27 सितंबर 2010

उदयपुर में साम्प्रदायिक दंगे: राजस्थान पुलिस ने गुजरात दोहराया

डॉ. असगर अली इंजीनियर

पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की राजस्थान के उदयपुर जिले के सारदा नामक  कस्बे में हुई साम्प्रदायिक हिंसा की जांच रपट मेरे सामने है। यह हिंसा एक मीणा आदिवासी की हत्या के बाद भड़की। यह हत्या षुद्धतः आपराधिक थी। पीयूसीएल के दल में वरिष्ठ अधिवक्ता रमेष नंदवाना सहित विनीता श्रीवास्वत, अरूण व्यास, ष्यामलाल डोगरा, श्रीराम आर्य, हेमलता, राजेष सिंह व रषीद षामिल थे। इस कस्बे में कुछ वर्ष पहले भी साम्प्रदायिक हिंसा हुई थी।
रपट के अनुसार, 2 जुलाई को षहजाद खान और उसके दो साथियों ने मोहन मीणा का कत्ल कर दिया। मोहन मीणा अवैध षराब का ध्ंाधा करता था और षराब पीने के बाद हुए झगड़े में उसका खून हो गया। इसके बाद, तीन दिनों तक (3 से 5 जुलाई) आदिवासियों ने योजनाबद्ध तरीके से मुसलमानों की दुकानों में जमकर आगजनी की। जिन मुसलमानों की दुकानें जलाई गईं उनका हत्या से कोई लेना-देना नहीं था। फिर, 8 जुलाई को निकटवर्ती बोरीपाल के भाजपा नेता अमृतलाल मीणा और उनके साथियों ने घोषणा की कि मुस्लिम परिवारों का नाष करना उनका “प्राथमिक लक्ष्य“ है।
क्षेत्र के एसडीएम एवं पुलिस उप अधीक्षक ने दोनों पक्षों की बैठक बुलाई और समस्या का हल निकालने की पेषकष की। बैठक में आदिवासयिों के प्रतिनिधियों-जो सभी बजरंग दल के सदस्य थे-ने कहा कि वे मुस्लिम परिवारों का नाष करने का अपना इरादा तभी त्यागेंगे जब स्थानीय मुसलमान यह घोषणा करें कि वे मोहनलाल मीणा की हत्या में षामिल तीनों आरोपियों का पूर्णतः बहिष्कार करेंगे और इस आषय की सूचना अखबारों में छपवाई जाएगी। यद्यपि इस मांग की कोई कानूनी वैधता नहीं थी और आरोपियों पर कानून के अनुसार मुकदमा चलाया जाना चाहिए था परंतु षांति बनाए रखने की खातिर, स्थानीय मुसलमानों ने इस मांग को स्वीकार कर लिया। तीनों आरोपियों को बिरादरी बाहर करने की घोषणा कर दी गई। इस बारे में सारदा के तहसीलदार को आधिकारिक रूप से सूचित भी किया गया और उदयपुर से प्रकाषित “दैनिक भास्कर“ मंे यह खबर छपवाई गई।
पीयूसीएल की रिपोर्ट के अनुसार, हिन्दुत्व संगठनों के बहकावे में आकर आदिवासियों ने अपना वायदा नहीं निभाया और 18 जुलाई को कस्बे में बड़े पैमाने पर ऐसे पर्चे बांटे गए जिनमें कहा गया था कि आदिवासी “मुस्लिम परिवारों के खिलाफ अपनी लड़ाई जारी रखेंगे।“ पीयूसीएल ने ऐसे सुबूत इकट्ठे किए हैं जिनसे यह जाहिर होता है कि 18 से 24 जुलाई के बीच, विभिन्न संगठनों द्वारा क्षेत्र के आदिवासियों को हथियार बांटे गए। रपट के अनुसार पालसारदा, पालसाईपुर सहित कई अन्य गांवों में सेवानिवृत्त षिक्षक धनराज मीणा और पंचायत के उप सचिव कालूषंकर मीणा ने हथियार बांटे।
