अवनीश राय
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय ने अनिल चमड़िया को यह कहते हुए विश्वविद्यालय से हटाने का फैसला किया कि उनकी नियुक्ति गलती से हो गयी। फैसला एक्जीक्यूटिव कमेटी के 18 सदस्यों में से सिर्फ 8 सदस्यों को जल्दबाजी में बुलाकर लिया गया। यानी एक तरह से फैसले पर मुहर लगवा ली गयी। फैसला लेने का आधार क्या था, यह किसी के गले नहीं उतर रहा है।
इन्हीं साहब का एक लेख हिंदुस्तान अखबार में 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस के दिन छपा। शीर्षक था, गणतंत्र में ही छिपे हैं लोकतंत्र के बीज। समसामयिक घटनाओँ के संदर्भ में चलिए इसकी समीक्षा करते हैं। रघुवीर सहाय की कविता से शुरू करते हुए वीएन राय ने गणतंत्र के अस्तित्व पर सवाल खड़ा किया है। कहते हैं… क्या है जो साठ वर्ष बाद भी गणतंत्र दिवस के मौके पर हमें चैन से नहीं सोने देता… ऐसा क्या है जो गणतंत्र बनने की प्रक्रिया में टूट गया। आगे लिखते हैं, मेरा मानना है कि भारतीय समाज अपनी अंतनिर्मिति में लोकतंत्र विरोधी है। यदि मुझे किसी एक कारण की तलाश करनी हो तो मैं इसके लिए अपने समाज की सबसे घृणित संस्था वर्ण व्यवस्था को जिम्मेदार ठहराऊंगा। इस अकेली संस्था ने भारतीय समाज को कभी लोकतांत्रिक नहीं होने दिया। ये वाक्य उन वीएन राय के हैं, जिन्होंने प्रगितिशीलता का लबादा ओढ़ रखा है। अब उस जगह की बात करते हैं, जो संस्था वीएन राय के “सफल” निर्देशन में चल रही है। मगांअंहिं विवि के अनुवाद विद्यापीठ में एमफिल के टॉपर रहे राहुल कांबले का जान-बूझकर पीएचडी में दाखिला नहीं लिया गया। राहुल का चयन सामान्य वर्ग में प्रतीक्षा सूची नंबर एक पर हुआ था। एक चयनित छात्रा द्वारा प्रवेश न लेने से एक सीट खाली थी, जिस पर नियम के अनुसार राहुल का नामांकन होना चाहिए था। लेकिन केवल दलित छात्र होने कारण राहुल का नामांकन सामान्य वर्ग में नहीं किया गया, जबकि उसका चयन सामान्य वर्ग में हुआ था। छात्र राहुल कांबले ने आरोप लगाया कि विद्यापीठ के डीन प्रो आत्मप्रकाश श्रीवास्तव पिछले दो महीने से उसका मानसिक और भावनात्मक शोषण कर रहे हैं। विश्वविद्यालय के कुलपति (वीएन राय) ने भी इस मामले में कभी कोई गंभीरता नहीं दिखायी और राहुल को ही बार-बार प्रो श्रीवास्तव से माफी मांगने पर मजबूर किया और अंत में उसको एडमिशन देने से मना कर दिया। प्रो श्रीवास्तव ने कई बार राहुल पर जातिगत पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर कमेंट किया। यही नहीं, उसके प्रोफेसर पिता पर भी आपत्तिजनक टिप्पणियां कीं।
राहुल ने अंत में एक आरटीआई दाखिल किया। इस पर राहुल पर दबाव बनाया गया कि वो अपना आरटीआई वापस ले ले और माफी मांग ले तो उसका नामांकन कर दिया जाएगा। राहुल ने वैसा ही किया लेकिन कुछ नहीं हुआ। ऐसा नहीं था कि वीएन राय को कुछ मालूम नहीं था। तो इसे जातिवादी पूर्वाग्रह के अलावा और क्या कहा जा सकता है?
