♦ आवेश तिवारी
तिरुपति राव का नाम शायद आपमें से बहुत कम लोग जानते हों। दक्षिण के श्रेष्ठ विद्वानों में गिने जाने वाले तिरुपति राव हैदराबाद स्थित उस्मानिया विश्वविद्यालय के कुलपति हैं। ये वही राव हैं, जिनकी कार पर अभी कुछ ही दिनों पूर्व अलग तेलंगाना राज्य की मांग कर रहे तीन सौ छात्रों की भीड़ ने हमला कर दिया था। वो बाल बाल बचे थे। हालांकि इस हमले के महज छह घंटे के बाद उपद्रवी छात्रों के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराने के बजाय उन्होंने छात्रों के साथ बैठक की और कहा कि अपने आंदोलन को अहिंसक तरीके से चलाओ। कल जब गृह विभाग ने अपनी रिपोर्ट में विश्वविद्यालय को माओवादियों का केंद्र बताया, तो राव बुरी तरह से भड़क गये। उन्होंने कहा कि “यहां कोई नक्सली नहीं है। सब छात्र हैं। हो सकता है कुछ ऐसे छात्र रह रहे हों जो यहां नहीं पढ़ते। लेकिन ये सामान्य बात है। कुछ गरीब बच्चे यहां टिक जाते हैं। इसका मतलब क्या है, विश्वविद्यालय पर सेना चढाओगे।” ये बयान ठीक उसी वक्त आया, जब जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में माओवादियों की तथाकथित घुसपैठ की हवा उड़ाकर माहौल को गरम करने की कोशिश की जा रही थी। हालांकि इन दोनों विश्वविद्यालयों के कुलपतियों ने इस बेहद आपतिजनक आरोप पर अपने होंठ सी रखे थे। मानो कल को अगर पुलिस कोई मनमानी कार्यवाही करती है तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी।
पिछले दिनों जवाहर लाल नेहरु विश्विद्यालय के स्कॉलर चिंतन और फिर इलाहाबाद विश्वविद्यालय के पूर्व छात्र विश्वविजय और सीमा आजाद की गिरफ्तारी और उधर आंध्रप्रदेश और पश्चिम बंगाल में हिंसक आंदोलनों के बीच विश्वविद्यालय परिसरों को जिस प्रकार संदेह की नजर से देखा जा रहा है, वो अपने आप में बेहद भयावह और चिंताजनक है। राव राजनीति की समझ रखते हैं। राजनीति की साजिशों को समझते हैं। वो जानते हैं कि आंदोलनों के अंकगणित का उत्तर परिसर में ही मौजूद है और ये लोकतंत्र की जरूरत है। मगर वहां क्या होगा जहां कुलपति की कुर्सी सत्ता की चरण वंदना से हासिल की गयी हो और शर्त ये हो कि विरोध का कोई भी स्वर बेदखली की वजह बनेगा? निस्संदेह ऐसे में परिसर में असहमति को पनपने नहीं दिया जाएगा। वैचारिक स्वतंत्रता पर निरंतर प्रहार होंगे। वर्धा का उदाहरण हमारे सामने है, भले ही दृश्य अलग हैं।
लोकतंत्र में जब कभी सत्ता से असहमति प्रत्यक्ष रूप में दिखाई देती है, उस समय सबसे पहले उन संस्थाओं पर हमले होते हैं, जिनमें युवाओं का प्रतिनिधित्व होता है। तेलंगाना को लेकर आंध्र प्रदेश में उठा बवाल हो, उत्तर प्रदेश में सरकारी भ्रष्टाचार के खिलाफ अंदरखाने चल रही लहर हो या फिर उत्तर भारत के विभिन्न राज्यों में माओवादियों द्वारा अपनी पुरजोर उपस्थिति को लेकर की जा रही कवायद हो, इन सबका प्रतिकार शुरू हो चुका है। सीधे शब्दों में कहें तो आपरेशन ग्रीन हंट और विश्वविद्यालयों को नक्सलखाना साबित करने की साजिश में कोई बुनियादी फर्क नहीं है क्योंकि सरकार जानती है कि विरोध के स्वर या तो छात्रों की ओर से उठेंगे या फिर उनकी ओर से जिन्हें सिर्फ भूख, उपेक्षा और त्रासदी मिली है। विभिन्न विश्वविद्यालयों में छात्रसंघों पर प्रतिबंध लगाकर सत्ता ने अपनी साजिशों का पहला फेज बेहद कुशलता से पूरा कर लिया था। रही-सही कसर विश्वविद्यालय परिसरों को माओवादियों और अपराधियों का ठिकाना घोषित करके पूरी की जा रही है।
आइसा की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कविता कृष्णन कहती हैं, “छात्रसंघ चुनावों पर प्रतिबंध कैंपस में शांति और लोकतंत्र स्थापित करने के मकसद से नहीं बल्कि सत्ता द्वारा छात्र आंदोलन के दमन के उद्देश्य से लायी गयी थी। मौजूदा परिदृश्य इसका प्रमाण है।” ये स्थिति आपातकाल से भी अधिक लोकतंत्र विरोधी है। ये बेहद खतरनाक है कि सरकार अपनी इस साजिश में विश्वविद्यालय के प्रबंधन और उन शिक्षकों को भी शामिल किये हुए है, जिनके लिए छात्र सिर्फ भेड़-बकरियां हैं। इलाहाबाद विश्विद्यालय के वर्तमान कुलपति राजन हर्षे एक शिक्षाविद कम ब्यूरोक्रेट अधिक नजर आते हैं, तो जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय के कुलपति बीबी भट्टाचार्य के लिए जैसे-तैसे अपनी कुर्सी बचाये रखना ही इस वक्त का सबसे बड़ा काम है। आप इनसे क्या उम्मीद करेंगे?