सारदा के मुसलमानों को जब इस घटनाक्रम का पता लगा तो उन्होंने उच्चाधिकारियों और स्थानीय नेताओं को इसकी सूचना दी और उनसे अनुरोध किया कि कस्बे में सुरक्षा के कड़े इंतजामात किए जाएं। वैसे0 भी, जिला प्रषासन और पुलिस को हथियार व पर्चे बांटे जाने के की जानकारी रही होगी। इसके बाद 25 जुलाई को अपरान्ह लगभग चार बजे बड़ी संख्या में आदिवासी एक होस्टल के नजदीक इकट्ठा हुए और भीड़ के रूप में  मुसलमानों की दुकानों और मकानों पर हमले करने लगे। इनमंे से एक मकान सेवानिवृत्त प्राचार्य अहमद हुसैन का था, जिन्हें पत्थरबाजी में गंभीर चोटें भी आईं। ऐसी अफवाह फैलाई गई कि एक मुस्लिम ने आदिवासियों पर गोली चलाई है परंतु बाद में पुलिस ने इस अफवाह को सही नहीं पाया।
यद्यपि आदिवासी ढोल-ढमाके बजाते हुए इकट्ठा होकर अपने साथियों को मुसलमानों पर हमला करने के लिए उकसा रहे थे परंतु प्रषासन ने कोई कार्यवाही नहीं की। आदिवासी, मुस्लिम मोहल्लों पर हमले करते रहे। मुसलमानों की “सुरक्षा“ के लिए पुलिस उन्हें थाने ले आई। मौका पाकर आदिवासियों ने खाली घरों को जमकर लूटा और उनमें आग लगा दी। ऐसे घरों की संख्या लगभग 70 बताई जाती है। इस घटनाक्रम का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह है कि जिला प्रषासन ने इस हिंसा को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। जिस समय मुसलमानों के घर जलाए जा रहे थे उस समय सारदा में जिला मजिस्ट्रेट, पुलिस अधीक्षक व अन्य अधिकारी मौजूद थे। जिले के ये षीर्ष अधिकारी, आदिवासियों की भीड़ द्वारा मुसलमानों के घरों को लूटे और जलाए जाने के मूकदर्षक बने रहे।
इससे भी अधिक चाैंकाने वाली बात यह है कि इन अधिकारियों के खिलाफ आज तक राज्य के मुख्यमंत्री या गृहमंत्री द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गई है। मेरे निवेदन पर मुसलमानों का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल, प्रोफेसर मोहम्मद हसन व प्रोफेसर सलीम इंजीनियर के नेतृत्व मंे दो दंगा पीड़ितों के साथ मुख्यमंत्री से मिला और उनसे अनुरोध किया कि वे जिले के उन उच्चाधिकारियों को निलंबित करें जिनकी आंखों के सामने मुसलमानों के 70 घर लूटे और जलाए गए। मुख्यमंत्री ने प्रतिनिधिमंडल से कहा कि वे संभागायुक्त से मामले की जांच करवांएगे।
राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है। मुसलमानों ने पिछले चुनाव में कांग्रेस को अपना पूरा समर्थन दिया था क्योंकि उन्होंने राज्य में भाजपा षासन के दौरान हुए भगवाकरण को देखा और भुगता था। गुजरात के दंगों के प्रकाष में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार, साम्प्रदायिक हिंसा विधेयक तैयार कर रही है ताकि भविष्य में गुजरात जैसी घटनाएं न हों। सबसे दुःख की बात यह है कि जब मुसलमानों के घर जलाए और लूटे जा रहे थे तब वहां जिले के अधिकारियों के अतिरिक्त एक कांग्रेस विधायक भी मौजूद थे। ये विधायक भी मीणा आदिवासी हैं।
क्या कांग्रेस सरकार वाकई साम्प्रदायिक हिंसा पर रोक लगाने की इच्छुक है? उदयपुर के
जिलाधिकारियों ने जिस तरह का व्यवहार किया, उससे कई प्रष्न उभरते हैं। क्या मुख्यमंत्री को इस गंभीर घटना की जानकारी नहीं थी? अगर नहीं तो संबंधित अधिकारियों ने उन्हें अंधेरे में क्यों रखा और यदि हां तो मुख्यमंत्री ने दोषी अधिकारियों के विरूद्ध त्वरित और कड़ी कार्यवाही क्यों नहीं की? यद्यपि यह घटना एक छोटे से कस्बे में हुई थी तथापि इससे उसकी गंभीरता कम नहीं हो जाती।
