विजय प्रताप
पिछले दिनों भारत में कनाडा के उच्चायोग्य ने कई सैन्य व खुफिया सेवा के अधिकारियों को अपने देश का वीजा देने से मना कर दिया। उच्चायोग्य का कहना था कि कुछ भारतीय सैन्य, अर्द्धसैन्य व खुफिया एजेंसियां मानवाधिकारों के हनन व चुनी सरकारों के खिलाफ काम कर रही हैं। उच्चायोग्य की इस टिप्पणी पर विदेश मंत्रालय ने कड़ी आपत्ति जाहिर की। लेकिन अभी हाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी जम्मू-कश्मीर की यात्रा के दौरान अपरोक्ष रूप से यह स्वीकार किया कि इस सीमावर्ती राज्य में सेना मानवाधिकारों का हनन कर रही है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।’
प्रधानमंत्री को यह बयान उन परिस्थितियों में देना पड़ा जब कि सेना पर कई फर्जी मुठभेड़ों में निर्दोष कश्मीरियों की हत्या के आरोप लग रहे हैं और वहां की जनता उद्वेलित है। कश्मीर के माछिल इलाके में तीन निर्दोष युवकों को आतंकी बताकर मार दिया गया। काफी दबाव व प्रधानमंत्री की कश्मीर यात्रा को देखते हुए सेना ने आरोपी सैन्य अधिकारियों पर मुकदमा दर्ज करने की अनुमति दी। इससे पहले शोपियां में दो महिलाओं के साथ बलात्कार व हत्या की घटना को भी सेना ने दबाने की कोशिश की थी। जम्मू-कश्मीर में ऐसी फर्जी मुठभेड़ें या सेना द्वारा मानवाधिकारों का हनन नई बात नहीं है। ऐसे में क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि सेना को माओवादियों से निपटने के काम में लगाया जाए तो परिणाम क्या होंगे।
माओवाद के खतरे से निपटने के लिए देश में सुनियोजित तरीके से सैन्य बलों के प्रयोग का माहौल तैयार किया जा रहा है। सरकारी तंत्र हर माओवादी घटना के बाद कुटनीतिक तरीके से ‘सेना के प्रयोग न करने’ की बात कहता है और मीडिया का एक खेमा सेना का प्रयोग न करने पर सरकार की आलोचना करता है। लेकिन इस पूरी बहस में ऐसे अभियानों में सेना या अर्द्धसैनिक बलों के कलंकित इतिहास को छोड़ दिया जाता है। क्या हम पंजाब को भूल गए हैं, जहां खालिस्तानी उग्रवादियों से निपटने के लिए सेना के प्रयोग का दंश अभी भी वहां की जिंदगी का हिस्सा है। या कि हम मणिपुर की ओर देखना नहीं चाहते जहां की बूढ़ी महिलाओं भारतीय सेना को बलात्कार करने के लिए निमंत्रित कर चुकी हैं। जम्मू कश्मीर को हम जानबूझ कर भूल जाते हैं क्योंकि हमें लगता है कि उसे सेना के माध्यम से ही अपने कब्जे में रखा जा सकता है। लेकिन यहीं हम वहां के नागरिकों के दर्द को महसूस नहीं कर पाते जो कभी-कभी हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद मीडिया की सुर्खियां बनती हैं। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्या माओवाद से निपटने के नाम पर आधे देश को सेना के बूटों तले रौंदे जाने की छूट दी जा सकती है।
कई मौकों पर प्रधानमंत्री खुद नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार देश के 19 राज्य माओवाद से प्रभावित हैं। सेना के नागरिक क्षेत्रों में कलंकित इतिहास को देखते हुए इन राज्यों में सेना के प्रयोग की संभावनाओं पर व्यापक विरोध हो रहे है। सेना के अधिकारी खुद भी अपने ही देश में किसी व्यापक विध्वंसात्मक ऑपरेशन से नहीं जुड़ना चाहते है। सेना पर मानवाधिकारों के उल्लघंन को भी इसी आलोक में देखना चाहिए। अशांत क्षेत्रों में जहां सेना व अन्य सुरक्षा एजेंसियों पर लगातार यह दबाव रहता है कि वो कुछ ऐसा कर दिखाए जिससे वहां उनके होने की उपयोगिता सिद्ध हो और दहशत कायम रहे। 