05 फ़रवरी 2010

सुनो विभूति, तुम सेकुलर जातिवादी हो…

दिलीप मंडल

ऐसे समय में जब कई बार छवियों का महत्व वास्तविकता से ज्यादा हो जाता हो, तब ऐसे बच्चे की जरूरत होती है जो कहे कि अरे राजा तू तो नंगा है। ऐसे समय में जब सच कहना सबसे साहसिक कामों में गिना जाता हो, जब हम सलाम करते हैं वर्धा के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर (डॉ) एल करुण्यकारा को। प्रोफेसर को 11 दिसंबर को विभूति नारायण राय का साइन किया हुआ एक नोटिस मिलता है, जिसमें उन पर आरोप लगाया जाता है कि 6 दिसंबर की शाम उन्होंने भड़काऊ जातिवादी नारेबाजी की थी और वो जुलूस में शामिल हुए थे। उन पर ये आरोप भी लगाया गया कि उनके ऐसा करने से कैंपस की शांति और समरसता को खतरा पैदा हुआ। विभूति ने नोटिस में ये धमकी दी कि 7 दिनों में नोटिस का जवाब मुझे नहीं मिला तो एकतरफा कार्रवाई की जाएगी। मवालियों की भाषा में जारी इस नोटिस का जो जवाब प्रोफेसर करुण्यकारा ने दिया है वो प्रतिरोध का शानदार दस्तावेज है। वीसी को भेजी गई चिट्ठी का अनुवाद दिलीप मंडल ने किया है


प्रोफेसर (डॉ) एल करुण्यकारा
निदेशक, बाबा साहेब अंबेडकर दलित और आदिवासी अध्ययन केंद्र
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय।
———————————————-

प्रति,
श्रीमान विभूति नारायण राय
वाइस चांसलर
महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय।

विषय: 6 दिसंबर को बाबा साहेब अंबेडकर महापरिनिर्वाण दिवस पर मेरे शामिल होने को लेकर भेजे गए आपके नोटिस के संदर्भ में।

महोदय,

ये मेरा उत्तर उस नोटिस के संदर्भ में है जो आपने मुझे ६ दिसंबर को बाबा साहेब आंबेडकर महापरिनिर्वाण दिवस समारोह के दौरान अंबेडकर स्टूडेंट्स फोरम (दलित और आदिवासी छात्रों का संगठन) द्वारा आयोजित मोमबत्ती जुलूस में शामिल होने को लेकर जारी किया था।
सबसे पहले मैं आपको भारतीय इतिहास में 6 दिसंबर की तारीख का महत्व बता दूं। इस तारीख को भारतीय संविधान के रचयिता बाबा साहेब अंबेडकर का निधन हुआ था और इतिहास इस दिन को महापरिनिर्वाण दिवस के रूप में मनाता है।
सांप्रदायिक ताकतों ने बाबरी मस्जिद को गिराने के लिए जानबूझकर इस दिन को चुना, 5 या 7 दिसंबर को नहीं, क्योंकि 6 दिसंबर को बाबा साहेब का महापरिनिर्वाण दिवस है। सांप्रदायिक ताकतें इस दिन को विजय दिवस के रूप में मनाती हैं तो सेकुलर लोगों के लिए ये काला दिवस है। दोनों ही पक्ष आंबेडकर को भुलाने का नाटक करते हैं और साल दर साल ऐसा हो रहा है। दलित बुद्धिजीवी इसे मनुवादी प्रलाप मानते हैं और इसमें साजिश देखते हैं।

जाति की विचारधारा को आगे बढ़ाने के लिए जब कोई सेकुलर व्यक्ति कुछ काम करता है तो मैं उसे सेकुलर जातिवाद कहता हूं। और ऐसा करने वाले को मैं सेकुलर जातिवादी कहता हूं। सेकुलरवाद का यूं तो जातिवाद से कोई लेना देना नहीं है। लेकिन कुछ लोग सेकुलर होने का लबादा ओढ़कर अल्पसंख्यकों के हितों की बात करते हैं दरअसल खुल्लमखुल्ला जातिवाद करते हैं जो दलितों के विकास में बाधक है। सेकुलर जातिवादी दरअसल स्वघोषित सेकुलर होता है जो सेकुलरवाद की आड़ में अपना मतलब पूरा करता है। लिहाजा सेकुलर जातिवाद और कुछ नहीं, एक धर्मनिरपेक्षतावादी का जातिवादी व्यवहार है। सेकुलर जातिवादी कई बार उदारवादी, प्रगतिशील और कई बार मार्क्सवादी होने का ढोंग करता है, लेकिन उसका छिपा हुआ एजेंडा होता है जातीय वर्चस्व को कायम रखना।

