30 जून 2009

क्या गढ़ रहा है बाजार

राघवेंद्र प्रताप सिंह

मीडिया का मतलब जहां तक लोग ऐसा समझते हैं कि वह बातों को से प्रेषित करता है। यदि सूचनाएं भ्रम पैदा करें और लोगों को दिग्भ्रमित करें तो परिणाम घातक होंगे। आजकल टीवी के माध्यम से जो विज्ञापन प्रस्तुत हो रहे हैं वह किसी डबल एक्स फिल्म से कम नहीं हैं। इन विज्ञापनों में अंडरवियर, परफ्यूम, दंतमंजन, साबुन से लेकर मोबाइल तक शामिल हैं। इस प्रचार शैली को दो श्रेणी में बांटा जा सकता है। पहली पुरातन पितृसत्तात्मक शैली और दूसरी आधुनिक मर्दवादी शैली। जहां एक तरफ घर में गृहणी एमडीएच मसाले से पति को खुश करेगी वहीं दूसरी तरफ अंडरवियर देखकर कुछ जलपरियां पुरुष के प्रति आकर्षित दिखाई पडें़गी। लक्स के अंडरवियर आप पहनें और समुद्री बीच पर खड़े हों तो डॉçल्फन मछलियां उछलेंगी। आम तौर पर ऐसे प्रचार दर्शकों के अंदर उत्तेजना पैदा करते हैं। इस तरह के विज्ञापनों की सं या एक दो नहीं बल्कि आधे घंटे के सीरियल में तीन से चार बार दिखाई पड़ेगा। इसमें अमूल माचो अंडरवियर का तो कहना ही क्या।
मर्द को स्टीरियो टाइप की इमेज में बांधा जा रहा है कि वह बलशाली हो, गुड लुकिंग हो, सेक्सी हो। यहां पर सवाल किसी के अच्छे दिखने का नहीं है लेकिन नवउदारवादी बाजार एक तरफ बराबरी की बात करता है दूसरी तरफ सामंती मूल्यों को भी स्थापित करता है। क्या मदाüनगी का पैमाना या सौंदर्य का पैमाना इन विज्ञापनों में दिखाए जा रहे मर्द के अनुरूप है। यह नितांत भ्रम है। दूसरे इन प्रचारों के माध्यम से बच्चों पर गलत प्रभाव पड़ता है। जिनमें बचपन से पहले ही जवानी आ जाती है। संस्कृति के ठेकेदार सेक्स पर जागरूकता फैलाने को अश्लीलता का आरोप लगाते हैं। लेकिन जब इस तरह की अश्लीलता जो घर-घर में परोसी जाती है इस पर यह मौन धारण किए रहते हैं।
एक्स बॉडी डियो और गाçर्नयर के विज्ञापन में तो साफ-साफ यौन आमंत्रण रहता है। यदि यह परफ्यूम लगाएंगे तो लड़कियां फोन नंबर देकर घर पर बुलाएंगी। वह अपने सपने में आपको बिस्तर पर देखना चाहेंगी। यह क्या है? यह अश्लीलता नहीं है। जबकि ऐसे विज्ञापनों से पहले तो किसी तरह का संदेश भी नहीं दिया जाता है कि इसे 18 साल से कम उम्र वाले न देंखें। इससे हम अपने देश के बचपन को मार कर उसे जल्द ही जवान कर देते हैं। इसी का कारण है कि बचपन में ही बहुत सारे बच्चे बालात्कार, लड़कियों को छेड़ने जैसे अपराध कर डालते हैं। इनके पीछे यही माहौल काम करता है।
यदि यही विज्ञापन शैली महिला-पुरुष के जेंडरगत या सेक्स की समस्याओं को लेकर जागरूरता पैदा करती तो एक स्वस्थ्य समाज बनता। मगर इन विज्ञापनों ने तो युवाओं को कुंठाग्रस्त ही किया है। जो लड़का परफ्यूम, बाइक, महंगे मोबाइल नहीं यूज करता वह पिछड़ा है। नतीजतन समाज में युवाओं के दो वर्ग हो रहे हैं। एक कुंठाग्रस्त पिछड़ा युवा दूसरा ल पट युवा। जिसका सामाजिक वैचारिकी से कोई लेना-देना ही नहीं है। हमारा बाजार क्या गढ़ रहा है? यह सामंतवादी गठजोड़ के विज्ञापन हैं। मर्द की श्रेष्ठता के सामंती मूल्यों को पंूजीवाद नए-नए तरीकों से बाजार में प्रस्तुत कर रहा है। जिस देश में लगभग 70 प्रतिशत आबादी युवाओं की है वहीं पर 80 प्रतिशत आबादी 20 रुपए से भी कम आमदनी पर गुजारा कर रही है। तो ऐसे में तो लाखों-करोड़ों युवा गरीबी के कारण कुछ भी खरीद नहीं पाते हैं।
हमारे बाजार में तो लड़की को एक माल के रूप में प्रचारित किया जाता है। आज जो स्त्री मुçक्त का सपना दिखाया जा रहा है। उसमें से कहीं भी उसकी राजनीतिक समझदारी को मुद्दा नहीं बनाया जा रहा है। यह यौनिकता का उभार ही है जिसे प्रकट करके इसेे समझने का प्रयास किया जा रहा है। एक तरफ मर्द की श्रेष्ठता दूसरी तरफ स्त्री का माल बनना। यह सब हमारे समाज के ताने-बाने को कमजोर ही करता है। इतिहास काल में स्त्री पर नियंत्रण करके उसे गुलाम बनाया गया और अब माल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह सामंतवाद से बाजारवाद की यात्रा है। अ ाी सानिया मिर्जा द्वारा एक स्कूटी का विज्ञापन दिखाया जाता है जहां पर लड़के आह भरते हुए दिखाई पड़ते हैं कि क्या वो दिन था जब लड़कियां उनके पीछे बैठती थीं। इनका मतलब है पीछे बैठना ही लड़कियों की नियति है। विज्ञापन में यह मिथ टूटने के बजाय मजबूत होता दिखाई पड़ता है।

