबर 2003 : आदिवासियों का कलमकार कहे जाने वाले छोटे कद के विजय विनीत के लिए ये दिन भुलाना शायद बहुत मुश्किल होगा। दोपहर के 11 बजे थे, जब अचानक जागरण कार्यालय की घंटी घनघना उठी।
“मै देवकुमार बोल रहा हूं। जरूरी खबर देनी थी। एसपी के सत्यनारायण ने अभी बिरला जी के गेस्ट हाउस में प्रेस मीटिंग बुलायी थी। सारे पत्रकार वहां थे। उन्होंने बताया है कि हमने दो लुटेरों को पकड़ा है और कहा है कि अगर आप मदद करें तो हम गोली मरवा दे। ये कई लोगों को लूट चुके हैं।”
“आपने क्या कहा?” विजय ने लगभग थरथराते हुए पूछा।
दूसरी तरफ से आवाज आयी, “हम लोगों ने ओके कर दिया।”
“अरे! ये क्या किया आप लोगों ने, देवकुमार जी? जो करना है करो, मगर यही कहूंगा आप लोग ये अच्छा नहीं कर रहे”। विजय ने लगभग कांपते हुए कहा।
3 सितंबर 2003 : दैनिक जागरण के मुख्य पृष्ठ पर देव कुमार की बाइलाइन खबर “पुलिस मुठभेड़ में दो लुटेरे मारे गए”… हिंदुस्तान में छपा : “सोनभद्र पुलिस को बड़ी सफलता, लूट के चौबीस घंटे के भीतर लुटेरों का खात्मा”… लगभग सभी अख़बारों ने पुलिस की बहादुरी के चर्चे किये।
3 जनवरी 2010 : फास्ट ट्रैक कोर्ट ने जनपद के चर्चित रानटोला मुठभेड़ कांड को सोमवार को फर्जी करार देते हुए इसमें शामिल 14 पुलिसकर्मियों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी है। साथ ही गोली चलने वाले पुलिसकर्मियों पर एक एक लाख और अन्य पर पचास-पचास हजार रुपये का अर्थदंड लगाया है।
11 जनवरी 2010 : मृतकों में से एक प्रभात के पिता लल्लन श्रीवास्तव, अध्यापक, स्थान मेराल, गढ़वा (झारखंड)कहते हैं “भैया अगर पत्रकार लोग चाहते तो हमारा बेटा नहीं मारा जाता। वो लोग पुलिस वालों को ये अपराध करने से रोक सकते थे। अब इन्हें सजा मिल भी जाए, तो हमारा बेटा लौट कर तो नहीं आएगा। आप जानते हैं? वो हर कक्षा में प्रथम आता था।”
ये महज किस घटना से जुड़ा रोजनामचा नहीं है। ये हिंदुस्तानी पत्रकारिता के मौजूदा चरित्र से जुड़ा एक बेहद खौफनाक दस्तावेज है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के होनहार छात्र प्रभात श्रीवास्तव और उसी के गांव के रमाशंकर साहू को पुलिस ने आउट ऑफ़ टर्न प्रमोशन पाने के लिए पत्रकारों की मदद से मौत के घात उतार दिया था। घटना कुछ ऐसे थी… सन 2003 की शुरुआत होते ही सोनभद्र के पिपरी थाना क्षेत्र के रंटोला जंगल में वाहन लूट की कई घटनाएं हुई थीं। इससे पुलिस की काफी किरकिरी हुई। ऐसी ही लूट की एक घटना दो सितंबर 2003 को भी घटी थी। घटना के महज चौबीस घंटे के भीतर सोनभद्र पुलिस ने झारोखास रेलवे स्टेशन से चार लोगों को उठा लिया। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के सत्यनारायण ने बेगुनाहों की हत्या से पहले पत्रकारों को गेस्ट हाउस में बुलाया। इसमें कई बड़े अख़बारों के ब्यूरो प्रमुख भी शामिल थे। मौके पर मौजूद एक पत्रकार बताते हैं कि जब एसपी ने उन युवकों को मारने में सहयोग देने की बात कही, सबने तत्काल पूरा सहयोग देने का आश्वाशन दे दिया। अगले ही पल कप्तान ने फोन पर ही गोली मारने का आदेश दे दिया। फिर क्या था, पुलिस ने दोनों युवकों को रंटोला के जंगल में खड़ा करके नजदीक से गोली मार दी। वहीं अन्य दो को जेल भेज दिया। आश्चर्यजनक ये भी था कि पत्रकार पुलिस की ही गाडी से घने जंगलों के बीच स्थित उस जगह पर पहुंचे, जहां दोनों युवकों की लाशें पड़ी थी।