1984 के दौर में अशांत पंजाब में सेना व खुफिया एजेंसियों ने अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए राजनीतिक इशारों पर हजारों सिक्ख युवकों का कत्लेआम किया। इसके निशान अभी भी पंजाब की धरती में गड़े मिल जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में सेना कश्मीरी मुस्लिम युवकों की हत्याओं के लिए बदनाम है। सेना व सुरक्षा एजेंसियों के इस इतिहास को कनाडा उच्चायोग्य के सवालों की तरह खारिज नहीं किया जा सकता। सच्चाई यही है कि हमारी सेना नागरिक क्षेत्रों में अपने ही देश के नागरिकों की हत्या करने से नहीं चूकती। यह अलग बात है कि हर दौर में इन हत्याओं के लिए अलग-अलग राजनीतिक कारण जिम्मेदार होते हैं। नागरिक क्षेत्रों में सेना का दमन शुद्ध रूप से राजनैतिक घटना होती है, इसके लिए अकेले सेना को दोषी नहीं करार दिया जा सकता। समय-समय पर अपने खिलाफ उठने वाले सवालों व जनआक्रोश से निपटने के लिए सत्ता सेना को पालतू कुत्ते की तरह इस्तेमाल करती है। माओवाद का हौव्वा खड़ा करने और फिर सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों के प्रयोग के पीछे भी सत्ता का यही मकसद काम कर रहा है। खजिन संपदा वाले राज्य झारखण्ड, छत्तीसगढ, पं बंगाल, उड़ीसा व आंध्र प्रदेश में करीब 70 हजार अर्द्धसैनिक बल लगाया जा चुका है। वहां खजिन बहुल इलाकों से आदिवासियों को उजाड़कर सरकारी कैम्पों में बसाया जा रहा है। बहुराष्ट्ीय कम्पनियों के लिए पहली बार इतने बड़े पैमाने पर अर्द्धसैनिक बलों का प्रयोग किया गया। हालांकि यह सबकुछ माओवाद हिंसा से निपटने के नाम पर किया जा रहा है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक कारणों को उन सवालों की तरह नजरअंदाज किया जा सकता जो कनाडाई उच्चायोग्य ने मानवाधिकार हनन के संबंध में भारतीय सैन्य एजेंसियों पर उठाए थे। दरअसल ऐसा भी नहीं है कि केवल भारतीय सेना ही मानवाधिकारों का हनन करती है या कनाडा-अमेरिका की सेना नागरिक क्षेत्रों में मानवाधिकारों का सम्मान करती है। बल्कि किसी भी देश के नागरिक क्षेत्रों में सेनाओं का यही इतिहास रहा है कि वो मानवाधिकारों की हत्या के बल पर ही वहां कथित शांति स्थापित करती हैं। संदेह के आधार पर निर्दोष लोगों की जान ले लेना उनके कार्यपद्धति का हिस्सा है। कई ऐसे काले कानून बकायदे उन्हें ऐसी हत्याओं की इजाजत भी देते हैं।
पिछले दिनों भारत में कनाडा के उच्चायोग्य ने कई सैन्य व खुफिया सेवा के अधिकारियों को अपने देश का वीजा देने से मना कर दिया। उच्चायोग्य का कहना था कि कुछ भारतीय सैन्य, अर्द्धसैन्य व खुफिया एजेंसियां मानवाधिकारों के हनन व चुनी सरकारों के खिलाफ काम कर रही हैं। उच्चायोग्य की इस टिप्पणी पर विदेश मंत्रालय ने कड़ी आपत्ति जाहिर की। लेकिन अभी हाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी जम्मू-कश्मीर की यात्रा के दौरान अपरोक्ष रूप से यह स्वीकार किया कि इस सीमावर्ती राज्य में सेना मानवाधिकारों का हनन कर रही है। उन्होंने यह भी कहा कि ‘इसे बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।’
प्रधानमंत्री को यह बयान उन परिस्थितियों में देना पड़ा जब कि सेना पर कई फर्जी मुठभेड़ों में निर्दोष कश्मीरियों की हत्या के आरोप लग रहे हैं और वहां की जनता उद्वेलित है। कश्मीर के माछिल इलाके में तीन निर्दोष युवकों को आतंकी बताकर मार दिया गया। काफी दबाव व प्रधानमंत्री की कश्मीर यात्रा को देखते हुए सेना ने आरोपी सैन्य अधिकारियों पर मुकदमा दर्ज करने की अनुमति दी। इससे पहले शोपियां में दो महिलाओं के साथ बलात्कार व हत्या की घटना को भी सेना ने दबाने की कोशिश की थी। जम्मू-कश्मीर में ऐसी फर्जी मुठभेड़ें या सेना द्वारा मानवाधिकारों का हनन नई बात नहीं है। ऐसे में क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि सेना को माओवादियों से निपटने के काम में लगाया जाए तो परिणाम क्या होंगे।