गुजरात में पुलिस ने दंगाईयों का साथ दिया था। क्या कांग्रेेस-षासित राजस्थान की पुलिस का व्यवहार कुछ अलग था? यह तर्क दिया जा सकता है कि गुजरात में जो कुछ हुआ उसे सरकार का अपरोक्ष समर्थन हासिल था। राजस्थान के मामले में षायद ऐसा नहीं रहा होगा परंतु क्या हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि मुख्यमंत्री को अधिक सतर्क रहना था और साम्प्रदायिक सोच वाले अधिकारियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही करनी थी।
मैं जोर देकर कहना चाहता हूं कि जब तक सरकार नहीं चाहेगी तब तक किसी राज्य में कभी कोई दंगा या बड़ी साम्प्रदायिक घटना नहीं हो सकती। बिहार और पष्चिम बंगाल इसके सबसे अच्छे उदाहरण हैं। मुस्लिम और यादव वोटों के सहारे सत्ता में आने के बाद, लालू यादव ने एक बहुत आसान से तरीके से राज्य में साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण पा लिया था। उन्होंने यह साफ कर दिया कि अगर चौबीस घंटे के भीतर साम्प्रदायिक हिंसा पर नियंत्रण नहीं पाया गया तो संबंधित पुलिस अधिकारियों को तुरंत निलंबित कर दिया जावेगा। उन्होंने यादवों को भी चेतावनी दी कि अगर वे सत्ता का मजा लूटते रहना चाहते हैं तो साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने या उसमें भाग लेने से बाज आएं।
लालू यादव के 15 वर्षीय षासनकाल में बिहार में एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। चूंकि नीतीष कुमार, मुसलमानों को लालू षिविर से अपने षिविर में लाना चाहते हैं इसलिए उन्होंने भी अब तक बिहार को दंगामुक्त राज्य बना रखा है। यही नहीं, मुसलमानांे को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए नीतीष कुमार ने यह सुनिष्चित किया कि भागलपुर दंगों के दोषियों को सजा मिले। लालू ने इस काम में कोई रूचि इसलिए नहीं ली थी क्योंकि अधिकांष आरोपी यादव थे।
इसी तरह, एक समय पष्चिम बंगाल, साम्प्रदायिक हिंसा का बड़ा केन्द्र था परंतु वाममोर्चा सरकार ने सत्ता में आते ही एक सर्कुलर जारी किया कि जो पुलिस अधिकारी 24 घंटे के भीतर साम्प्रदायिक हिंसा रोकने में विफल रहते हैं उन्हें स्वयं को निलंबित समझना चाहिए। पष्चिम बंगाल में वाममोर्चा तीस वर्ष से भी अधिक समय से षासन कर रहा है परंतु इस अवधि में राज्य में एक भी साम्प्रदायिक दंगा नहीं हुआ। इसका एकमात्र अपवाद था मुर्षिदाबाद में हुई साम्प्रदायिक हिंसा, जिसपर बहुत जल्दी नियंत्रण पा लिया गया था।
अतः यह साफ है कि साम्प्रदायिक दंगों के मामले में सरकार की इच्छाषक्ति का बहुत महत्व होता है। यह खेदजनक है कि उदयपुर जिले के उन दोषी अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं की गई है जिनकी उपस्थिति में मुसलमानों के घर लूटे और जलाए गए। राजस्थान में दस वर्ष तक भाजपा का षासन रहा और इस दौरान नौकरषाही और पुलिस का जम कर साम्प्रदायिकीकरण कर दिया गया। भाजपा षासन में संघ की पृष्ठभूमि और मानसिकता वाले राज्य पुलिस व प्रषासनिक सेवाओं के अनेक अधिकारियों को आईएएस व आईपीएस में पदोन्नत किया गया।
इससे राज्य की प्रषासनिक व्यवस्था चरमरा गई व आरएसएस, विहिप, बजरंग दल आदि जैसे संगठनों की ताकत में जबरदस्त वृद्धि हुई। जैसा कि हम जानते हैं पिछले कुछ दषकों से आरएसएस आदिवासी क्षेत्रों में बहुत सक्रियता से काम कर रहा है और आष्चर्य नहीं कि मुसलमानों के घरों में लूटपाट और आगजनी करने वाले आदिवासी, हिन्दुत्व संगठनों के सदस्य थे।