29 जून 2009

मौत मांग रहे हैं पलामू के पांच हजार किसान


मुन्ना कुमार झा

भारत के इतिहास में यह ऐतिहासिक घटना भी हो सकती है और एतिहासिक त्रासदी भी. लेकिन यह घटना तो है. पलामू के छतरपुर इलाके के लगभग 5000 किसान मरना चाहते हैं. पिछले तीन साल से सूखे से पीड़ित पलामू के ये किसान अब चाहते हैं कि सरकार उन्हें राहत तो नहीं दे सकी तो कम से कम मरने की इजाजत दे दे. अर्जी अभी पांच हजार किसानों की है लेकिन 30 हजार और किसान इच्छामृत्यु की अपनी अर्जियां तैयार कर रहे हैं.
छतरपुर के 5000 किसानों ने इच्छामृत्यु के लिए जिलाधिकारी, राज्य स्तर के अधिकारी, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय, राज्यपाल झारखण्ड, मुख्य न्यायाधीश झारखण्ड, राज्यपाल के सलाहकार परिशद के सदस्य, सभी राष्ट्रीय व क्षेत्रीय राजनीतिक दलों के सदस्य को इच्छा मृत्यु के आदेश देने के संबंध में चिट्ठी भेजी है, जिसमें तीन साल से लगातार सूखा पड़ने से त्रस्त किसानों ने इच्छा मृत्यु करने की बात कही है। छतरपुर के किसानों का कहना है कि बार - बार सुखाड़ पड़ने के कारण हम लोग कर्ज के बोझ तले दबते जा रहे हैं। पिछले तीन सालों में जो भी फसल लगाने के प्रयास किये गये वे सारे प्रयास नाकाम ही रहे। ऊपर से महाजन का कर्ज हम पर दिन दूनी रात चौगुनी होता जा रहा है। पिछले तीन साल में न तो किसी प्रखंड के अधिकारी ने सुध ली न ही कोई जिलाधिकारी ने। सुखाड़ का भयावह मंजर साल दर साल गुजरता गया लेकिन, सरकारी अफसरशाही बर्बाद हो चुके किसानों की 2006 से अब तक अनदेखी करती आयी हैं।
गोपाल सिंह, विष्णुदेव सिंह, महंग साव, बुद्धि सिंह, सदानन्द सिंह जैसे कई किसान और खेतिहर मजदूर लाखों के कर्ज में डूबकर भी भूखे पेट रहने पर मजबूर हैं। ऐसा नहीं कि यही कुछ नाम है जो भूखे पेट हैं या लाखों का कर्ज है, ऐसे छोटे, मझौले और खेतिहर किसानों की संख्या हजारों में है। संकट का यह अंतिम पायदान अब इन किसानों के लिए इच्छामृत्यु तक पहुंच गयी है। सवाल यह है कि विदर्भ में जब सैकड़ों किसानों ने आत्महत्या कि तब कहीं जाकर सरकार जगी, आंध्रप्रदेश के किसानों ने आत्महत्या किया तब जाकर सरकार जागी, कुछ दिन पहले जब बुंदेलखंड में किसानों ने आत्महत्या किया तब सरकार की नींद खुलती है। यह सब साल दल साल किसानों कि आत्महत्या का मामला ब्रेड बटर की तरह हो चुका है, जिस पर सरकारी तंत्र सॉस लगाकर खाने का काम करते हैं।
ऐसा नहीं है कि सिर्फ पलामू में ही किसान सुखाड़ से त्रस्त है, पूरे सूबे में सुखाड़ की वजह से आदिवासी किसानों की हालत भी गंभीर बनी हुई है, राज्य में लगभग 18 जिलों में सूखे ने खेती और किसानों को प्रभावित किया है. पश्चिमी सिंहभूम जिले के कई गांव में आदिवासी किसान भूख और सुखाड़ की मार झेल रहें हैं, यहां ज्यादातर किसान चावल की ही खेती करते हैं, लेकिन पिछले साल से यहां की खेती बंजर में तब्दील हो चुकी है। पलामू के छतरपुर में 8 साल का रोहर बकरी चराते हुए तथा उसकी 11 साल की बहन पिंकी अपने हाथों में बड़ा घड़ा लिए हुए खुश थे। इसलिए क्योंकि खेती वाले जमीन पर बड़े - बड़े दरार पड़ चुके हैं। पिंकी और रोहन दरारों के अंदर झांक झांक कर जमीन के अंदर में क्या है यह देखने को उतारू थे। यह सब घटनाक्रम इन अबोध बच्चों के लिए एक नया अनुभव होगा। लेकिन इस घटनाक्रम के कारण न जाने कितने बच्चों के भविष्य को अंधकार में ले जाएगी। राज्य में राष्ट्रपति शासन लगे छह महीनों से ज्यादा हो गये हैं। राष्ट्रपति शासन लगने के बाद भी पलामू के किसानों की सुध लेने वाला कोई नहीं है।

