हाल ही में दिल्ली जामिया इस्लामिया विश्वविद्यालय के अंसारी आडोटेरियम में इस्लाम और प्राच्य धर्मों में दो दिवसीय अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन किया गया था। इसमें एक महत्वपूर्ण बात छनकर उभड़ी की भारत सहित दुनिया में सिर्फ मानवतावाद, मानवीय मूल्य और सहिष्णुता ही समन्वय स्थापित कर सकता है। गिरोहबन्दी झगड़ा कराता है,मजहबी नहीं। सम्मेलन को शुभारम्भ करते हुए उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने कहा कि हर धर्म मानवता को फायदा पहुंचाने,उनकी रक्षा करने को बताता है। हर धर्म में खून बहाना गलत बताया गया है। अमन चैन के लिए हर तरफ कार्य चल रहा है फिर भी दुनिया में बदअमनी और खूनखराबा बढ़ रहा है। यह धर्म की आड़ में हो रहा है। विशाल नागरिक सभा को सम्बोधित करते हुए मौलाना अरशद मदनी ने कहा कि आज हर तरफ फिरकापरस्ती और नफरत का माहौल बना हुआ है। इसको खत्म करने के लिए मोहब्बत और एकता की जरूरत है। जिस प्रकार से आग को आग से नहीं बुझाई जा सकती है उसी प्रकार नफरत को नफरत से नहीं बुझाई जा सकती है ।
स्वामी लक्ष्मी शरण आचार्य ने विभिन्न उद्धरणों के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वेद,गीता कुरआन और हदीस में अलग-अलग तरीके से एक ही बात कही गयी है। इस पर सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब दोनों के ग्रन्थों में एक ही बातें कही गयी है तो दोनों धर्मों के अनुयायी आपस में झगड़ा और फसाद क्यों करते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय अर्न्तसंवाद में मुझे भी अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। मेरा स्पष्ट रूप से कहना था कि हिन्दू धर्म का आधार बिन्दु न तो वेद है, न पुराण और न तो गीता है। इस धर्म की परम्परा में आस्तिक और नास्तिक दोनों प्रकार के ऋषि हुए हैं। यह धर्म जीवन्त है क्योंकि देश काल परिस्थितियों के अनुसार हम पुराने सत्य को छोड़कर नये सत्य को ग्रहण भी करते हैं। यह धर्म नये सत्य को स्वीकार करता है। यह धर्म जड़ नहीं है। ऋग्वेद में साथ-साथ चलने,साथ-साथ उपभोग करने तथा साथ-साथ पराक्रम करने की सलाह दी गयी है। इसमें हिन्दू मुसलमान या अन्य धर्मों के प्रतिविभेद की बात नहीं कही गयी है। बावजूद हम मौके बे मौके नफरत फैलाकर तुच्छ स्वार्थ की पूर्ति करने को उद्वत हो जाते हैं। गीता में समत्व को योग कहा गया, जोड़ने को योग कहा गया है फिर भी हम साम्राज्यवादियों के हाथ में खिलौना बनकर असमानता फैलाने को मशगूल है। मानव-मानव को जोड़ने वालों को योगी कहा जाता है परन्तु जो खोपड़ी सफाचट करके कानों में कुण्डल लटकाकर गेरूआ वस्त्र पहनकर हिन्दू मुसलमानों के बीच झगड़ा करा रहा है। दंगा करा रहा है नफरत का बीज बो रहा है उसे हम योगी कहते नहीं थक रहे हैं। सही अर्थों में इन्हें तोड़ी कहा जाना चाहिए था। मैने स्पष्ट किया था कि धर्म और मजहब झगड़ा नहीं कराता है बल्कि विभिन्न धर्मों के नाम पर गिरोहबन्दी ही