वे आगे कहते हैं कि… किसी समाज के सभ्य होने या न होने का पैमाना सिर्फ यही हो सकता है कि वह अपने कमजोर लोगों को कितना स्पेस देता है। हमारे बीच कमजोर कौन है? कमजोर हैं आर्थिक रूप से गरीब, दलित, पिछड़े, आदिवासी या औरतें। इन तबकों में से कुछ आर्थिक रूप से संपन्न हो जाने के बाद भी उपेक्षा का दंश झेलने के लिए मजबूर हैं। एक विश्वविद्यालय का कुलपति रहते हुए वीएन राय एक दलित की मदद नहीं कर पाये। वो उसी वर्ग से आता है, जिसका उन्होंने अपने लेख में उल्लेख किया है। क्या इस लेख में वे उसी की कहानी लिख रहे थे? आखिर ये दोमुंहापन क्यों है?
लेख में आगे है… कुछ वर्षों पहले आस्ट्रेलिया ने एक राष्ट्र के रूप में अपने मूल निवासियों से इस बात के लिए क्षमायाचना की थी कि उनके पुरखों के साथ ज्यादतियां हुई थी। क्या भारतीय गणराज्य कभी इतना प्रौढ़ होगा कि अपने दलितों से अमानवीय व्यवहार के लिए क्षमा मांगे?
हम अपनी निजी जिंदगी में और सार्वजनिक जिंदगी में कितने अलग और दोगले होते हैं, यह देखना हो तो कोई वीएन राय को देखे। एक तरफ दलितों पर अत्याचार के लिए भारतीय गणराज्य से क्षमा मांगने की वकालत करते हैं, और देखिए कि खुद क्या करते हैं! क्या आप राहुल कांबले से माफी मांगेंगे? बड़े अखबारों में लिखकर गाल बजाना आसान है। उसी को अपनी जिंदगी में अमल करना हो तो अनिल चमड़िया से सीखिए।
अब राय साहब की कुछ उपलब्धियों का जायजा ले लेते हैं। समाज के एक तबके में ये साहब प्रगितिशील माने जाते हैं। आजमगढ़ के अपने पैतृक गांव जोकहरा में इसके नजीर स्वरूप इन्होंने एक लाइब्रेरी बनवा रखी है, जहां एक सज़ायाफ्ता अपराधी को नौकरी पर रख कर उसे सुधारने और बदलाव लाने का ढिंढोरा पीटते रहते हैं। इसके अलावा एक साहित्यकार के तौर इन्होंने जो कुछ लिखा है, वो इनकी नौकरी के दिनों की घटनाओं के एक कमजोर संस्मरण से अधिक कुछ नहीं है। पद पर रहते हुए अपने संबंधों के बल पर साहित्यकारों का जमावड़ा लगाया, यही इनकी उपलब्धि है।
जिस अनिल चमड़िया की नियुक्ति में अहर्ताओं की बात राय साहब कह रहे हैं, उनके बारे में भी जान लेते हैं। चमड़िया ने कोई डिग्री लेकर पत्रकारिता नहीं शुरू की थी। वे स्वभाव से ही पत्रकार हैं और अपनी कक्षाओं में छात्रों को पढ़ाते नहीं हैं बल्कि असली पत्रकार पैदा करते हैं। भारतीय जनसंचार संस्थान जैसे संस्थान में उन्होंने वर्षों पढ़ाया है और इस बारे में उनके स्टूडेंट्स से अच्छा भला और कौन बता सकता है। लेकिन वीएन राय की ईसी कहती है कि वे पद के लिए अहर्ताएं पूरी नहीं करते। लेकिन बकौल चमड़िया, डिग्री का कोई मामला नहीं है क्योंकि नियुक्तियों में यूजीसी के दो तरह के प्रावधान होते हैं। एक, डिग्रीधारियों की नियुक्ति होती है, तो बिना डिग्रीधारियों की भी होती है। बिना डिग्रीधारियों के लिए कई पैमाने होते हैं। जैसे उनका संबंधित फील्ड में कांट्रीब्यूशन क्या है, शोध क्या है आदि आदि। बिना डिग्रीधारी पैमाने पर मैं फिट बैठता हूं। अगर आप कह रहे हैं कि गलत क्राइटेरिया पर नियुक्ति हो गयी तो उस गलत क्राइटेरिया पर मैं ही क्यों, नियुक्त हुए 12 लोग आएंगे। तो बाकी लोग क्यों नहीं हटाये गये? 