24 जून 2010

आजमगढ़ के सहारे यूपी में नयी कांग्रेसी कवायद

राजीव यादव
आजमगढ़ में दिग्विजय सिंह की यात्रा और उसके बाद गोरखपुर में अल्पसंख्यक सम्मेलन कांग्रेसी राजनीति की दोहरी चाल। पहले तो कांग्रेस डेढ़ साल बाद सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का नया मुखौटा लगाकर आजमगढ़ गयी और उसके बाद मुसलमानों से यह प्रमाण पत्र ली कि वह आजमगढ़ के पीड़ित उन परिवारों से मिली है। इस प्रमाण को लेकर अब उसे वोट की राजनीति में तब्दील करने के प्रयास में है। गोरखपुर समेत तराई वाले पूरे क्षेत्र में भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ पर कई सांप्रदायिक दंगों और हमलों के आरोप हैं। उत्तर प्रदेश की अपराधियों और माफियाओं की सूची में भी योगी पहले स्थान पर हैं। ऐसे में कांग्रेस बिना आजमगढ़ गए अगर गोरखपुर सम्मेलन करती तो उस पर सवाल जरुर उठता कि कांग्रेस ने ही आतंकवाद के नाम पर बाटला हाउस में मासूमों को मरवाया और दर्जनों पर आतंकी होने का आरोप लगा अब किस मुंह से गोरखपुर में सम्मेलन कर रही है। दूसरा कांग्रेस यह जानती थी कि वह अगर आजमगढ़ जाएगी तो भाजपा जरुर उसका विरोध करेगी और भावनात्मक आधार पर वो मुसलमानों में यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि कांग्रेस मुस्लिम हितैषी है और जिसका प्रमाण होगा भाजपा विरोध जिसको कांग्रेस को कहने की कोई जरुरत नहीं। और हुआ भी ऐसा।
         इसीलिए कांग्रेस आगे आजमगढ़ फिर गोरखपुर गयी। इसका फायदा कांग्रेस को जरुर मिलेगा क्योंकि योगी के आतंक से पूरा क्षेत्र आतंकित है चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान। अब यहां के लोगों में एक नए ढर्रे की राजनैतिक अकांक्षा है और इसे कांग्रेसी बखूबी समझ रहे हैं। इस राजनैतिक आकांक्षा का अंदाजा डा0 अयूब की पीस पार्टी और ओलमा काउंसिल से आसानी से लगाया जा सकता है। कुछ समय पहले तक कांग्रेस के एजेंडे में था कि ऐसे दलों को समाहित कर लिया जाय। इसके लिए उसने राजभर जाति के नेता के बतौर उभरे ओम प्रकाश राजभर से भी बीते कुछ वर्षों में साठ-गांठ करने की कोशिश की पर मामला बन नहीं पाया। पिछली 27 जनवरी को पीस पार्टी के डा0 अयूब, भारतीय समाज पार्टी के ओम प्रकाश राजभर और रामविलास पासवान ने जो खलीबाद में ‘गुलामी तोड़ो समाज जोड़ो’ के नारे के साथ नया गठजोड़ बनाया उससे कांग्रेस सकते में आ गयी। क्योंकि तराई के क्षेत्र में कांग्रेस को मिली सफलता का एक बड़ा कारण था पीस पार्टी का चुनाव में उतरना। केंद्र में भाजपा का कोई खतरा नहीं था। ऐसे में मुसलमान नया प्रयोग करना चाह रहा था। लेकिन प्रयोग में फायदा कांग्रेस को हुआ। पीस पार्टी ने सामाजिक न्याय के झंडा बरदारों वो चाहे सपा हो या फिर बसपा का ही वोट पाया। ऐसे में कांग्रेस को मजबूती मिली उसके उदार हिंदू और उदार मुस्लिम वोटरों या कहें कि ऐसा तबका जो योगी से त्रस्त था और दूसरे विकल्प के रुप में पीस पार्टी को नहीं देख रहा था उसने कांग्रेस की झोली में अपना मत दिया और यह रुझान अब भी कायम है। लेकिन ओलमा काउंसिल भी अपने को इस क्षेत्र में स्थापित करने की कोशिश में है। कांग्रेसी लगातार यह प्रचारित करने की कोशिश में लगे हैं कि बाटला हाउस के नाम पर ओलमा काउंसिल सियासत कर रही है, तो वहीं ओलमा काउंसिल अपने को एक राजनैतिक दल के रुप में स्थापित करने की कोशिश में लगी है।
