
दिन का यही कोई डेढ.दो बजे का समय होगा, संस्कृति निदेशालय के उप निदेशक इंदु सिन्हा का नाटक के निर्देशक राजेश कुमार के पास फोन आया कि संस्कृति निदेशालय के निदेशक महोदय नाटक का रिहर्सल देखना चाहते हैं। राजेश कुमार का कहना था कि वे तीन बजे के आस.पास आ जायें, तब तक तैयारी पूरी हो जायेगी। कलाकार नाट्य मंचन को अन्तिम टच देने में लगे थे। करीब ढाई बजा होगा, इंदु सिन्हा का राजेश कुमार के पास फिर फोन आया। उन्होंने सूचित किया कि नाटक का मंचन स्थगित कर दिया गया है। कारण ? बस इतना कि सचिवालय (एनेक्सी) के पंचम तल से नाटक को स्थगित किये जाने का आदेश आया है। इससे ज्यादा वह बता पाने की स्थिति में नहीं थीं। कलाकारों और दर्शकों के रोष की संभावना को देखते हुए बाद में इतना और जोड़ दिया गया कि निदेशालय की ओर से रैदास जयन्ती पर बड़े कार्यक्रम की योजना है। उस अवसर पर इस नाटक का मंचन कराया जायेगा। इसी को देखते हुए मंचन को स्थगित किया गया है।
गौरतलब है कि संस्कृति निदेशालय ने राजेश कुमार के नाटक ‘सत भाषै रैदास’ के स्क्रीप्ट को देखने के बाद ही उसकी मंजूरी दी थी। अलबŸाा उन्होंने स्क्रीप्ट मे थोड़े.बहुत बदलाव करने का प्रस्ताव जरूर किया था। निदेशालय के द्वारा कार्यक्रम का बड़ा सा निमंत्रण पत्र भी छपवाया गया था तथा लखनऊ के अखबारों में विज्ञापन के द्वारा इसका प्रचार भी किया गया था। प्रदेश के संस्कृति मंत्री कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे। फिर कुछ घंटे पहले अचानक मंचन को स्थगित कर देना, यह संस्कृति निदेशालय के किस ‘सांस्कृतिक’ व्यवहार को दिखाता है ?

राजेश कुमार का ‘सत भाषै रैदास’ काफी चर्चित नाटक है। इसके अब तक कई मंचन हो चुके हैं। साहित्य कला परिषद, दिल्ली ने 2008 में इसे ‘मोहन राकेश सम्मान’ से पुरस्कृत भी किया था। यह नाटक रैदास के जीवन वृत के माध्यम से यह दिखाता है कि वर्णाश्रम व्यवस्था, धार्मिक कट्टरता व आर्थिक विषमता के खिलाफ अपने संघर्ष के द्वारा रैदास ने नई सामाजिक चेतना फैलाई थी। वह उस दौर की सबसे बड़ी सामाजिक क्रान्ति थी जिसे दमित करने में ब्राहमणवादियों ने कोई कोर.कसर नहीं छोड़ी थी। राजेश अपने इस नाटक के द्वारा वर्तमान के जनवादी संघर्ष को मध्ययुग में रैदास जैसे संतों के संघर्ष की परम्परा से जोड़ते हैं जो बुद्ध, फुले, अम्बेडकर से होते हुए नये समतामूलक समाज के निर्माण के जनवादी संघर्ष से आगे बढ़ती है।
संस्कृति निदेशालय राजेश कुमार के इस नाटक के द्वारा चाहता था कि संत रैदास की ऐसी छवि व रूप सामने आये जो मौजूदा सरकार की ‘समरसता’ की अवधारणा के फ्रेम में फिट बैठता हो। इसलिए नाटक के स्क्रीप्ट को लेकर संस्कृति निदेशालय और नाटककार राजेश कुमार के बीच बहस थी। वे इस नाटक के मूल स्क्रीप्ट में कुछ बदलाव चाहते थे। खासतौर से उन अंशों में सुधार.संशोधन चाहते थे जहाँ रैदास ब्राहमणवाद, सवर्ण श्रेष्ठता और सामंती वर्ण व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। इनके विरूद्ध उनका संघर्ष है।
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नाटक ‘सत भाषै रैदास’ के मंचन को स्थगित करने का आदेश पंचम तल से आया था जो प्रदेश सरकार का केन्द्र है। बुद्ध से लेकर अम्बेडकर जैसे प्रतिष्ठित दलित नायकों की मूर्तियां चैराहों पर लगे। उनके साथ कांशीराम और मायावती भी वहाँ मौजूद रहें। इनके नाम पर पार्क, बस अड्डे, अस्पताल, विश्वविद्यालय बने। ये नायक यहीं रहें। इससे ये बाहर न निकलें और निकले भी तो उस ‘समरसता’ के प्रर्वतक बन कर जो अपने चरित्र में प्रगति विरोधी है। धरती से कटी पंचम तल पर बैठी सरकार को वह रैदास नहीं चाहिए जो चैराहों.चैराहों पर सत्संग लगाता है, जो सड़कों पर संघर्ष का गीत गुनगुनाता है, अपने अधिकार जताता है और नए राज.समाज का सपना देखता है - ‘ऐसा राज चाहूँ मैं, जहाँ मिलै सबब को अन्न’।
पंचम तल में बैठी सरकार को अब यह ‘सत भषै रैदास’ बरदाश्त नहीं। नाटक के मंचन को स्थगित किये जाने की घटना से क्या यही बात सामने नहीं आती है ?
कौशल किशोर, जसम लखनऊ के संयोजक हैं
एफ-3144, राजाजीपुरम, लखनऊ-226017
मो- 09335226034
2 टिप्पणियां:
yahi vidambna hai hamare samaj ki. dalit andolan kahan jakar gira
समाज व्यवस्था में चाहे कोई भी बैठा हो, राजनीति के गलियारे में कोई भी घर अछूत नहीं होता है। शोषण और अत्याचार का विरोध संत रविदास ने संतों की बाणी में किया था, जोकि तात्कालीन ब्राह्मणवादियों को स्वीकार ना हुआ था। यथास्थिति भी जस-की-तस बनीं हुई है। आज भी कोई उदारवादी ब्राह्मण ये स्वीकार नहीं करेगा कि कभी उनके पुर्खों ने समाज के इतनें बड़े तबके को बेवकूफ़ बना कर शोषण किया और करवाया? वो अपनी पुरानी बातों पर मिट्टी डाल कर नई सोच की अवधारणा रख कर खुद को दलितों के हितैषी साबित कर देते हैं। लेकिन यदि किसी अन्य विषय पर बात कि जाए तो वे पुराणों तक के उदाहरण लेकर आ जाते हैं औऱ ऐतिहासिक तर्क देनें से नहीं चूकते। "सत भाषै रैदास " शायद वो आईना फिर से दिखा देता उस उत्तर प्रदेश को जो सामजिक समरता का झूठा ढ़ोल पीटता दिख रहा है।
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