21 दिसंबर 2009

संबोध

- बृजेन्द्र कौशिक

हथेली पर उगा हुआ
ल्हूलुहान-हमारा यह प्यारा देष
यत्र-तत्र-सर्वत्र गूंजते
बट-बुलेट-बूटों के नृशंस नग्न नृत्य
इस हिलती हुई इमारत से
चिंतातुर देशवासियों!
कल्प तरू की जड़ों में लगी दीमकों से
हम बेखबर नहीं रहना चाहते

हमें विष्वास है
और-औरों की तरह
एक दिन - तुम भी जरूर सोचोगे
अपनी पराजय का अतीत
अपने अस्तित्व का वर्तमान
अपने सपनों का भविष्य

याद रखो
अगर बाज से बचाव नहीं करेगा परिन्दा
तो
वह रह नहीं सकता है जिंदा।

साक्षी है सदी का सत्य
कि पर्वत हो या राई
खुद ही लड़नी पड़ती है
सभी को अपनी लड़ाई


कविता पोस्टर - रवि कुमार

2 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

याद रखो
अगर बाज से बचाव नहीं करेगा परिन्दा
तो
वह रह नहीं सकता है जिंदा।

-बहुत सही!!

रवि कुमार, रावतभाटा ने कहा…

हम तो आज देखे...
कौशिक जी की एक शानदार कविता...

अपना समय