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महिला आरक्षण या फिर उनकी अपनी पहचान

लक्ष्मण प्रसाद
संसद में महिला आरक्षण के मुद्रदे को अगड़ा बनाम पिछड़ा बनाने की राजनीति नये सिरे से शुरू हो चुकी है। इस बार राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल अपने संसद अभिभाषण के दौरान सौ दिन के अन्दर महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने का संकल्प ले चुकी है। यह संकल्प पहले भी 1996 में संसद में पेश हुआ था। लेकिन भारी विरोध को देखते हुए इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। लेकिन इस बार विरोध के स्वर नये रूप में सामने आ रहे हैं। जातिगत आरक्षण और मंडल आंदोलन के महारथी शरद यादव ने अपना रोष व्यक्त करते हुए कहा कि यदि महिला विधेयक पारित हुआ तो इसी संसद में जहर खा कर जान दे देंगें दूसरी तरफ लालू यादव ने कहा कि वे ’कलावती‘ और ’भगवतिया देवी‘ जैसी पिछड़े वर्ग की महिलाओं को संसद में आरक्षण के मातहत देखना चाहते हैं। तो वहीं भाजपा को कोटे के अंदर कोटा और महिलाओं के लिए 33 फीसदी से कम आरक्षण मंजूर ही नहीं है।
पिछले 13 सालों से महिला आरक्षण का मुद्दा संसद में सांप की तरह बाहर और भीतर होता रहा है। लेकिन अभी तक इसका कोई सकारात्मक हल नहीं निकल पाया, अब सवाल यह है कि क्या सिर्फ आरक्षण ही महिलाओं का बेड़ा पार कर सकता है। विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के रूप में भारत को प्रसिद्धि मिली है। जहां महिला-पुरुष दोनों को बराबर-बराबर का हक मिला है। किसी स्तर पर किसी भी पद के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार ‘आधी दुनिया’ को संविधान के अन्य अधिकारों की तहत स्वतः प्राप्त है। तो फिर इसके लिए संसद में अलग से 33 फीसदी महिला के लिए आरक्षण की जरुरत क्यों पड़ रही है। जबकि मूल समस्या समाज के अन्दर स्त्रियों को देखने की मानसिकता जो सकारात्मक तरीके से कम और ओछी राजनीति के लिए अधिक है, के तहत हल करने की कोशिश की जा रही है।
महिलाओं का समाज में उद्धार कैसे हो ये प्रश्न कानूनी कम सामाजिक-राजनैतिक एंव मनोवैज्ञानिक ज्यादा है। आरक्षण के अधिकार को सामाजिक न्याय एंव समतामूलक समाज बनाने के लिए जरुरी है। महिला के लिए कानूनी अधिकार बनाया जाए लेकिन उससे पहले हमें महिलाओं को उनके अपने अधिकारों के प्रयोग के अधिकार तो देने ही होंगे ।
