22 अप्रैल 2010

फर्जी मुठभेड़ों से उपजे जख्म और उन पर मुआवजे का मरहम

हरेराम मिश्रा
तेइस जुलाई 2003 को अमृतसर के एक रिक्शा चालक मोहन लाल को जम्मू कश्मीर पुलिस ने पूछताछ करने के लिए अमृतसर से उठाया। पूछताछ करने के दौरान पुलिस लाइन में उसकी मौत हो गई। जम्मू मेडिकल कॉलेज में मोहनलाल के शरीर का पोस्टमार्ट्म हुआ और शरीर पर चोटों के चौदह गहरे निशान मिले। परिजनों के विरोध के बाद अमृतसर में पुःन पोस्टमार्ट्म हुआ। रिपोर्ट में गहरी चोटों के 41 निशान मिले। मोहन लाल को हिरासत में बिजली के शॉट भी दिए गए थे। सामाजिक कार्यकर्ता सुहास चाकमा ने मानवाधिकार आयोग में शिकायत की। मानवाधिकार आयोग ने राज्य सरकार को अपना पक्ष रखने के लिए नोटिस दिया। लेकिन सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया। मानवाधिकार आयोग ने जम्मू कश्मीार सरकार को पीड़ित पक्ष को पांच लाख रुपए मुआवजा देने के निर्देश दिया। लेकिन आरोपी पुलिसकर्मी कहां हैं, इसकी कोई जानकारी उपलब्ध नहीं हैं।
प्रभात सिंह पुत्र लल्लन प्रसाद निवासी मेराल गढ़वा झारखण्ड को उत्तर प्रदेश पुलिस ने झारोखास रेलवे स्टेशन से अपह्त कर लिया। वह ट्ेन से बीजापुर जा रहा था। प्रभात की लाश जंगल से बरामद हुई। पुलिस का तर्क था कि यह युवक उन बस लुटेरों में था, जिन्होंने बस को लूटा था और यह अपने साथियों सहित पुलिस से बचने के लिए जंगल में छिपे थे। पुलिस पार्टी के ललकारने पर इन्होंने पुलिस पर फायर किए और पुलिस ने बचाव में फायरिंग की, नतीजा आरोपी मारा गया। जांच में सारी कहानी झूठी मिली। आयोग ने लगभग 6 वर्षों बाद उत्तर प्रदेश सरकार को तीन लाख रुपसए की सहायता प्रभात सिंह के नजदीकी को देने का आदेश दिया। चन्नैई पुलिस ने सुरेश को इब्राहीम गली चैन्नई में गोली मार दी। पुलिस का कहना था कि सुरेश ने वाहन चेकिंग के दौरान इंस्पेक्टर पर छूरे से प्रहार किया और पेट्ोल बम फेंके। लेकिन पुलिस की जवाबी कार्रवाई में वह मारा गया। लेकिन युवक की मां ने बताया कि सुरेश को पुलिस ने घर से उठाया था। मामले की जांच एडीएम ने की और मुठभेड़ को फर्जी बताया। लगभग सात वर्ष बाद मानवाधिकार आयोग ने सुरेश के नजदीकी को तीन लाख का मुआवजा तमिलनाडु सरकार को देने का निर्देश दिया है।
गौरतलब है कि मानवाधिकार आयोग के हालिया निर्णय उस समय आए हैं, जब आज चारों तरफ से पुलिस द्वारा अंजाम दिए गए। हालिया फर्जी इनकान्उटरों पर बवाल मचा हुआ है। हर फर्जी इंकाउन्टर जीवन रक्षा के इस अधिकार का गंभीर उल्लंघन है जो संविधान द्वारा उसके नागरिकों को दिया गया।
आयोग द्वारा दिए गए इन निर्णयों का अगर हम विश्लेषण करें तो जो सामान्य सी बात सामने आती हैं वह है ‘आयोग द्वारा इसे सामान्य घटना मानना।’ आयोग का मानना है कि ये मुठभेड़े पुलिस द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कानून की आड़ में आम जनता का उत्पीड़न है। और यह यदा-कदा और यहां-वहां होने वाली घटनाएं मात्र हैं। और अगर इस उत्पीड़न का कुछ मुआवजा दे दिया जाए तो सब ठीक हो सकता है। वह इस सच्चाई से इनकार करता है कि आज थाने और पुलिस संस्थागत गुण्डई के वो केन्द्र बन गए जिन पर किसी का नियंत्रण नहीं है।