माओवाद के खतरे से निपटने के लिए देश में सुनियोजित तरीके से सैन्य बलों के प्रयोग का माहौल तैयार किया जा रहा है। सरकारी तंत्र हर माओवादी घटना के बाद कुटनीतिक तरीके से ‘सेना के प्रयोग न करने’ की बात कहता है और मीडिया का एक खेमा सेना का प्रयोग न करने पर सरकार की आलोचना करता है। लेकिन इस पूरी बहस में ऐसे अभियानों में सेना या अर्द्धसैनिक बलों के कलंकित इतिहास को छोड़ दिया जाता है। क्या हम पंजाब को भूल गए हैं, जहां खालिस्तानी उग्रवादियों से निपटने के लिए सेना के प्रयोग का दंश अभी भी वहां की जिंदगी का हिस्सा है। या कि हम मणिपुर की ओर देखना नहीं चाहते जहां की बूढ़ी महिलाओं भारतीय सेना को बलात्कार करने के लिए निमंत्रित कर चुकी हैं। जम्मू कश्मीर को हम जानबूझ कर भूल जाते हैं क्योंकि हमें लगता है कि उसे सेना के माध्यम से ही अपने कब्जे में रखा जा सकता है। लेकिन यहीं हम वहां के नागरिकों के दर्द को महसूस नहीं कर पाते जो कभी-कभी हिंसक विरोध प्रदर्शनों के बाद मीडिया की सुर्खियां बनती हैं। ऐसे में यह सवाल लाजिमी है कि क्या माओवाद से निपटने के नाम पर आधे देश को सेना के बूटों तले रौंदे जाने की छूट दी जा सकती है।
कई मौकों पर प्रधानमंत्री खुद नक्सलवाद को देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। सरकारी रिपोर्टों के अनुसार देश के 19 राज्य माओवाद से प्रभावित हैं। सेना के नागरिक क्षेत्रों में कलंकित इतिहास को देखते हुए इन राज्यों में सेना के प्रयोग की संभावनाओं पर व्यापक विरोध हो रहे है। सेना के अधिकारी खुद भी अपने ही देश में किसी व्यापक विध्वंसात्मक ऑपरेशन से नहीं जुड़ना चाहते है। सेना पर मानवाधिकारों के उल्लघंन को भी इसी आलोक में देखना चाहिए। अशांत क्षेत्रों में जहां सेना व अन्य सुरक्षा एजेंसियों पर लगातार यह दबाव रहता है कि वो कुछ ऐसा कर दिखाए जिससे वहां उनके होने की उपयोगिता सिद्ध हो और दहशत कायम रहे। 1984 के दौर में अशांत पंजाब में सेना व खुफिया एजेंसियों ने अपनी उपयोगिता सिद्ध करने के लिए राजनीतिक इशारों पर हजारों सिक्ख युवकों का कत्लेआम किया। इसके निशान अभी भी पंजाब की धरती में गड़े मिल जाते हैं। जम्मू-कश्मीर में सेना कश्मीरी मुस्लिम युवकों की हत्याओं के लिए बदनाम है। सेना व सुरक्षा एजेंसियों के इस इतिहास को कनाडा उच्चायोग्य के सवालों की तरह खारिज नहीं किया जा सकता। सच्चाई यही है कि हमारी सेना नागरिक क्षेत्रों में अपने ही देश के नागरिकों की हत्या करने से नहीं चूकती। यह अलग बात है कि हर दौर में इन हत्याओं के लिए अलग-अलग राजनीतिक कारण जिम्मेदार होते हैं। नागरिक क्षेत्रों में सेना का दमन शुद्ध रूप से राजनैतिक घटना होती है, इसके लिए अकेले सेना को दोषी नहीं करार दिया जा सकता। समय-समय पर अपने खिलाफ उठने वाले सवालों व जनआक्रोश से निपटने के लिए सत्ता सेना को पालतू कुत्ते की तरह इस्तेमाल करती है। माओवाद का हौव्वा खड़ा करने और फिर सैनिक व अर्द्धसैनिक बलों के प्रयोग के पीछे भी सत्ता का यही मकसद काम कर रहा है। खजिन संपदा वाले राज्य झारखण्ड, छत्तीसगढ, पं बंगाल, उड़ीसा व आंध्र प्रदेश में करीब 70 हजार अर्द्धसैनिक बल लगाया जा चुका है। वहां खजिन बहुल इलाकों से आदिवासियों को उजाड़कर सरकारी कैम्पों में बसाया जा रहा है। बहुराष्ट्ीय कम्पनियों के लिए पहली बार इतने बड़े पैमाने पर अर्द्धसैनिक बलों का प्रयोग किया गया। हालांकि यह सबकुछ माओवाद हिंसा से निपटने के नाम पर किया जा रहा है, लेकिन इसके पीछे राजनीतिक कारणों को उन सवालों की तरह नजरअंदाज किया जा सकता जो कनाडाई उच्चायोग्य ने मानवाधिकार हनन के संबंध में भारतीय सैन्य एजेंसियों पर उठाए थे। दरअसल ऐसा भी नहीं है कि केवल भारतीय सेना ही मानवाधिकारों का हनन करती है या कनाडा-अमेरिका की सेना नागरिक क्षेत्रों में मानवाधिकारों का सम्मान करती है। बल्कि किसी भी देश के नागरिक क्षेत्रों में सेनाओं का यही इतिहास रहा है कि वो मानवाधिकारों की हत्या के बल पर ही वहां कथित शांति स्थापित करती हैं। संदेह के आधार पर निर्दोष लोगों की जान ले लेना उनके कार्यपद्धति का हिस्सा है। कई ऐसे काले कानून बकायदे उन्हें ऐसी हत्याओं की इजाजत भी देते हैं।
1 टिप्पणी:
बकबास और झूँठ का पुलिंदा. ख़ास मकसद से लिखा
गया लेख।
एक टिप्पणी भेजें