10 जुलाई 2009

महिला आरक्षण या पहचान की राजनीति

लक्ष्मण प्रसाद
महिला आरक्षण के मुद्दे को अगड़ा बनाम पिछड़ा बनाने की राजनीति नए सिरे से शुरू हो चुकी है। संसद में र ाष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल अपने संसद अभिभाषण के दौरान सौ दिन के अंदर महिला आरक्षण विधेयक पारित करने का संकल्प ले चुकी हैं। यह संकल्प पहले भी 1996 में संसद में पेश हुआ था। लेकिन भारी विरोध को देखते हुए इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। इस बार के विराध भी नए रूप में सामने आ रहे हैं। जातिगत आरक्षण और मंडल आंदोलन के महारथी शरद यादव ने अपना रोष व्यक्त करते हुए कहा कि यदि महिला आरक्षण विधेयक पारित हुआ तो इसी संसद में जहर खा कर जान दे देंगे दूसरी तरफ लालू यादव ने कहा कि वे कलावती और भगवतिया देवी जैसी पिछड़े वर्ग की महिलाओं को संसद में आरक्षण के मातहत देखना चाहते हैं। तो वहीं भाजपा को कोटे के अंदर कोटा और महिलाओं के लिए 33 फीसदी से कम आरक्षण मंजूर ही नहीं है।
पिछले 13 सालों से महिला आरक्षण का मुद्दा संसद में सांप की तरह बाहर और भीतर होता रहा है। लेकिन अभी तक इसका कोई सकारात्मक हल नहीं निकल पाया, अब सवाल यह है कि क्या सिर्फ आरक्षण ही महिलाओं का बेड़ा पार कर सकता है। विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के रूप में भारत को प्रसिद्धि मिली है। जहां महिला-पुरुष दोनों को बराबर-बराबर का हक मिला है। किसी स्तर पर किसी भी पद के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार आधी दुनिया को संविधान के अन्य अधिकारों की तहत स्वतज् प्राप्त है। तो फिर इसके लिए संसद में अलग से 33 फीसदी महिला आरक्षण की जरूरत क्यों पड़ रही है। जबकि मूल समस्या समाज के अंदर çस्त्रयों को देखने की मानसिकता जो सकारात्मक तरीके से कम और ओछी राजनीति के के रूप में अधिक है, के तहत हल करने की कोशिश की जा रही है।
महिलाओं का समाज में उद्धार कैसे हो ये प्रश्न कानूनी कम सामाजिक-राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक ज्यादा है। महिलाओं के लिए आरक्षण का अधिकार समतामूलक समाज बनाने के लिए जरूरी है। महिलाओं के लिए कानूनी अधिकार बनाए जाएं लेकिन उससे पहले हमें महिलाओं को उनके अपने अधिकारों के प्रयोग के अधिकार तो देने ही होंगे।
जिस तरह एक पुरुष को खेलने, पढ़ने और अपनी मर्जी के हिसाब से काम करने की स्वतंत्रता मिलती है, उसी प्रकार çस्त्रयों को भी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। ताकि वह अपने समाज में अपनों के लिए एक अच्छा सा परिवेश बना पाएं और पारिवारिक फैसले ले सकें व उनके क्रियान्वयन में अहम भूमिका निभाएं लेकिन टीवी के पर्दे और मीडिया तक में भी समाज के अमीर घरानों को ही जगह दी जाती है। हर मोड़ पर उसके आगे बढ़ते कदमों को वहीं दबा दिया जाता है और यों ही अंत तक उसका मन कुछ करने को सोचता है मगर वो लाचार अपनी वैचारिक स्वतंत्रता को दबाए इस दुनिया से रुखसत हो जाती है। जबकि कानूनी तौर पर उसे विचार रखने और फैसले लेने की आजादी है लेकि न सामाजिक तौर पर वो इस योग्य नहीं समझी जाती है।
पंचायती चुनावों में 33 फीसदी महिलाएं बतौर सरपंच चुन ली जाती हैं लेकिन इनमें मुश्किल से 10 फीसदी महिलाएं ही अपने कायोZ को स्वतंत्र रूप से कर पाती हैं। बाकी 90 फीसदी महिलाएं प्रधानी का क, ख, ग तक नहीं जानतीं जिसके कारण वह प्रधानपति का मोहरा ही बनकर रह जाती हैं। इसके पीछे बड़ा कारण यह है कि उनके पति द्वारा घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं दी जाती है। यदि देखें तो पंचायत के स्तर पर स्त्री आरक्षण मामूली बात नहीं है यह लोकतंत्र और जनमत की पहचान को पु ता करने वाले विधेयक हैं। अब यह बात कौन बताए कि पंचायत के प्रधान पद पर महिला है मगर काम करने की जि मेदारी आज भी पुरुष अपनी ही समझ रहा है। महिलाएं नाम की दावेदार हैं। हिस्सेदारी तो बहुत कम है। इस मानसिकता को कौन दूर करेगा। उनकी अपनी जागरूरकता ही इसे दूर कर सकती है।

...तो ज़हर खा लेंगे शरद यादव
'महिला विधेयक का स्वरुप मंज़ूर नहीं'
सौ दिनों के एजेंडे में महिला आरक्षण

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

googd attempt:hare ram mishra

अपना समय