1998, 2000 और फिर 2009 में यूजीसी की तरफ से नियुक्ति के लिए जो प्रावधान जारी किये गये, उसी का हवाला देकर मुझे हटाया गया जबकि इन प्रावधानों पर मैं खरा उतरता हूं। आपने कहा कि 1998 के यूजीसी के प्रावधान के आधार पर विज्ञापन निकाला था जो गलत था, इसे 2000 के प्रावधान के आधार पर होना चाहिए था। तो फिर जिन 12 लोगों की नियुक्ति गलत प्रावधान के आधार पर की, उन सभी को हटाया जाना था। सिर्फ मुझे इसलिए हटाया क्योंकि वीएन राय मुझे हटाना चाहते थे। इसीलिए नियम-कायदे को ताक पर रखकर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए मुझे हटा दिया।
वीएन राय का चमड़िया के प्रति पूर्वाग्रह नीचे की घटना से साफ हो जाता है।
मैंने स्टूडेंट्स को गांव में रिपोर्टिंग करने के लिए भेजा। 15 हजार रुपये खर्च आ रहे थे। वीएन राय ने कहा कि यह तो बहुत ज्यादा है, केवल छह हजार रुपये दूंगा। पर उन्होंने छह हजार रुपये भी नहीं दिये। छात्र अपने खर्चे पर बसों से गांव जाते और लौटते। छह हजार रुपये के लिए फाइल घूमती रही, पर कुलपति वीएन राय के उस पर दस्तखत आज तक नहीं हुए।
दलितों का पक्ष धरने का दंभ भरने वाले वीएन राय ने न सिर्फ इस फाइल पर साइन नहीं किये बल्कि उसके उलट अपने करीबी एक प्रोफेसर के साथ छात्रों को 15 दिनों तक गोवा में टूर के लिए भेज दिया। इस गोवा यात्रा का बिल लाखों में था। अब इस बात का अंदाजा लगाना कितना मुश्किल है कि वीएन राय के इरादे क्या थे।
तो साहब वीएन राय चाहे जो कुछ कहें… उनकी पोल अब खुल चुकी है। प्रगितिशीलता का जो लबादा उन्होंने ओढ़ रखा था, वो अब उतर चुका है। जिनकी नियुक्तियां इन्होंने की हैं, उनमें से एक प्रोफेसर पर कॉपी-पेस्ट करके अंग्रेजी में कई किताबें लिखने का आरोप है जबकि उस शख्स को अंग्रेजी आती तक नहीं है। ऐसा आदमी विभागाध्यक्ष बना बैठा है। आखिर राय साहब किसको बहकाना चाहते हैं? संभल जाइए… सूरज पर थूकेंगे तो आपके ऊपर ही गिरेगा।
1 टिप्पणी:
प्रगतिशीलता का सम्बन्ध मात्र विचार से नहीं बल्कि वह संस्कारों से भी जुड़ती है। इसीलिए मध्यवर्ग से आने वाले के लिए यह जरूरी है कि वे विचार के स्तर ही प्रगतिशीलता को न अपनाए बल्कि उनके संस्कारों में, व्यवहार, आचरण में भी प्रगतिशीलता आए। हिन्दी-उर्दू पट्टी में ब्राहमणवाद-सनातनी विचार बहुत गहरे हैं,, इसलिए बौद्धिकों से मात्र वैचारिक प्रतिबद्धता जरूरी नहीं। उनकी मानसिकता में भी बदलाव जरूरी है। यह कठिन प्रक्रिया है। मअहिवि में उठे सवालों से यही सच्चाई सामने आती है।
- कौशल किशोर
एक टिप्पणी भेजें