झगड़ा के मुख्य कारण हैं। यह गिरोहबन्दी इन्सान की पहचान को तिरोहित कर दिया है। समाज में हिन्दुओं की कमी नहीं है, मुसलमानों की कमी नहीं है कमी हो गयी है तो सिर्फ मनुष्य की,इन्सान की। इन्सानियत के पहचान को ऊपर रखना होगा। मजहबी पहचान से धर्म भी दूषित हो जा रहा है। इस पहचान ने गिरोहबन्दी ने श्रम की महत्ता को कमजोर कर दिया है। सन् 1992 मे बाबरी मस्जिद को ध्वस्त। हिन्दू धर्म ने नहीं अपितु धर्म की पहचान ने कराया था। अभी हाल ही में बरेली में दंगे हिन्दू धर्म या इस्लाम नहीं कराया बल्कि धार्मिक पहचान ने कराया था। इस गिरोहबन्दी को हमें एक सिरे से निषेध कर प्राकृतिक सोच को विकसित करने की जरूरत है। मजहबी गिरोहबन्दी हमें अपने ही धर्म के मानवीय पक्ष को समझने नहीं देता। दूसरे धर्म के अच्छाइयों पर पर्दा डालता है।
इस्लाम और प्राचीन धर्मों के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में डॉ0 जे.के.जैन सहित कई जैन धर्म के कई अनुयायियों ने अपना वकतव्य दिया। उन्हें इस बात का गर्व था कि हमारा धर्म का मुख्य सोच है स्याद्वाद और अहिंसावाद। उनका कहना था कि हमारा धर्म नास्तिक धर्म है। मानवता को प्रमुख तो मानते ही हैं हम किसी भी जीवजन्तु या जानवरों के हिंसा के विरोधी हैं। यही कारण है कि हमारे मुनि लोग मुंह पर पट्टी बांधे रहते हैं ताकि किसी जीव की मुंह में प्रवेश करने पर हत्या न हो जाये।
तार्किक या मानवीय दृष्टिकोण दोनांे से की जैन धर्म संवेदना को समझा जा सकता है। यह धर्म सबको जीने का हक देता है। सच्चाई भी यही है कि पंचमहाभूत से मेरा भी सभी मनुष्यों का और जानवरों का भी शरीर बना है। सबको सुख दुख होता है। सबको जीने की ललक बनी रहती है। ऐसी हालत में किसी की भी हत्या को जायज नहीं ठहराया जा सकता। अचम्भा तो तब होता है जब बाबरी मस्जिद तोड़ी जाती है,मुसलमानों को कत्लेआम किया जाता है। फर्जी तौर पर मुस्लिम युवकों को आतंकवाद में जेल के सीखचों में सड़ने के लिए डाल दिया जाता है जैन मुनि लोगों को ऐसे मानव संहार के क्षण में अपनी पट्टी को खोल देना चाहिए था। आज तक विभिन्न दंगो की घटना पर इनकी आवाज पढ़ने को नहीं मिली। बल्कि गुजरात मुस्लिम संहार में उस धर्म के लोग शामिल पाये गये।
बीते 20 व 21 फरवरी 2010 को इस्लाम और अन्य धर्मों के बीच अर्न्तसंवाद का वृहद आयोजन खास मकसद के लिए था। अनेक धर्मों के बीच अब तक जो संवाद होते आये हैं वे इस्लाम यहूदी, ईसाई धर्मों के अनुयायियों के बीच ही हुए हैं। यह आयोजन पूर्वी धर्मों के बीच संवाद स्थापित करने केलिए था। ताकि मुसलमान अन्य पूर्वी धर्मावलम्बियों के साथ आपसी समझदारी सहनशीलता,अमन व शान्ति और मेलमिलाप की भावना के साथ जीवन यापन कर सकें। आयोजन में भारत सहित नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान अरब, थाइलैण्ड,मारीशस आदि देशों के इस्लाम, जैन,बौद्ध धर्मों के विद्वान और आचार्यों ने अपनी बात को रखा। पाकिस्तान के पर्लिअमेंट मेम्बर डॉ0 आरेश कुमार, डॉ0 एम.डी.नालपत कतर से आये हुए सैय्यद अली शाह गिलानी आदि ने अपने -अपने धर्मों के अनुसार मानवीय पक्षको इस सम्मेलन मे रखा।