राजस्थान के मुख्यमंत्री की छवि एक धर्मनिरपेक्ष नेता की है। वे निष्चित रूप से इन सभी तथ्यों से  अवगत होंगे और उन्हें जिलास्तर के अधिकारियों को स्पष्ट षब्दों में यह संदेष दे देना चाहिए कि अफसरषाही या पुलिस में साम्प्रदायिकता को कतई बर्दाष्त नहीं किया जाएगा। अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि के कारण राजस्थान में भाजपा के कई वर्षों के कुषासन के बाद कांग्रेस सत्ता में आई है और उसे राज्य प्रषासन को साम्प्रदायिक तत्वों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए तत्परता से कदम उठाने चाहिए। ख्ेाद का विषय है कि यह तत्परता कहीं दिखाई नहीं दे रही है।
मुझे बताया गया है कि जयपुर के मुसलमानों ने यह निर्णय लिया है कि सारदा तहसील में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के दोषी अधिकारियों के खिलाफ यदि कड़ी कार्यवाही नहीं की गई तो वे मुख्यमंत्री द्वारा आयोजित किए जाने वाले रोजा अफ्तार का बहिष्कार करेंगे। बल्कि उन्होंने तो किसी भी कांग्रेस नेता के रोजा अफ्तार में षामिल न होने का निर्णय लिया है। यह बिल्कुल सही निर्णय है। मुस्लिम बुद्धिजीवियों को साम्प्रदायिक सद्भाव व षांति बनाए रखने में अधिक सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए और सरकार को इस बात के लिए मजबूर करना चाहिए कि वह दोषी अधिकारियों के विरूद्ध कार्यवाही करे।
मुख्यमंत्री को यह सुनिष्चित करना होगा कि कम से कम साम्प्रदायिक दृष्टि से संवेदनषील जिलों से साम्प्रदायिक मानसिकता वाले अधिकारियों को हटाया जाए और उनके स्थान पर धर्मनिरपेक्ष व उदार सोच वाले ऐसे अधिकारियों की पदस्थापना की जाए जो साम्प्रदायिक सद्भाव और षांति को बढावा दें। अगर उदयपुर के जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक को तुरंत निलंबित कर दिया जाता है तो नौकरषाही तक सही संदेष जाएगा। अगर ऐसा नहीं किया जाता तो फिरकापरस्त नौकरषाहों की हिम्मत बढेगी और राजस्थान को दूसरा गुजरात बनने में देर नहीं लगेगी। भाजपा यही चाहती है। उसने अपने दस वर्ष के षासन में साम्प्रदायिकता का मूलभूत ढांचा खड़ा कर दिया है।
अभी भी देर नहीं हुई है। अगर मुख्यमंत्री अपनी छवि को बेदाग बनाए रखना चाहते हैं और कांग्रेस को एक धर्मनिरपेक्ष दल के रूप मंे प्रस्तुत करना चाहते हैं तो उन्हें चुप नहीं बैठना चाहिए। मैं चालीस साल से साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए काम कर रहा हूं और मेरा यह अनुभव है कि धर्मनिरपेक्षता के प्रति कांग्रेस की सैंद्धांतिक प्रतिबद्धता है परंतु वह अक्सर कार्यरूप में परिणित नहीं होती। इसके विपरीत जनता दल, आरजेडी व अन्य मंडल पार्टियां, साम्प्रदायिकता के खिलाफ बोलती भी हैं और उससे लड़ती भी हैं।
(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं अंौर कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।) 
एल. एस. हरदेनिया

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