विजय जो कि उस वक़्त जागरण में ही थे, बताते हैं हमने शाम को एडिटोरियल में कहा कि मुठभेड़ फर्जी है, लेकिन कोई मानने को तैयार नहीं था। हमें कहा गया कि जब सब अखबार पुलिस का ही वर्जन छापेंगे तो हम क्यूं नहीं छापें? चूंकि उस वक़्त हिंदुस्तान के ब्यूरो प्रमुख और अन्य अखबार वाले भी एसपी की प्रेस वार्ता में मौजूद थे, सो सबने वही छापा जो पुलिस ने कहा। जबकि मारे गये दोनों युवक झारखंड के गढ़वा जिले के मेराल गांव के रहने वाले थे। इसमें से एक प्रभात कुमार के पिता राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाध्यापक थे। प्रभात के खिलाफ किसी भी थाने कोई प्राथमिकी दर्ज नहीं थी। जब प्रभात और उसी के गांव के रमाशंकर साहू को पुलिस ने पकड़ा तब वह एनटीपीसी बीजपुर में अपनी बहन के घर से लौट रहे थे।
बड़े अख़बारों और पत्रकारों द्वारा इस पूरे मामले में लीपापोती का काम यहीं ख़त्म नहीं हुआ। घटना के बाद लगातार कई एपिसोड छाप-छाप कर तमाम समाचार पत्र पुलिस के गुनाहों पर पर्दा डालते रहे। प्रभात के पिता अखबार के दफ्तरों में चक्कर काटते रहे, मगर किसी ने उनकी व्यथा को प्रकाशित नहीं किया। उस वक़्त हत्या के इस मामले में पत्रकारों की भूमिका को लेकर सर्वप्रथम खबर छापने वाले दैनिक न्यायाधीश के संपादक रघुबीर जिंदल कहते हैं, “आज देश के अधिकांश पत्रकार सत्ता और सत्ता के नुमाइंदों से गलबहियां डाले ख़बरें लिख रहे हैं। हम वही लिखते हैं, जो वो कहते हैं। हम वही सोचते हैं, जो वो चाहते हैं। ये पतन का चरम ही नहीं है ये अपराध भी है। इस एक मामले में पत्रकारों का अपराध घटना में आजीवन कारावास की सजा पाये अपराधियों से कम नहीं है। इस चरित्र को बदले जाने की जरूरत है।”
रघुबीर जिंदल का कहना गलत भी नहीं है। विज्ञापन और सरकारी मशीनरी से झूठे सम्मान के एवज में बहुत कुछ गिरवी रखा जा रहा है। यहां तो सिर्फ दो बेगुनाहों की हत्या हुई – कई बार आम आदमी की भूख, बेबसी और लाचारी भी हमारी कलम की नोंक से पैदा होती है। खुद को इस्तेमाल किये जाने की इजाजत देना हमेशा दूसरों के लिए दर्द लेकर आता है। आज ये पोस्ट लिखने से थोड़ी देर पहले मेरी मुलाक़ात प्रभात की बहन से हुई। वो कहती हैं, “आप लोग प्रभात को बचा लेते तो आप लोगों का क्या बिगड़ जाता। वो बेवजह मारा गया। उससे किसी को क्या मिला।” मेरे पास जवाब नहीं था। हम जानते हैं… उसे नहीं मालूम, खबर का असली चेहरा कैसा होता है।
लेखक आवेश तिवारी सोनभद्र में डेली न्यूज एक्टिविस्ट अखबार के ब्यूरो चीफ के रूप में कार्यरत हैं.
साभार मोहल्ला लाइव
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