(तीसरी किश्त)
लेनिन जिनके बड़े भाई को ज़ार को मारने का षड़यंत्र करने के आरोप में मौत की सज़ा सुनाई गई, ने व्यक्तिगत रूप से अराजकतावाद को नज़दीक से देखा था। 'अराजकतावाद और समाजवाद' शीर्षक प्रबंधों में उन्होंने खुद ही समझने के लिहाज से सन १९०१ में ही अराजकतावाद की खास विशेषताओं को बहुत सटीक ढंग से विश्लेषित किया था।
आश्चर्य है कि यह वर्णन सौ साल बाद भी हमारे आज के 'माओवादियों' के लिए उपयुक्त है। "पूंजीवाद की विभीषिका के परिणामस्वरूप उन्माद की ओर अग्रसर निम्न पूंजीवादियों' की हताशा और उतावलापन" आज भी देखा जा सकता है-- वर्ना ससनीखेज़ 'ऎक्शन' (वारदातों) के सिलसिले के साथ-साथ चलने वाला आत्मसमर्पणों का तांता, दुस्साहसवाद के चलते भारी नुक्सान (जैसा कि आंध्र प्रदेश में) और मुखबिरी के चलते वरिष्ठ नेताओं की गिरफ़्तारी को भला हम कैसे समझ सकते हैं? उनके पास हथियारबंद दस्तों की कार्रवाई ही हर चीज़ का एकमात्र इलाज है---जिसका इस्तेमाल वे न केवल वर्ग-शत्रुओं और राजसत्ता से निपटने में करते हैं, बल्कि कम्यूनिस्ट क्रांतिकारियों से उनकी जो बहसें हैं उन्हें भी इसी रास्ते हल करते हैं( अगस्त २००४ में भाकपा (मा.ले.) के पालीगंज(बिहार) आफ़िस पर रात में हमला कर सोते में पांच कामरेडों की हत्या करने की घटना को याद करें)। यदि इस तरह की वारदातें निकृष्ट कोटि का अराजकतावाद और आतंकवाद नहीं है, तो भला और उन्हें क्या कहा जाए? पालीगंज में उन्होंने सत्तारूढ़ राष्ट्रीय जनता दल से मिलीभगत के ज़रिए इस घटना को अंजाम दिया (जिस राजद को उन्होंने विधानसभा चुनावों में अप्रत्यक्ष और अघोषित समर्थन भी दिया)। आधिकारिक तौर पर भी उन्होंने इस हत्याकांड को औचित्यपूर्ण बताया। आंध्र प्रदेश में उन्होंने कांग्रेस को सत्ता में लाने में मदद की। पश्चिम बंगाअल में उन्होंने सुविधानुसार अलग अलग समयों पर अलग अलग इलाकों में स्थानीय स्तर पर माकपा और तृणमूल कांग्रेस दोनों के साथ समझौते किए। बूर्जुआ/चुनावी राजनीति से उनके 'सैद्धांतिक' अलगाव का यह चेहरा है जिसका कुल मिलाकर परिणाम होता है इस तरह की राजनीति के सामने उनका अवसरवादी समर्पण।
चुनावों के पूर्ण और स्थायी बहिष्कार की कार्यनीति (जो अब रणनीति के दर्जे तक पहुंची हुई है) के नाम पर सताधारी शासक वर्ग की पार्टियों के साथ इस तरह के गुपचुप समझौते, या (जैसा कि बंगाल में देखा गया) मुख्य शत्रु से लड़ने के नाम पर इस तरह के समझौते करने वाले भरतीय 'माओवादी' नेपाली माओवादियों के नेतृत्व को हटाने का आह्वान कर रहे हैं। नेपाली माओवादी नेतृत्व ने जिस कार्यनीतिक लचीलेपन का परिचय दिया है, वह इनकी निगाह में 'संशोधनवाद' है। २० जुलाई, २००९ को जारी खुले खत में नेपाली माओवादी नेतृत्व पर जो आरोपपत्र इन्होंने पेश किया है, उसमें उसके अपराधों में महज सरकार चलाना ही नहीं , बल्कि 'राजनीतिक सत्ता पर कब्ज़ा करने से पहले ही चुनाव में भाग लेने', ' राजा और राजशाही को उखाड़ फेंकने के एकमात्र लक्ष्य के नाम पर प्रतिक्रियावादी, सामंती और दलाल राजनीतिक दलों के साथ गठजोड़ बनाने', 'मोहन बिक्रम सिंह के मशाल नामक धड़े से टूट कर आए एक ग्रुप जो खुद को दक्षिणपंथी साबित कर चुका है, के साथ आपकी पार्टी की एकता' आदि तमाम आरोप शामिल हैं।
यह कोई नहीं कह रहा है कि नेपाल की कम्यूनिस्ट पार्टी ( माओवादी) गल्तियों से परे है। जब आप किसी नए रास्ते पर कदम बढ़ाते हैं तो गल्तियां स्वाभाविक हैं, जिन्हें समय के साथ अनुभवों का सार-संकलन करते हुए पहचान कर दुरुस्त करने की आप से उम्मीद की जाती है, और यहां ज़रूर आपके मित्र अपनी कामरेडाना आलोचना और सुझावों से आपकी मदद कर सकते हैं। लेकिन भाकपा (माओवादी) ने जिस तरह नेपाल के साहसिक प्रयोगों को नकारा है, वह उसकी अतिवादी कट्टरता, बेलगाम लफ़्फ़ाज़ी और उस वर्ग-संघर्ष के गतिविग्यान को समझने में उनकी नाकामी को दर्शाता है जो हाल के दिनों में दुनिया के स्तर पर चलने वाले सबसे प्रभावशाली जन-आंदोलनों में से एक के बतौर नेपाल में उभरा।
" अराजकतावाद उल्टा पूंजीवादी व्यक्तिवाद है----अराजकतावाद हताशा कि उपज है। वह अस्थिर बुद्धिजीवी या घुमंतुऒं की मानसिकता है, न कि सर्वहारा की।......वह सर्वहारा के वर्ग संघर्ष को समझने में नाकामयाबी है। वह पूंजीवादी समाज में राजनीति का ऊटपटांग निषेध है। वह संगठन और मज़दूरों के शिक्षण-प्रशिक्षण की भूमिका को समझने में असफ़ल है.....वह सभी रोगों के ऎसे इलाज की तरह है जो एकतरफ़ा और विश्रृंखलित तरीकों से किया जाता है......वह राजनीति के निषेध की आड़ में मज़दूर वर्ग को पूंजीवादी राजनीति का अधिनस्थ बनाता है।" ( लेनिन: अराजकतावाद और समाजवाद)
पहली और दूसरी किश्त पढ़ें
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें