11 जून 2009

आखिर पप्पू क्यों हुआ खासमखास

शाहनवाज आलम
बड़े जोर-शोर से चर्चा है कि इस बार का चुनाव ‘पप्पू’ केंद्रित होने जा रहा है। इसके लिए तर्क दिए जा रहे हैं कि भारत युवा आबादी वाला सबसे बड़ा देश है, जिनकी औसत आयु बीस से पैंतालीस वर्ष के बीच है। इसी औसत आयु के चालिस करोड़ तीस लाख युवाओं के पास इस बार सरकार बनाने की कुंजी है। जो बिल्कुल सही भी है। लेकिन चूंकि ये युवा भी किसी दूसरे मतदाता समूह की तरह कई वर्गों और खांचो में बंटे हैं। जिनके मूलभूत सवालों को हल करने के लिए नीतिगत स्तर राजनैतिक दलों के पास कोई ठोस कार्यक्रम नहीं है। इसलिए इस बार उनके सवालों को दबाने और उसके समानान्तर दूसरे तरह के छद्म एजेण्डें खड़ा करने की कवायद आक्रामक तरीके से चलाई जा रही है। ताकि उनकी एक ऐसी अगम्भीर छवि निर्मित हो जाए जिसे आसानी से ऐड्रेस किया जा सके। युवाओं को पप्पू कहना इसी अभियान का हिस्सा है।
दरअसल हमारे जैसे मुददा विहीन लोकतंत्र में चुनावों के साथ नये तरह की सरकार बनने वाली बात सिर्फ एक मिथक है। जिसे सता तंत्र रचता है। जबकि होता ठीक इसके उलट है। यानि यह कहना ज्यादा सही होगा कि हर चुनाव के बाद एक नए तरह की जनता का निर्माण होता है जिसे हम जनता का मेकओवर कह सकते हैं।
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1 टिप्पणी:

मोहित ने कहा…

यहाँ पर बात यूवाओं को केवल पप्पू घोषित करने से ही नही ख़त्म हो जाती है , उनको मुख्य धारा की राजनीती से भी काटा जा रहा है . आज राजनीती में वंशवाद छाया हुआ है जबकि विश्वविध्यालयों में चुनावों में पाबन्दी लगा दी गई है जिससे की कोई भी जागरूक छात्र राजनीती में ना आ पाए . छात्रसंघ यूवा राजनीती की पहली और सबसे महत्वपूर्ण सीढी है जिससे की आज के छात्रों को वंचित कर दिया गया है ।

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