जो लोग यह सोचते हैं कि फर्जी इंकाउंटर के शिकार लोगों को कुछ मुआवजा देकर संतुष्ठ किया जा सकता है, वे गलत सोचते हैं। चूंकि हर फर्जी इंकाउंटर मानवता का गला घोटता है और मानवता के खिलाफ एक अक्षम्य अपराध है। इसलिए पीड़ित पक्ष को सिर्फ मुआवजा देने भर से न्याय नहीं मिल सकता। क्योंकि हर फर्जी मुठभेड़ से जीवन का अंत होता है जीवन अमूल्य होता है।
आज यह एक सच्चाई है कि फर्जी इंकाउंटर एक व्यवस्था गत समस्या बन चुका है। हमारे नौकरशाह कानून और व्यवसाय बचाने के नाम पर गुंडई करने की खुली छूट रखते हैं। आजतक उनकी कोई जवाब देही तक नहीं हैं जो उन्हें निरंकुश बनाए हुए हैं। वे यह खूब जानते हैं कि पहले तो कोई विरोध ही नहीं होगा और अगर कुछ हुआ भी तो खामियों भरी न्याय प्रणाली में वो साफ बच जाएंगे।
हमारे समाज में आज भी मुट्ठी भर लोगों का एक वर्ग है जो अपनी रक्षा के लिए इस तरह के उत्पीड़न को जरूरी मानता है। यही नहीं वह इनके पंजों को और खूनी बनाने के लिए मानवता का गला घोटने वाले काले कानून बनाता है, और बड़ी ही सफाई से यह कहता है कि विद्रोहियों को मारने के अलावा कोई चारा नहीं है। दरअसल जो समाज वर्गों में बंटा हो वहां मानवता भी वर्ग-सापेक्ष होती है। और वो मानवता को भी पैसे से तौलते हैं।
अब एक प्रश्न उठता है कि क्या हर फर्जी मुठभेड़ का एक इलाज मुआवजा है? क्या मुआवजा देकर हम पीड़ित के साथ सही न्याय कर रहे हैं। बिल्कुल नहीं। मुआवजा देकर हम कोई ऐसी व्यवस्थाा का निर्माण नहीं कर रहे हैं, जो जीवन की शर्तिया गारंटी करें। आज मुआवजा देने की नहीं व्यवस्था को कुछ इस तरह बनाने की जरुरत है जो मानवता को कुचलने के हर प्रयास को हत्तोसाहित करें। आज आवश्यकता इस बात की है कि पुलिस को ज्यादा से ज्यादा जवाबदेह बनाया जाए। उन कानूनों को रद्द किया जाए, जिसने पुलिस को असीमित अधिकार दिया है जो मानवता का गला घोंटने में प्रयोग होते हैं। सरकार का एक विभाग प्रायोजित हत्याएं करे और दूसरा उन पर मुआवजे का आदेश जारी करे इससे ज्यादा शर्मनाक भारतीय लोकतंत्र के लिए और क्या हो सकता है।
लेकिन खेद की बात यह है कि आज भी हमारे नेताओं ने इसे हतोत्साहित करने के नाम पर कुछ नहीं किया है। आज भी लगभग हर रोज पुलिस द्वारा टार्चर और फर्जी मुठभेड़ों की खबरें आती रहती हैं। लेकिन हमारा राजनैतिक नेतृत्व कान में तेल डाले बैठा है। आज भी वे व्यवस्थागत अन्याय का विरोध करने वालों को चेतावनी देते हुए मूक संदेश देते हैं कि जो भी व्यवस्थागत अन्याय का विरोध करेगा उसका यही हश्र होगा।
साभार जनादेश

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