अर्न्तराष्ट्रीय सम्मेलन के विभिन्न धर्मों के गुरूओं के भाषणों की समीक्षा की जावे तो निश्चय ही एक सकारात्मक संदेश प्राप्त होता है। परन्तु उनके कथनी और करनी के फर्क में तमाम लोगों को नये सिरे से सोचने को मजबूर भी किया है। वे मंच पर धर्म की चर्चा करते हैं और नीचे आने पर गिरोहबन्दी और अपने मजहबी पहचान के खेमे बनाने लगते हैं। कंधमाल में जब हिन्दू कट्टरपंथियों ने ईसाइयों का संहार करना प्रारम्भ कर दिया तो अन्य धर्मों के लेाग अपने गिरोह के साथ मौज ले रहे थे। जब गुजरात और मुम्बई में मुसलमानों का संहार किया जाने लगा तो बौद्ध जैन और सिक्ख अपने गिरोह के साथ खुश थे कि चलों हम तो कुशल से हैं। उस समय उनकी इन्सानियत मजहबी पहचान और गिरोहबन्दी के जबड़े में समा जाता है।
मजहब और जाति के नाम पर गिरोहबन्दी स्वयं अपने ही धर्म से दूर कर देता है। वह आपातकालीन स्थिति में धर्म की बात नहीं सोचता,इंसानियत की बात नहीं सोचता, व सत्य के मार्ग पर नहीं चलकर सिर्फ अपने गिरोह की चिन्ता करता है।
अल्पसंख्यकों के धर्म गुरू बहुसंख्यकों साम्प्रदाकिता का कारक तत्व पहचान है,गिरोहबन्दी है,धर्म और मजहब नहंी। धर्म को तो ढाल और हथकण्डे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। प्रशासन और मीडिया से भय दिखाकर गिरोहबन्दी करते है। इसे दूर करने के लिए बहुसंख्यकों को ही पहल करना होगा। अपनी गिरोहबन्दी को खत्म करना होगा। प्रशासनिक व्यवस्था को ठीक कर भेदभाव विहीन बनाना होगा तभी हम सभ्य समाज की संकल्पना का स्वरूप दे पायेंगे।
अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन की उपयोगिता पहले भी थी और आज भी है। ऐसा सम्मेलन बारम्बार आयोजित करने की जरूरत है। इससे परस्पर संवाद कायम होगा और मानवीय विचार उभरेंगे । इससे नैसर्गिक पहचान को मजबूती मिलेगी और कृत्रिमपहचान कमजोर होगी।
लेखक सरयू कुञ्ज अयोध्या के महंत है
स्वामी लक्ष्मी शरण आचार्य ने विभिन्न उद्धरणों के माध्यम से यह सिद्ध करने का प्रयास किया कि वेद,गीता कुरआन और हदीस में अलग-अलग तरीके से एक ही बात कही गयी है। इस पर सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब दोनों के ग्रन्थों में एक ही बातें कही गयी है तो दोनों धर्मों के अनुयायी आपस में झगड़ा और फसाद क्यों करते हैं।
अन्तर्राष्ट्रीय अर्न्तसंवाद में मुझे भी अतिथि के रूप में आमंत्रित किया गया था। मेरा स्पष्ट रूप से कहना था कि हिन्दू धर्म का आधार बिन्दु न तो वेद है, न पुराण और न तो गीता है। इस धर्म की परम्परा में आस्तिक और नास्तिक दोनों प्रकार के ऋषि हुए हैं। यह धर्म जीवन्त है क्योंकि देश काल परिस्थितियों के अनुसार हम पुराने सत्य को छोड़कर नये सत्य को ग्रहण भी करते हैं। यह धर्म नये सत्य को स्वीकार करता है। यह धर्म जड़ नहीं है। ऋग्वेद में साथ-साथ चलने,साथ-साथ उपभोग करने तथा साथ-साथ पराक्रम करने की सलाह दी गयी है। इसमें हिन्दू मुसलमान या अन्य धर्मों के प्रतिविभेद की बात नहीं कही गयी है। बावजूद हम मौके बे मौके नफरत फैलाकर तुच्छ स्वार्थ की पूर्ति करने को उद्वत हो जाते हैं। गीता में समत्व को योग कहा गया, जोड़ने को योग कहा गया है फिर भी हम साम्राज्यवादियों के हाथ में खिलौना बनकर असमानता फैलाने को मशगूल है। मानव-मानव को जोड़ने वालों को योगी कहा जाता है परन्तु जो खोपड़ी सफाचट करके कानों में कुण्डल लटकाकर गेरूआ वस्त्र पहनकर हिन्दू मुसलमानों के बीच झगड़ा करा रहा है। दंगा करा रहा है नफरत का बीज बो रहा है उसे हम योगी कहते नहीं थक रहे हैं। सही अर्थों में इन्हें तोड़ी कहा जाना चाहिए था। मैने स्पष्ट किया था कि धर्म और मजहब झगड़ा नहीं कराता है बल्कि विभिन्न धर्मों के नाम पर गिरोहबन्दी ही झगड़ा के मुख्य कारण हैं। यह गिरोहबन्दी इन्सान की पहचान को तिरोहित कर दिया है। समाज में हिन्दुओं की कमी नहीं है, मुसलमानों की कमी नहीं है कमी हो गयी है तो सिर्फ मनुष्य की,इन्सान की। इन्सानियत के पहचान को ऊपर रखना होगा। मजहबी पहचान से धर्म भी दूषित हो जा रहा है। इस पहचान ने गिरोहबन्दी ने श्रम की महत्ता को कमजोर कर दिया है। सन् 1992 मे बाबरी मस्जिद को ध्वस्त। हिन्दू धर्म ने नहीं अपितु धर्म की पहचान ने कराया था। अभी हाल ही में बरेली में दंगे हिन्दू धर्म या इस्लाम नहीं कराया बल्कि धार्मिक पहचान ने कराया था। इस गिरोहबन्दी को हमें एक सिरे से निषेध कर प्राकृतिक सोच को विकसित करने की जरूरत है। मजहबी गिरोहबन्दी हमें अपने ही धर्म के मानवीय पक्ष को समझने नहीं देता। दूसरे धर्म के अच्छाइयों पर पर्दा डालता है।
इस्लाम और प्राचीन धर्मों के अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में डॉ0 जे.के.जैन सहित कई जैन धर्म के कई अनुयायियों ने अपना वकतव्य दिया। उन्हें इस बात का गर्व था कि हमारा धर्म का मुख्य सोच है स्याद्वाद और अहिंसावाद। उनका कहना था कि हमारा धर्म नास्तिक धर्म है। मानवता को प्रमुख तो मानते ही हैं हम किसी भी जीवजन्तु या जानवरों के हिंसा के विरोधी हैं। यही कारण है कि हमारे मुनि लोग मुंह पर पट्टी बांधे रहते हैं ताकि किसी जीव की मुंह में प्रवेश करने पर हत्या न हो जाये।
तार्किक या मानवीय दृष्टिकोण दोनांे से की जैन धर्म संवेदना को समझा जा सकता है। यह धर्म सबको जीने का हक देता है। सच्चाई भी यही है कि पंचमहाभूत से मेरा भी सभी मनुष्यों का और जानवरों का भी शरीर बना है। सबको सुख दुख होता है। सबको जीने की ललक बनी रहती है। ऐसी हालत में किसी की भी हत्या को जायज नहीं ठहराया जा सकता। अचम्भा तो तब होता है जब बाबरी मस्जिद तोड़ी जाती है,मुसलमानों को कत्लेआम किया जाता है। फर्जी तौर पर मुस्लिम युवकों को आतंकवाद में जेल के सीखचों में सड़ने के लिए डाल दिया जाता है जैन मुनि लोगों को ऐसे मानव संहार के क्षण में अपनी पट्टी को खोल देना चाहिए था। आज तक विभिन्न दंगो की घटना पर इनकी आवाज पढ़ने को नहीं मिली। बल्कि गुजरात मुस्लिम संहार में उस धर्म के लोग शामिल पाये गये।