       पर आजमगढ़ियों में इस यात्रा ने एक मजबूत गांठ बना दी है कि अब कोई जांच नहीं होने वाली है। कांग्रेस ने यह सब एकाएक नहीं किया। इसकी तैयारी उसने लोकसभा चुनावों के पहले ही शुरु कर दी थी पर गोटी नहीं फिट हुयी। बाटला हाउस के बाद आजमगढ़ में बने ओलमा काउंसिल से उसने बात की पर ओलमा काउंसिल ने साफ कहा कि दिग्विजय सिंह जो बाटला हाउस को बंद कमरे में फर्जी मानते हैं इसे खुले तौर पर आगे कहें। पर इतनी हिम्मत न दिग्विजय में हुयी न उनके युवराज या और न उनके किसी आका में। पर चाहे जो हो इस यात्रा का आजमगढ़ के कांग्रेसी वोटों के समीकरण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने जा रहा है क्योंकि वहां न उनके पास नेता है न ऐसे समीकरण जिनके बूते वे कुछ कर पाएं। जो कांग्रेसियों ने आतंकवाद के नाम पर किया उसका फायदा भाजपा-योगी जैसे लोगों ने सांप्रदायिकता भड़काने में किया। दूसरा मुसलमानों की हितैषी सपा का चेहरा भी बेनकाब हुआ। ऐसा नहीं है कि सपा इन घटनाओं के बाद सवालों को नहीं उठायी थी । सपा ने अबू बसर और बाटला हाउस के बाद दो विशाल जनसभाएं की। पर सपा का हिंदू वोटर या कहें कि यादव इसे आसानी से नहीं पचा पाया और जिसमें आजमगढ़ के रमाकांत यादव का व्यक्तिगत प्रभाव भी आड़े में आया। ऐसे में टूटते एमवाई समीकरण में मुसलमानों की ओलमा काउंसिल उस समय स्वाभाविक अभिव्यक्ति थी। बाद में उसके राजनीतिक होने पर थोड़ा उसका पावर बैलेंस कम हुआ लेकिन आजमगढ़ का मुस्लिम युवा यह जानता है कि उस पर अगर कोई ज्यादती होगी तो ओलमा काउंसिल ही सामने आएगी। और यह कोरी लफ्फाजी नहीं है इसे ओलमा काउंसिल को मिले वाटों में आसानी से देखा जा सकता है। अब एक नए समीकरण की जुगत में अमर सिंह लगे हैं लेकिन अभी उनका मूल्यांकन करना जल्दीबाजी होगा।
         हजारों काले झंडों के विरोध और ‘नए शिकारी लाए पुराने जाल’ और वापस जाओ के विरोध के स्वर में यह यात्रा हुयी। आजमगढ़ की यह यात्रा महज वोटों के लिए की गयी ऐसा अनुमान लगाना गलत होगा। क्योंकि कांग्रेस पिछली लोकसभा में मुस्लिम मतदाताओं के रुझान को बाखूबी देख चुकी है और इसका फायदा भी उसे मिला। पर जगह-जगह बाटला हाउस पर उठने वाले सवालों का जवाब देते-देते वह थक गयी थी इसका एक हल उसकी आजमगढ़ यात्रा ही हो सकता था। लेकिन इस दौरान क्या-क्या होगा यह भी वह बखूबी जानती थी। क्योंकि 2008 अगस्त में पकड़े गए अबु बसर के यहां जब पूर्व मुख्यमंत्री रामनरेश यादव गए तो उन पर पत्थरबाजी हुयी थी। और उसके बाद दिग्विजय सिंह वो पहले व्यक्ति थे जो पीड़ितों से मिले।
          दिग्विजय सिंह ने अमरेश मिश्रा के माध्यम से आजमगढ़ में घुसने का प्रयत्न किया। और अमरेश को सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का गठन कर प्रभारी बनाया। कांग्रेसी न्याय के समीकरण के चलते उसी दिन खबरों में रहा कि शिवानी भटनागर हत्या कांड के आरोपी आरके शर्मा को जमानत मिली जो अमरेश के ससुर हैं। अमरेश वामपंथ से होते हुए 1857 पर किताब लिख, सांप्रदायिक दंगों और बाबरी विध्वंस के आरोपी लाल कृष्ण आडवानी से उसका विमोचन करवाया। और इसके बाद यूडीएफ होते हुए ओलमा काउंसिल का सफर तय