ऐसा नहीं है कि सिर्फ तिरुपति राव ही देश के एकमात्र कुलपति हैं, जिन्होंने सत्ता की साजिशों पर आपति और छात्रों की लोकतांत्रिक लड़ाई पर अपनी सहमति जतायी है। हां ये जरूर है कि ऐसा आजाद इतिहास में बहुत कम हुआ है। 1985 के दौरान जब बिहार में जगन्नाथ मिश्र की सरकार थी, एनएन मिश्रा युनिवर्सिटी, दरभंगा और तिलकामांझी विश्वविद्यालय, भागलपुर में तत्कालीन कुलपतियों ने सरकार के व्यापक विरोध के बावजूद परिसर में छात्रसंघ चुनाव कराये और छात्रों को लोकतांत्रिक तरीके से आंदोलन करने की खुली छूट दे दी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय में 70 के दशक में अध्ययनरत छात्र अपने कुलपति कालू लाल श्रीमाली को नहीं भूले होंगे, जो छात्रसंघ अध्यक्ष कपूरिया की हत्या पर रो पड़े थे। जिनके काल में बीएचयू ने न सिर्फ सर्वाधिक प्रतिभाशाली छात्र देश को दिये बल्कि देश के सर्वाधिक महत्वपूर्ण छात्र आंदोलनों का भी गढ़ बना।
कहीं पढ़ा था, जहां शास्त्र और विश्वविद्यालय अपना काम नहीं करते वहां राजनीति अधिक स्वेच्छाचारी होती है। हमारे देश में दुखद ये है कि हमारे यहां के विश्वविद्यालय स्वायत्त हैं लेकिन स्वाधीन नहीं हैं। जबकि अन्य लोकतांत्रिक देशों में विश्वविद्यालय स्वाधीन और स्वायत्त दोनों होते हैं। निश्चित तौर पर ऐसी स्थिति में कुलपति से निरपेक्षता और सिर्फ छात्र हितों की उम्मीद नहीं की जा सकती। हमें विचार करना होगा कि देश के परिसरों को सत्ता की पराधीनता से कैसे मुक्त कराया जाए? सोशलिस्ट नेता किशन पटनायक कहते थे, अखबार या प्रचार माध्यम व्यापारिक संस्थाएं हैं। उनकी निगाहें सतही और तात्कालिक हो सकती हैं। व्यवस्था में सुधार का काम छात्रों और बौद्धिक वर्ग का है और ये काम उन्हें करना होगा। हो सकता है कि अगले कुछ दिनों में परिसरों के भीतर सेनाएं तैनात कर दी जाएं। शांत सड़कों, गलियों और घने जंगलों के बजाय छात्रावासों में पुलिस मुठभेड़ की कहानियां लिखी जाएं। ये भी हो सकता है कि विश्वविद्यालय का कुलपति छात्रों की सूची पुलिस को सौंप कर कहे, ये हैं माओवादी, इन्हें ले जाइए। ये भी संभव है कि गैरबराबरी का विरोध करने वाले देश के सारे लोग नक्सलवादी घोषित कर दिये जाएं। मगर इन तमाम संभावनों के बावजूद ये बेहद जरूरी है कि पूरे देश के छात्र इस साजिश के खिलाफ एकजुट हों और हल्ला बोलें। हाल की घटनाओं से ये स्पष्ट हो गया है कि छात्रों को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी। तिरुपति राव जैसे लोग देश में कम हैं
आवेश लखनऊ और इलाहाबाद से प्रकाशित हिंदी दैनिक डेली न्यूज़ एक्टिविस्ट में ब्यूरो प्रमुख। उनसे awesh29@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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