हरेराम मिश्र
शाकाहारियों के एक प्रमुख भोजन के रूप में प्रयोग की जाने वाली आलू के किसान आज अजीब परेशानी का सामना कर रहे हैं। भारत में उत्तर प्रदेश आलू के उत्पादन में एक प्रमुख स्थान रखता है। मौसम की मार के बाद अब आलू किसानों के सामने बाजार में अच्छे भाव न मिलने की समस्या उत्पन्न हो गई है। उत्तर प्रदेश कृषि विभाग का मानना है कि उत्तर प्रदेश में आलू के बीजों में जबर्दस्त महंगाई के बावजूद एक संतोषजनक क्षेत्रफल में आलू की खेती की गई है। यह बात और है कि जाड़े में लगातार ज्यादा दिनों तक पाला पड़ने के बावजूद भी आलू का औसत उत्पादन ठीक रह सकता है। यही कारण है कि कृषि विभाग के अधिकारी उत्तर प्रदेश में आलू जैसी खाद्य फसल की उपलब्धता पर बेफ्रिक नजर आ रहे हैं। लेकिन आलू के उत्पादक किसान आज बड़े आक्रोश में हैं। उनकी शिकायत की मुख्य वजह आलू का सही बाजार भाव न होना है। किसानों का आरोप है कि सरकार जमाखोरों को फायदा पहुंचाने की नियत से आलू के थोक बाजार भाव में दखल नहीं दे रही है। प्रतापगढ़ लाल गोपालगंज के आलू उत्पादक किसान रामधन अपनी समस्या गिनाते हुए कहते हैं कि तत्काल में स्टोर में रखने लायक पकी आलू की फसल तैयार हो गई है। लेकिन बाजार भाव 300-350 रुपए प्रति कुन्तल है। इस मूल्य पर अगर आलू बेचे तो कोई खास लाभ नहीं होता। वहीं के एक दूसरे किसान नंदूलाल बताते हैं कि जब आलू बोया था तो बीज 1700 रुपए कुन्तल था, और जब आलू तैयार हो गया तब 300 रुपए प्रति कुन्तल ? हमने डीएपी 700 रुपए प्रति बोरी खरीदी। अब अगर सब जोड़ लें तो लाभ न के बराबर है। किसानों की एक और बड़ी समस्या यह है कि कुल उत्पादित आलू को स्टोर में नहीं रख सकते। बकौल नंदूलाल दवा व यूरिया कर्ज लेकर डाला है। सो आलू बेच कर ही उसे चुकाना है, अन्य कोई रास्ता ही नहीं है। गौरतलब है कि आज आलू की खेती के मामले में उत्तर प्रदेश आत्मनिर्भर हो चुका है। लेकिन सरकार की घटिया व उपेक्षित कृषि नीति के चलते अगर आलू उत्पादक किसान आलू की जगह कोई अन्य खेती को अपनाते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। किसानों का मानना है कि पहले हाड़तोड़ मेहनत कर उत्पादन करिए, फिर अच्छे मूल्य के लिए धरना प्रदर्शन करिए। अब भारतीय किसानों की यही नियति है। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में अर्थव्यवस्था में खेती का कुल योगदान केवल 17 फिसदी पर सिमट कर रह गया है। जो हर वर्ष घटता जा रहा है। इसका एक बड़ा कारण कृषि क्षेत्र की उपेक्षा है। उदारीकरण से लेकर आज तक किसानों की आय बढ़ाने की कोई सार्थक पहल नहीं हुई। यहां तक की किसानों को लाभप्रद समर्थन मूल्य के लिए भी प्रदर्शन करना पड़ा है। आलू जैसी जनसामान्य के प्रयोग की चीजों के लिए अच्छा बाजार भाव न आना इस बात की तस्दीक है कि सरकार किसी भी स्तर पर यह नहीं चाहती कि आलू किसान लाभ कमाए। विशेषज्ञों का मानना है कि आलू से चिप्स व अन्य फास्टफूड बनाने वाली बहुराष्ट्ीय कम्पनियां अपनी जड़े भारत में जमा चुकी हैं, और यही वह सीजन है जब वे कच्चे माल के स्टॉक को फुल करने के लिए बाजार का रुख करती हैं, इसलिए एक साजिश के तहत सरकार आलू की तरफ से उदासी का रूख अपनाए हुए है। सामाजिक कार्यकर्ता व पत्रकार राजीव यादव आलू किसानों की दुर्दशा के लिए सरकार को आड़े हाथों लेते हैं। वह पूछते हैं कि जब सारी जरूरी चीजों के भाव आसामान छू रहे हों तब आलू मिट्टी के भाव क्यों? वो बताते हैं कि सरकार की मंशा बिचौलियों व जमाखोरों को लाभ पहुंचाने की है। आलू के रेट तबतक नहीं बढ़ेंगे जब तक बिचौलियों व मुनाफाखोरों के कोटे नहीं भर जाएंगे। चूंकि सरकार को अपने वोट बैंक और चुनाव में चंदा देने वालों की फिक्र है। इसलिए किसी खास वर्ग को लाभ पहुंचाने के लिए सरकार किसी भी स्तर तक आलू उत्पादक किसानों का गला काट सकती है। सरकार द्वारा हालिया दिनों में लिए गए कुछ फैसलों ने इस बात को और अधिक बल दिया कि आने वाले दिनों में कृषि से जुड़े लोगों की मुश्किलें और बढ़ने वाली हैं। केन्द्र सरकार ने जहां एक ओर सर्वाधिक प्रयोग होने वाली खाद यूरिया के खुदारा मूल्य में दस प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी है, वहीं रासायनिक उर्वरक बनाने वाली कम्पनियों को उनकी कीमत तय करने की छूट दे दी है। इस फैसले से जहां एक ओर प्रति किलो उत्पादन लागत को बढ़ाएगी वहीं दूसरी ओर उचित समर्थन मूल्य के अभाव में किसान उत्पादित फसल को आधे-अधूरे दामों में बेचने को बाघ्य होंगे। नतीजा खेती से पलायन बढ़ेगा और हमारी खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी। लेकिन सरकारी रवैया यह दिखाता है कि सरकार इस ओर बिल्कुल भी गंभीर नहीं है। यही कारण है कि सरकार ने आलू उत्पादक किसानों को बाजारू ताकतों के रहमों करम पर छोड़ दिया है।
हरेराम मिश्र स्वतंत्र पत्रकार हैं और जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) से जुड़े हैं.संपर्क - mishrahareram1@gmail.com
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