17 जून 2010

यह आग सरकारी है

राजीव यादव
पिछले कई हफ्तों से पूर्वांचल में बिजली के तारों से निकली चिंगारी से खेत-खलिहान और आसियानें धूं-धूं कर जल रहे हैं। हर साल मार्च से शुरु इस आग में अब तक अरबों रुपयों की फसल खाक हो गयी है। इसकी तस्दीक अग्निशमन विभाग के आकड़े भी करते हैं। जिसके अनुसार आग में वर्श 2006 में एक अरब तिरासी करोड़, 2007 में एक अरब इक्यासी करोड़, 2008 में दो अरब पांच करोड़ और 2009 में दो अरब उन्तालीस करोड़ के तकरीबन की क्षति उत्तर प्रदेश में हुयी। हर साल चौबीस हजार से अधिक अग्निकांड वाले प्रदेश में आधे से अधिक गांवों में ही होते हैं।
 इसकी वजह व्यवस्था का वह विकास है जो सड़कों, बिजली और कुछ भवनों के निर्माण तक सीमित है। चाहे वो एक रुपए उपर से भेजने पर ‘दस पैसे’ पहुंचने वाला वक्त रहा हो या फिर आज ‘पांच पैसे’ पहुंचने वाला वक्त पर यह आग नहीं रुकी। दंतेवाड़ा में मारे गए सीआरपीएफ के जवान मनोज कुमार पांडे का शव जब अजमगढ़ में उनके गांव जमीन कटघर पहुंचा तो बिजली के तारों की स्पार्किंग से लगी आग में उनकी गेंहूं की फसल धूं-धूं जल कर देश के विकास का एक और रहस्योदघाटन कर रही थी। बिजली के तारों की स्पार्किंग की वजह से लगने वाली सरकार की ‘रहस्यमयी’ आग को राकने के लिए सरकारी प्रयास असफल रहे। हो भी क्यों न मर्ज कुछ और हो और दवा करने पर गाज जब खुद पर गिरने वाली हो तो ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं होता। इन आगों का सामान्य सा कारण बिजली के खंभों की दूरी है जिसे आज तक हमारे प्रबुद्ध योजनाकार नहीं समझ पाए। इस संवेदनहीन तंत्र की आग में सबसे अधिक उस तबके के लोग खाक हुए जिसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों में मिशन 2012 के लिए मारपीट लगी है।
   विभिन्न समाचार पत्रों और मौके वारादात के एक फौरी आकलन में ‘दूसरी हरित क्रांति’ के संभावित क्षेत्र पूर्वांचल के आजमगढ़ में अपै्रल के शुरुआती तीन हफ्तों में दो हजार बीघे फसल समेत सैकड़ों बस्तियां खाक हुयी जिनमें पांच मासूमों की मौत हुयी । तो वहीं सिर्फ दो अपै्रल को मउ, बलिया, गाजीपुर में तकरीबन पचास जगहों पर आग लगी जिसमें बलिया के रेवती क्षेत्र में एक मासूम की जान गयी। अब तक इस आग में बलिया में चार बच्चों की मौत हो चुकी है। इन अगलगी की घटनाओं में लगभग सभी दलित बस्तियां और बच्चे-महिलाएं ही ज्यादा शिकार हुए। मिर्जापुर, सोनभद्र और चंदौली में जहां एक-एक मासूमों की मौतें हुयी। जनता के प्रदर्शनों पर चंदौली में जहां लाठी चार्ज हुआ तो वहीं सिद्धार्थनगर के महुली थाना क्षेत्र में किसानों पर गोलियां चलायी गयीं।
