14 मार्च 2010

सरकार बुद्धिजीवियो से क्यों डरती है

शाहनवाज आलम
पिछले दिनों सर्वोच्च न्यायालय ने एक आश्चर्यजनक निर्देश सुनाते हुए हैदराबाद के उसमानिया विश्वविद्यालय में तैनात सेना को हटाने से इंकार कर दिया। सर्वोच्च न्यायलय का राज्य सरकार की तरह ही मानना है कि विश्वविद्यालय मंे माओवादियों ने छात्रों के वेश में एडमिशन ले लिया है। इसलिए उनकी गतिविधियों पर नजर रखने के लिए वहां सेना की तैनाती जरुरी है। जबकि दूसरी ओर विश्वविद्यालय के कुलपति का साफ कहना है कि विश्वविद्यालय में कोइ माओवादी नहीं है। और ना ही वहां सेना की जरु़रत है। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्देश आश्चर्यजनक इसलिए है कि, अव्वल तो कानूनी तौर पर ‘माओवादी कौन है या माओवादी साहित्य क्या है’ इसकी कोइ व्याख्या नहीं है। इसलिए ऐसे किसी भी फैसले से पहले कानूनन यह जरुरी था कि माओवादी की व्याख्या होती। बिना इसके अगर कोर्ट ऐसे निर्देश देती है तो इसका मतलब यही है कि कोर्ट माओवादी की पुलिसिया व्याख्या को ही कानूनी जामा पहना रही है। दूसरे, कि अगर कथित माओवादी विचार वाले छात्रों ने वहां ऐडमिशन लिया भी है तो प्रवेश परीक्षा पास करके ही लिया होगा। ऐसे में अगर उनपर नजर रखने के नाम पर वहां सेना लगाइ जाती है तो ये उन छात्रों के मौलिक अधिकार की ‘किसी के साथ उसके विचार के कारण भेद भाव नहीं किया जा सकता’ का भी उल्लंघन है। इस तरह सर्वाेच्च न्यायालय के निर्देश पर संवैधानिक नजरिए से भी सवाल उठते हैं। कोर्ट के इस निर्देश को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी चिदम्बरम के इस बयान से जोड़कर ही समझना होगा जिसमें वे लगातार बुद्धिजीवियों से माओवाद का समर्थन करने से बाज आने की चेतावनी देते रहे हैं। दरअसल भारतीय राज्य और शासक वर्ग माओवाद के खिलाफ भले ही लॉ एण्ड ऑर्डर बहाल करने के नाम पर हमलावर हो लेकिन उसकी आड़ में तेजी से अपनी वैधता खोता जा रहा राज्य अपने अस्तित्व को वैध ठहराने का वैचारिक जंग लड रहा है। और इस लड़ाई में वो बुद्धिजीवी समाज को अपना सबसे बडा दुश्मन समझता है। इसीलिए वो बौद्धिक विचार विमर्शों के विश्वविद्यालय जैसे अड्डों को छावनी में तब्दील करने का लगातार बहाना ढूंढता रहता है। दरअसल, नक्सलवाद और माओवाद की आड़ में विश्वविद्यालयों की संप्रभुता पर हमला नया नहीं है। 60 और 70 के दशक में भी जब यह आंदोलन अपने उरूज पर था तब भी पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यायालयों के हजारों छात्रों, शिक्षकों और बुद्धिजीवियों का दमन तत्कालीन सरकार ने इसी तर्क के आड़ में किया था कि ये लोग राज्य व्यवस्था को वैचारिक चुनैती दे रहे हैं। दरअसल हमारे शासक वर्ग का जनता पर शासन करने का नैतिक और वैचारिक आधार इतना कमजोर है कि वह हमेशा उसके दरक जाने के खतरे से डरा रहता है। खास तौर से उन हलकों से उठ रहे सवालों से जिसको वो खुद उठा कर सत्ता तक पहुंचा होता है। मसलन, कांग्रेस अगर अपना ‘हाथ गरीबों के साथ’ होने का भरोसा दे कर सत्ता में पहुंची है तो उसे सबसे ज्यादा डर भी गरीब तबके की तरफ से ही उठने वाले सवालों से लगना स्वाभाविक है। इसलिए वो ऐसे किसी भी आवाज को माओवादी बताकर दमन करने पर उतारु है। कांग्रेस इस तबके से उठ रहे सवालों से तो इतना डरी हुयी है कि बार बार मानवीय चेहरे के साथ विकास की बात दोहराने वाली सरकार ने इस डर से निजात के लिए अपने कथित मानवीय नकाब तक को उतार कर खूंखार जंगली जानवरों का चेहरा ओढ लिया है। ऑपरेशन ग्रे हाउंड;भूरा शिकारी कुत्ताद्ध ऑपरेशन