बीते 20 व 21 फरवरी 2010 को इस्लाम और अन्य धर्मों के बीच अर्न्तसंवाद का वृहद आयोजन खास मकसद के लिए था। अनेक धर्मों के बीच अब तक जो संवाद होते आये हैं वे इस्लाम यहूदी, ईसाई धर्मों के अनुयायियों के बीच ही हुए हैं। यह आयोजन पूर्वी धर्मों के बीच संवाद स्थापित करने केलिए था। ताकि मुसलमान अन्य पूर्वी धर्मावलम्बियों के साथ आपसी समझदारी सहनशीलता,अमन व शान्ति और मेलमिलाप की भावना के साथ जीवन यापन कर सकें। आयोजन में भारत सहित नेपाल, श्रीलंका, पाकिस्तान अरब, थाइलैण्ड,मारीशस आदि देशों के इस्लाम, जैन,बौद्ध धर्मों के विद्वान और आचार्यों ने अपनी बात को रखा। पाकिस्तान के पर्लिअमेंट मेम्बर डॉ0 आरेश कुमार, डॉ0 एम.डी.नालपत कतर से आये हुए सैय्यद अली शाह गिलानी आदि ने अपने -अपने धर्मों के अनुसार मानवीय पक्षको इस सम्मेलन मे रखा।
अर्न्तराष्ट्रीय सम्मेलन के विभिन्न धर्मों के गुरूओं के भाषणों की समीक्षा की जावे तो निश्चय ही एक सकारात्मक संदेश प्राप्त होता है। परन्तु उनके कथनी और करनी के फर्क में तमाम लोगों को नये सिरे से सोचने को मजबूर भी किया है। वे मंच पर धर्म की चर्चा करते हैं और नीचे आने पर गिरोहबन्दी और अपने मजहबी पहचान के खेमे बनाने लगते हैं। कंधमाल में जब हिन्दू कट्टरपंथियों ने ईसाइयों का संहार करना प्रारम्भ कर दिया तो अन्य धर्मों के लेाग अपने गिरोह के साथ मौज ले रहे थे। जब गुजरात और मुम्बई में मुसलमानों का संहार किया जाने लगा तो बौद्ध जैन और सिक्ख अपने गिरोह के साथ खुश थे कि चलों हम तो कुशल से हैं। उस समय उनकी इन्सानियत मजहबी पहचान और गिरोहबन्दी के जबड़े में समा जाता है।
मजहब और जाति के नाम पर गिरोहबन्दी स्वयं अपने ही धर्म से दूर कर देता है। वह आपातकालीन स्थिति में धर्म की बात नहीं सोचता,इंसानियत की बात नहीं सोचता, व सत्य के मार्ग पर नहीं चलकर सिर्फ अपने गिरोह की चिन्ता करता है।
अल्पसंख्यकों के धर्म गुरू बहुसंख्यकों साम्प्रदाकिता का कारक तत्व पहचान है,गिरोहबन्दी है,धर्म और मजहब नहंी। धर्म को तो ढाल और हथकण्डे के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। प्रशासन और मीडिया से भय दिखाकर गिरोहबन्दी करते है। इसे दूर करने के लिए बहुसंख्यकों को ही पहल करना होगा। अपनी गिरोहबन्दी को खत्म करना होगा। प्रशासनिक व्यवस्था को ठीक कर भेदभाव विहीन बनाना होगा तभी हम सभ्य समाज की संकल्पना का स्वरूप दे पायेंगे।
अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन की उपयोगिता पहले भी थी और आज भी है। ऐसा सम्मेलन बारम्बार आयोजित करने की जरूरत है। इससे परस्पर संवाद कायम होगा और मानवीय विचार उभरेंगे । इससे नैसर्गिक पहचान को मजबूती मिलेगी और कृत्रिमपहचान कमजोर होगी।
लेखक सरयू कुञ्ज अयोध्या के महंत है
मो0 9451730269
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