किया। अमरेश ने बाटला हाउस पर सवाल उठाए थे ऐसे में कांग्रेस के लिए अमरेश काफी महत्वपूर्ण थे जो आजमगढ़ में उन्हें ले जा सकते थे। पर कांग्रेस यह भी अच्छी तरह भाप रही है कि अमरेश उसे वोटो की गणित में पार नहीं लगा सकते क्यों की वो खुद तीन हजार वोट पाकर पिछले चुनावों में अपनी जमानत जब्त करवा चुके थे। अमरेश का प्रयोग कांग्रेस मुसलमानों को भावनात्मक रुप से रिझाने के लिए कर रही है कि आपके सवालों को उठाने वाला हमसे ही न्याय की उम्मीद करता है तो फिर आप भी हमसे ही न्याय की उम्मीद करें। सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चा की बैशाखी पर बैठ दिग्विजय भले आजमगढ़ पहुंच गए लेकिन आजमगढ़ में अब भी ओलमा काउंसिल की धमक कम नहीं हुयी। इसे दिग्विजय सिंह ने विरोध के दौरान समझा भी होगा। ओलमा काउंसिल का क्या भविष्य है इस पर अभी कयास लगाना जल्दी होगा लेकिन आजमगढ़ के युवाओं में उसका क्रेज अभी कायम है।
          आजमगढ़ में दिग्विजय ने बार-बार कहा कि आजमगढ़ छवि सुधारनी है। पर आजमगढ़ ही नहीं सभी जानते हैं कि जब तक न्यायिक जांच नहीं होती तब तक आजमगढ़ की छवि नहीं सुधरेगी। दिग्विजय सिंह बताएं कि अगर राहुल और सोनिया इतने चिंतित हैं तो क्यों नहीं अब तक बाटला हाउस के मुद्दे पर अपनी जवान खोली। दिग्विजय सिंह ने आजमगढ़ और अब तक कई मीडिया वालों को बता चुके हैं कि मनमोहन सिंह ने राष्ट्ीय मानवाधिकार आयोग से जांच करवायी। यह सफेद झूठ है। क्योंकि राष्ट्ीय मानवाधिकार आयोग ने जो जांच की वह हाईकोर्ट में याचिका के बाद हाईकोर्ट के निर्देश पर हुयी। और अगर बाटला हाउस पर इतनी कांग्रेस चिंतित है तो उसने क्यों अपनी पुलिस के मनोबल गिरने का तर्क देकर नए न्याय के समीकरणों को स्थापित किया। क्या यह किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए सही है कि उसका न्याय तंत्र पुलिस का मनोबल गिरने का तर्क देकर न्यायिक जांच न कराए।
          अगर दिग्विजय सिंह मानते हैं कि साजिद के सिर पर लगी गोलियां एनकाउंटर पर संदेह व्यक्त करती हैं तो क्यों नहीं उन्होंने कांग्रेस से इस असहमति पर कांग्रेस छोड़ दी। दिग्विजय सिंह ने क्या तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल और मुख्यमंत्री शीला दिक्षित से इस बात पर सवाल नहीं किया कि आपने जिस एनकाउंटर की मानिटरिंग की उसमें साजिद को कैसे इस तरह गोलियां मारी गयीं। अगर यह गलत तरीके से किया गया तो किस आधार पर इस जघन्य हत्या की मानिटरिंग करने वाले शिवराज और शीला अपने पद पर बने रह सकते हैं। अब कांग्रेस बाटला हाउस की न्यायिक जांच न कराकर जो बार-बार कह रही है कि सभी मुकदमों को एक जगह लड़या जाएगा यह एक सौदेबाजी है। कांग्रेस देख रही है कि विकल्पहीनता में मुसलमान फिर से कांग्रेस की तरफ रुख कर रहा है तो जो चीज मानसिक तौर पर उन्हें सालती है कि कांग्रेस राज ने ही आजमगढ़ के मुसलमानों पर जुल्म ढाए इसका एक जवाब उनके पास होना चाहिए और वो जवाब आजमगढ़ जाकर उन्होंने पा लिया। क्योंकि केश एक जगह लड़वाकर आजमगढ़ की छवि नहीं सुधेरेगी। आजमगढ़ की छवि तब-तक नहीं सुधरेगी जब तक बाटला हाउस समेत पांचों राज्यों में हुए धमाकों की जांच नहीं होती।

                      

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