अगलगी की 95 फीसदी घटनाएं बिजली के तारों की स्पार्किंग की वजह से होती हैं। बिजली को भगवान समझने वाले किसान सूखा-बाढ़ की तरह इस सरकारी आपदा को भी प्राकृतिक आपदा की तरह लेते हुए बहुत मांग किया तो मुआवजे की। जब कई जगहों पर खंभों की दूरी को लेकर जब किसानों से बात की गयी तो उनका कहना था कि हर खंभे पर सरकार पांच हजार रुपए लेती है तो ऐसे में हम अपनी औकात के अनुसार खंभे लगवाते हैं। खंभों की दूरी के मानक का उनको कुछ अता-पता नहीं है। यानि एक तरफ व्यवस्था का भ्रश्टाचार और दूसरी तरफ उसका दोशी भी किसान को बताया जा रहा है। बिजली विभाग अपने उपर उठने वाले सवालों को छोटे कर्मचारियों पर मढ़कर अपनी गर्दन बचाता है कि उन्होंने खंभों के तार नहीं कसे। जबकि व्यवहारिक तौर से देखा जाय तो खंभों के दूर-दूर होने कि स्थित में तारों को कसा नहीं जा सकता। ऐसे में खंभों की यह दूरी बिजली विभाग के एक बहुत बड़े भ्रश्टाचार का मामला है जो किसी एक जिले या प्रदेश में न होकर राश्ट्व्यापी है। विद्युत विभाग ने यह घोटाला सामान्य से लेकर हाईटेंशन बिजली के खंभों में लगाने में किया है। और ज्यादातर फसलें हाईटेंशन तारों की स्पार्किंग की वजह से जली। क्योंकि यह तार गांव के किसी भी दूर-दराज क्षेत्र से निकल जाते हैं। तेज हवा या किसी चिड़िया के बैठने पर स्पार्किंग हो जाती है और जब तक आग का पता चलता है तब तक आग बहुत फैल चुकी होती है।
 जहां तक सवाल आग बुझाने का है तो तीन सौ बीस तहसीलों और आठ सौ बीस ब्लाकों वाले उत्तर प्रदेश में तहसील स्तर पर भी फायर स्टेशन नहीं हैं। जो सरकार की मंशा को उजागर करता है। ऐसे कई जिले हैं जिनके बने एक दशक से ज्यादा वक्त गुजर गया है पर वहां आग रोकने का कोई इंतजाम नहीं है। ऐसा ही एक जिला कुशीनगर है जिसको बने तेरह साल हो गए हैं। जिले की अस्सी फीसदी आबादी झोपड़ियों में रहने वाली है। गत वर्शों यहां अंग्निकांडों के नुकसान का प्रशासनिक आकलन 2007 में 145 घटनाओं में एक करोड़ बावन लाख, 2008 में 132 घटनाओं में एक करोड़ सात लाख और 2009 में 188 घअनाओं में एक करोड़ छत्तीस लाख का रहा। यह आकलन किसी बहुमंजिला इमारत का नहीं बल्कि जली हुयी फसलों और झोपड़ियों का है जिनमें 2007 में तीन, 2008 में नौ और 2009 में 11 लोगों को जाने गयीं। तो वहीं पास के सिद्धार्थनगर में सात सौ घटनाओं में साठ करोड़ का नुकसान हुआ। ज्यादातर घटनाएं गांवों में हुयी। पर इतना होने के बाद भी जिले में मात्र दो फायर स्टेशन हैं।
यह प्रशासनिक आकलन की तश्वीर है जबकि जमीनी आकड़े इससे कहीं ज्यादा भयावह हैं। क्योंकि सरकार के पास इससे निपटने के लिए कोई योजना नहीं है। राज्य आपदा प्रबंध प्राधिकरण के गठन के कई साल बीत जाने के बावजूद अब तक उसे क्रियाशील नहीं किया जा सका।
 एक तरफ जहां देश के प्रधानमंत्री 2012 तक चार प्रतिशत विकास दर को संभव बनाने का दावा कर रहे हैं तो वहीं सरकारी आकड़े इस बात से उछल-कूद कर रहे हैं कि गेहंू उत्पादन में यूपी रिकार्ड बनाएगा। आजमगढ़ को केंद्र बनाकर यूपी में हुयी अगलगी पर जनहित याचिका करनेे के तैयारी कर रहे पीयूसीएल के मसीहुद्दीन संजरी, विनोद यादव, अंशू माला सिंह और तारिक शफीक के आकड़ों के अनुसार सिर्फ अप्रैल