एक सेकुलरवादी, चाहे वो मार्क्सवादी हो या न हो, जरूरी नहीं है कि जातिवाद विरोधी होगा। कोई सेकुलरवादी व्यक्ति जातिवादी और सामंती भी हो सकता है। कोई सेकुलरवादी व्यक्ति काफी पढ़ा-लिखा और जाना माना बौद्धिक हो, इसका मतलब ये नहीं है कि वो जातिवाद विरोधी होगा। वह आकंठ जातिवादी, सामंती और अलोकतांत्रिक हो सकता है। वह देश के कानून और वंचित तबकों के लिए बनाए गए कानूनों और आरक्षण की धज्जियां उड़ा सकता है।
मिसाल के तौर पर किसी संस्थान का प्रमुख मार्क्सवादी या गैरमार्क्सवादी सेकुलर होते हुए वंचित तबकों के लिए बड़ी बड़ी बातें कर सकता है लेकिन साथ ही वो सामाजिक न्याय का दुश्मन भी हो सकता है। वह दिखावे के लिए उदार और प्रगतिशील हो सकता है, लेकिन वह न्याय के लिए कई दिनों से भूख हड़ताल कर रहे दलितों की जिंदगी के प्रति बेपरवाह हो सकता है। दलित शिक्षा से सदियों से वंचित रहे हैं। अंबेडकर की सीख को मानते हुए दलित हर कीमत पर शिक्षा हासिल करना चाहते हैं। शिक्षा के केंद्रों में प्रवेश के लिए दलित जान की बाजी लगाने के लिए तैयार रहते हैं। संस्थाओं में दाखिला पाने के लिए वो अपनी पूरी नैतिक और भौतिक ताकत के साथ जातिवादी शक्तियों से भिड़ जाते हैं। अगर संस्थान का प्रमुख सांप्रदायिक हो तो दलितों के लिए जातिवादी षड्यंत्र का पर्दाफाश करना आसान होता है। लेकिन अगर संस्थान का प्रमुख सेकुलरवादी हो तो दलितों के लिए उसके कामों से परदा उठाना मुश्किल होता है। कई संस्थाओं और खास कर केंद्रीय विश्वविद्यालयों में जातीय उत्पीड़न के मामलों के दबे रह जाने के पीछे ये भी एक बड़ी वजह है। ऐसा लगता है कि केंद्रीय विश्वविद्यालय सामाजिक न्याय विरोधी गतिविधियों के अड्डे बन गए हैं।

क्या आपने कभी सुना है कि किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय में किसी अल्पसंख्यक समूह के छात्रों के साथ भेदभाव किया गया है। क्या आपने सुना है कि किसी केंद्रीय विश्वविद्यालय में अल्पसंख्यक छात्र पीएचडी में दाखिले के लिए भूख हड़ताल पर बैठे हों। ऐसा हो भी सकता है और नहीं भी। लेकिन ये बात पक्के तौर पर कही जा सकती है कि सेकुलरवादियों के नेतृत्व में चल रहे कई केंद्रीय विश्वविद्यालयों में जाति आधारित भेदभाव के मामले सामने आते रहते हैं।
इसलिए एक सचेत दलित को अपने अधिकार और आत्मसम्मान के लिए सेकुलर जातिवादी से लड़ना पड़ता है। आम जनता की स्मृति से बाबा साहेब महापरिनिर्वाण दिवस की स्मृति को मिटाने के लिए सेकुलर जातिवादियों ने सांप्रदायिक जातिवादियों से हाथ मिला लिया है। ये प्रभुत्वशाली लोगों द्वारा जातीय श्रेष्ठता को फिर से स्थापित करने की कोशिश है और इससे दलित प्रतीकों और नारों के जरिए ही लड़ा जा सकता है।

दलित बुद्धिजीवियों के लिए 6 दिसंबर को फिर से अंबेडकर महापरिनिर्वाण दिवस के तौर पर स्थापित करने का कोई और उपाय नहीं है। महापरिनिर्वाण दिवस दलित गौरव और आत्मसम्मान का प्रतीक है। सेकुलर और कम्युनल दोनों ही, ग्राम्सी के शब्दों में कहें तो दलित बौद्धिकों को वार ऑफ पोजिशन (बौद्धिक गतिविधि) से वार ऑफ मूवमेंट (जन आंदोलन) की ओर धकेल रहे हैँ। ये विचारधारात्मक पक्षों का सांस्कृतिक संघर्ष है।
साभार जनतंत्र

कोई टिप्पणी नहीं:

अपना समय