कोबरा, स्कॉर्पियन ;बिच्छूद्ध ग्रीन हन्ट हाउंड ;हरा शिकारद्ध जैसे अभियानों के नामकरण से इसे समझा जा सकता है। ठीक इसी तरह भाजपा भी जो मुस्लिम विरोधी साम्प्रदायिक उन्माद पर सवार हो कर सत्ता में पहुंची थी, ने उन तमाम विचारों को जो उसकी संर्कीणता को चुनौती देती थीं, आतंकवादी और राष्ट्विरोधी घोषित कर दमन करने पर उतारु थी। जिसके तहत चुन-चुन कर उन बुद्धिजीवियों, कलाकारों और उनके संस्थानों पर हमले हुए। मनमोहन सिंह चिदम्बरम की तरह ही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवानी ने भी इन बुद्धिजीवीयों से आतंकवादी और राष्ट्विरोधी तत्वों का विरोध कर अपनी राष्ट्भक्ति साबित करने का फरमान जारी कर दिया था। इसलिए अगर सरकारें बुद्धिजीवियों या उनके संस्थानों पर हमलावर होती हैं तो मामला सिर्फ अराजकता की रोकथाम का नहीं बल्कि अपनी वैधता पर उठ रहे सवालों के दमन का है। दरअसल कोइ भी सत्ता चाहे जैसी हो उसके बने रहने के लिए तर्क और विचार सबसे अहम होता है। इसलिए हम देखते हैं कि जहां बुद्धिजीवीयांे की एक जमात का दमन किया जा रहा है तो ठीक उसके साथ-साथ दूसरे तरह के बुद्धिजीवी सरकारी गोबर-माटी से पनपाए भी जा रहे हैं। अखबारोें के सम्पादकीय पन्नों से गम्भीर विश्लेषकों का दुर्लभ होते जाना और उनकी जगह कथित रक्षा विशेषज्ञों का कुकुरमुत्तों की तरह उग आना इसी का नजीर है या इसी तरह विश्वविद्यालयों में अराजकता के नाम पर छात्रसंघों की राजनीति को प्रतिबंधित करना और उसी के समानांतर कागें्रस के राजकुमार का विश्वविद्यालयों के परिसरों में व्याख्यान आयोजित करना। या पूर्ववर्ती भाजपा शासन में बीएचयू के भंग छात्रसंघ भवन में दस दिवसीय आसाराम बापू का रामकथा आयोजित कराना, अपनी-अपनी सत्ता को वैचारिक वैधता देने की ही कोशिशें हैं। बहरहाल, विचारों पर इस दमन का सबसे दुखद पहलू यह है कि ऐसे मुद्दों पर जहां पहले बुद्धिजीवीयों के साथ सत्ता विरोधी राजनीतिक दल और नेता भी खडे़ होते थे वहीं पिछले दो दशकों से पक्ष-विपक्ष में नीतिगत फर्क के लुप्त होते जाने के चलते राज दमन के सामने बुद्धिजीवी अकेले पड़ गए हैं। क्या यह किसी भी स्वस्थ और गतिशील लोकतन्त्र के लिए खतरनाक संकेत नहीं है कि पिछले दो दशकों से बुद्धिजीवीयों के अलावा किसी भी राजनैतिक दल या उसके नेता को अपने सत्ता विरोधी विचारों या वैकल्पिक नीतियों के चलते राज दमन नहीं झेलना पडा। और वह भी तब जब इसी दौरान दो लाख किसानों ने आत्महत्याएं की हों और सत्ता पक्ष के अर्थशास्त्रियों द्वारा ही यह बताया जा रहा हो कि 84 प्रतिशत लोग 20 रुपए रोजाना से भी कम पर जी रहें हैं। जबकि एक समय था जब जनविरोधी नीतियों और सरकारी दमन के खिलाफ बुद्धिजीवीयों और विपक्षी नेताओं से देश भर की जेलें पटी पड़ी रहती थीं। दरअसल पक्ष-विपक्ष में नीतीगत भेद मिटा कर राजनीतिक लोकतंत्र को अपना चाकर बनाना कॉर्पाेरेट पूंजीवाद का पहला लक्ष्य था। जिसमें दो दशक से भी कम समय में वह सफल हो गया। अब दूसरे चरण में उसकी जरुरत इस स्थिति को वैधता दिलाने की है। जिसके लिए उसका विचारों के लोकतंत्र पर हमलावर होना जरुरी है। अगर मनमोहन सिंह और पी चिदम्बरम बुद्धिजीवीयों को बार-बार बाज आने की चेतावनी देते हैं तो वो यूॅं ही नहीं है। वे सचमुच ऐसा कर के दिखाएंगे । क्योंकि उनकी जवाबदेही जनता के बजाए वॉलर्माट, वेदान्ता और मॉन्सैन्टो के प्रति है, और अब तो न्यायपालिका का तराजू भी तेजी से उनके पक्ष में झुकता जा रहा है।
शाहनवाज आलम स्वतंत्र पत्रकार हैं

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