के तीन हफ्तों में दो हजार बीघे गेहंू की फसल यानी कम से कम दो करोड़ बीस लाख का गेहूं खाक हो गया है। इस आकलन के आधार पर पूरे यूपी में 1 अरब अठहत्तर करोड़ की फसलों का सरकारी लापरवाही के चलते नुकसान हुआ। जबकि यह सिर्फ तीन हफ्तों का आकलन है। और जलने के क्षेत्रों का आकलन कई जिलों में इससे बहुत ज्यादा है। जैसे बलिया, मउ, गाजीपुर जैसे क्षेत्र आजमगढ़ से ज्यादा अगलगी के लिए संवेदनशील हैं।
 पीयूसीएल नेता तारिक शफीक कहते हैं कि किसानों के प्रति इतनी गैरजिम्मेदार होने के बाद भी सरकार इसे छुपाने के लिए विभिन्न हथकंडे अपना रही है। जिलाधिकारियों ने फरमान जारी किया है कि अगर पंद्रह दिन के भीतर अगलगी की शिकायत की कागजी कार्यवायी नहीं की तो मुआवजा नहीं दिया जाएगा। और जो मुआवजा दिया जाएगा वह तीन हजार रुपए प्रति एकड़। ऐसे में सरकार द्वारा किए जा रहे आकलन की जहां कलई खुल रही है वहीं उसकी संवेदनहीनता भी उजागर हो रही है। जहां किसी लोक कल्याणकारी राज्य में होना तो यह चाहिए कि सरकारी नुमांइदा किसानों के पास जाकर उन्हें सांत्वना देता और उनके नुकसान का मूल्यांकन करता, वहां इसे छुपाने के लिए पंद्रह दिन की समय सीमा निर्धारित कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर ली गयी है। प्रदेश में पिछले साल सत्ताईस जिले सूखा ग्रस्त घोसित किए गए थे। पर आजगढ़ समेत कई जिलों में आला अधिकारियों ने अपनी गर्दन और सरकार के ‘स्वाभिमान’ के लिए गलत आकलन कर सूखा राहत का पैसा वापस कर दिया। जिसमें आजमगढ़ से 23 करोड़ 74 लाख रुपए वापस किया गया था, जबकि जिला पूरी तरह सूखे के चपेट में था। सरकार द्वारा दिया जा रहा मुआवजा कृशि विशेशज्ञों द्वारा एक एकड़ में हो रही फसल के पैदावार के आकलन के सामने कहीं से नहीं टिकता यह सिर्फ एक छलावा है। एक एकड़ में सामान्य तौर पर आठ कुंतल यानी सरकार के समर्थन मूल्य के हिसाब से 18800 रुपए वो भी भूसा छोड़कर जिसकी कीमत चार सौ रुपए कुतल यानी चार हजार रुपए होती है। यानी सरकार किसान को उसके भूसे तक का दाम देने को तैयार नहीं है। पर उसके फसल उत्पादन पर साम्राज्वादी देशों से हर कीमत पर सौदा करने को तैयार है। खाद्यान से ये बेरुखी उस देश में हो रही है जहां 32 करोड़ से अधिक लोग भूखे सोते हैं।
ऐसे में सरकार जहां आग को रोक नहीं पा रही है और न ही ईमानदारी से मुआवजा दे रही हैं उसकी भ्रश्टाचारी नीति के कारण लाइन लॉस हो रहा है। ग्रामीण क्षेत्रों मेें खंभों की दूरी की वजह से तारांे के झूलने के कारण काफी लाइन लॉस होता है। लापरवाही और गलत तरीके से हुए विद्युतीकरण के कारण पिछले साल जहां यह अड़तीस फीसदी के आस-पास था, तो वहीं इस साल यह बयालीस फीसदी के तकरीबन पहुंच चुका है। इस लाइन लॉस की वजह से कारपोरेशन को सालाना 3500 से 4000 करोड़ रुपए की चपत लग रही है।                                   

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