24 जून 2010

स्वप्नहीन समाज

शाहनवाज आलम
उस दिन जब किसी तरह मुझे घर जाने के लिए पवन एक्सप्रेस में बैठने की जगह मिल गयी तो मैंने समय बिताने के लिए एक प्रतिष्ठित अखबार का दिवाली विशेषांक निकाल लिया। यह अंक नक्सलवाद पर केंद्रित था और इसमें लिखने वालों ने इसे उसके तमाम राजनैतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक परिप्रेक्ष्य में परखते हुए लिखा था। लेखकों के इस दृष्टिकोण के चलते लेखों के शीर्षक जाहिरा तौर पर राज्य और सरकार के खिलाफ थे।
       विषय में मेरी दिलचस्पी और लेखों की गंभीरता के चलते मैं जल्दी ही उसमंे रम गया। आठ-दस पन्ने पढ़ने के बाद जब यूं ही मैंने नजर उठायी तो देखा कि मुझे कई लोग घूर रहे थे। कुछ फुस्फुसाहट भी सुनायी दी कि ‘नक्सली लगता है।’ मुझे समझते देर नहीं लगी कि लोग इस पत्रिका को नक्सली साहित्य समझ रहे हैं।
       मुंबई से मुजफ्फरपुर जाने वाली इस टे्न की जनरल बोगी में नब्बे प्रतिशत वे लोग ठुसे रहते हैं जो वहां छोटे-मोटे काम करके किसी तरह पेट भरते हैं। इन खाली पेट और पिचके चेहरों पर कथित नक्सली साहित्य को देखकर उभरे भाव से यह अंदाजा लगाया जा सकता था कि राज्य ने किस हद तक समाज के सबसे निचले पायदान के लोगों को भी अपनी सोच में ढाल लेने में सफलता पा ली है। हो सकता है कोई नक्सली विचारधारा और उसकी हिंसा से सहमत न हो लेकिन उसे एक विचार के बतौर समझने परखने की गुंजाइश तो किसी भी लोकतांत्रिक समाज में होनी ही चाहिए। इस गुंजाइश के अभाव में कोई भी समाज किसी नए विचार का मूल्यांकन तो दूर उस पर बहस तक नहीं कर सकता और जड़ता का शिकार हो जाता है। राज्य और उसका सत्ता तंत्र समाज के इसी जड़ता के टूटने से डरता है। इसलिए वो प्रचार माध्यमों से पूरे समाज को अपने ही विचार और तर्कों पर ढालने में लगा रहता है। इस रणनीति में उसकी सफलता इस पर निर्भर करती है कि समाज में बदलाव की आकांक्षा रखने वालों की तादाद कितनी है।
          नक्सलवाद के संदर्भ मंे राज्य की इस रणनीति को सबसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। सत्तर और अस्सी के दशक में जब समाज के बड़े दायरे में ‘व्यवस्था परिवर्तन’ बहस का सबसे लोकप्रिय विषय हुआ करता था तब नक्सलियों के किसी कथित मुठभेड़में मारे या पकडे़जाने पर जारी पुलिसिया बयानों में ‘नक्सली साहित्य’ पकड़े जाने का जिक्र नहीं मिलता था। ऐसा इसलिए था कि नक्सलवादी जिस मार्क्स, लेनिन और भगत सिंह के विचारों पर चलने का दावा करते थे उनसे लाख असहमति के बावजूद समाज उसे एक विचार के बतौर मान्यता देता था। इसीलिए नक्सलियों के खिलाफ हिंसक कार्यवाइयों के बावजूद इंदिरा गांधी को भी उन्हें भटके हुए प्रतिभावान नौजवान कहना पड़ता था। क्योंकि बिना इस तर्क के नक्सलियों के खिलाफ चलाए गए हिंसक अभियान को समाज एक विचार के खिलाफ हिंसा मानता और इसका विरोध करता। लेकिन जैसे-जैसे व्यवस्था परिवर्तन का यह सामाजिक सपना मरने लगा वैसे-वैसे स्थिति उलटने लगी।                             दरअसल एक स्वप्नहीन समाज खुद अपने हाथों से अपने लिए फासिस्ट स्टेट के दरवाजे खोलता है। इस प्रक्रिया में वो अपनी आंखों के सामने ही अपने स्वप्नदर्शी दिनों की सबसे बेहतरीन चीजों को जड़वादी सत्ता तंत्र द्वारा विद्रूप और राष्ट्विरोधी साबित करते हुए देखता और उससे सहमत होता जाता है। उर्दू के एक खूबसूरत तहजीबी जबान से आतंक की लिपि। या मार्क्स और भगत सिंह के विचारों को एक बेहतर समाज निर्माण के औजार से खतरनाक नक्सली साहित्य में तब्दील कर दिया जाना समाज के इसी स्वप्न हीनता का प्रतीक है।
           सत्ता तंत्र किसी आंदोलन को किस हद तक खतरनाक मानेगा, यह उस आंदोलन के पीछे के सपने से तय होता है। गुजरात से लेकर कंधमाल तक तांडव करने वाली सांप्रदायिक भीड़जो भारत को उसके संविधान के विरुद्ध एक हिंदू राष्ट् में तब्दील कर देने का एजेंडा रखती है को कांग्रेस सरकार भी कभी राष्ट् विरोधी घोषित नहीं कर सकती। और न ही वो पच्चीस हजार किसानों को लेकर संसद घेरने वाले किसी राजगोपाल जैसे एनजीओ बाज को देश के आंतरिक खतरे के बतौर चिंहित कर सकती है। क्योंकि  हिंदुत्व और एनजीओ का मौजूदा सत्ता तंत्र से कोई वैचारिक विरोध नहीं है। लेकिन इसी के समानांतर राज्य मशीनरी किसी सुदूर पहाड़ी से आदिवासियों को कथित नक्सली साहित्य पढ़ने और योजना बनाने का आरोप लगाकर गिरफ्तार करके उन पर राष्ट् को चुनौती देने का मुकदमा लाद देती है। यह एक गंभीर शोध का विषय है कि हमारा सत्ता तंत्र कितने ‘मजबूत’  वैचारिक धरातल पर खड़ा है कि उसके लिए हर असहमत विचार दुःस्वप्न बन जाता है। जिसके चलते वो अपने कथित मानवीय चेहरे को उतारकर उसके खिलाफ आपरेशन ग्रीनहंट, ग्रे हाउंड, आपरेशन कोबरा और स्कार्पियन यानी खतरनाक जानवरों की मुद्रा अख्तियार कर लेता है।

    

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