जिस तरह एक पुरुष को खेलने पढ़ने एंव अपने मर्जी के हिसाब से हर काम करने की स्वतंत्रता मिलती है,उसी प्रकार स्त्रियों को भी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। ताकि अपने समाज में अपनों के लिए एक अच्छा सा परिवेश बन पाये और परिवारिक फैसले ले तथा उनके क्रियान्यवन में अहम भूमिका निभाए लेकिन ऐसा केवल टीवी के पर्दे एंव मीडिया में भी समाज के अमीर घरानों को ही जगह दी जाती है। लेकिन हर मोड़ पर उसके आगे बढ़ते कदमों को वहीं दबा दिया जाता है और यों ही अंत तक उसका मन कुछ करने को सोचता है मगर वो लाचार अपनी वैचारिक स्वतंत्रता को दबाए इस दुनिया से रुखसत हो जाती है। जबकि कानूनी तौर पर उसे विचार रखने और फैसले लेने की आजादी है लेकिन सामाजिक तौर पर वो इस योग्य नहीं समझी जाती है। पंचायती चुनावों में 33 फीसदी महिलाएं बतौर सरपंच चुन ली जाती हैं लेकिन इनमे मुश्किल से 10 फीसदी महिलाएं ही अपने कार्यो को स्वतंत्र रूप से कर पाती हैं। बाकी 90 फीसदी महिलाओं को प्रधानी का क,ख,ग तक नहीं जानती जिसके कारण वह प्रधानपति का मोहरा ही बनकर कर रह जाती हैं। इसके पीछे बड़ा कारण है कि उनके पति द्वारा घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं दी जाती है। यदि देखें तो पंचायत के स्तर पर स्त्री आरक्षण मामूली बात नहीं है यह लोकतंत्र और जनमत की पहचान को पुख्ता करने वाले विधेयक है। अब यह बात कौन बताए कि पंचायत के प्रधान पद पर महिला है मगर काम करने की जिम्मेदारी आज भी पुरूष अपनी ही समझ रहा है। औरत नाम की दावेदारी है। हिस्सेदारी तो बहुत कम है.
इस बार का विधेयक संसद में आना तय है न जाने राजनेता उससे क्यों कतरा रहे है? क्यों उन्हे इस बार संसद में आने वाली शहरी पढ़ी-लिखी महिला उनके वजूद पर भारी पड़ेंगी,क्या पंचायती राज का ग्रामीण स्तर पर आना उन्हें भयभीत नहीं करता था क्योंकि इन राजनेताओं को मालूम है कि गाॅंव के स्तर पर अभी भी सामंती सत्ता मजबूत है। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि विधानसभा और संसद में भी लोकतंत्र के नाम पर सामंती सत्ता ही राज करती है। यहां महिलाओं की आवाज कहां है। आवाज है तो फिर उसका असर कहां है असर होता तो हमारे समाज का यह स्वरूप न होता। इस चुनाव को कुछ हद तक महिलाएं ही लड़ी हैं जो संसद में मौजूद है। चुनावों में अबकी बार जो हुआ वह प्रमाण है कि स्त्रियों की सीटे नहीं दी जाएंगी क्योंकि वह दिग्गजों एवं बाहुबलियों की जगह घेर लेती हैं। दिग्गज हार गये गम नहीं स्त्री जीत भी जाती तो भी स्त्री ही रहती है जिसकी आवाज की बुलंदी भले रहे, महत्व को लोग नजरंादाज एंव दिग्भ्रमित करते हैं साथ ही उन महिलाओं के साथ हुए जुल्म और शोषण को नजरांदाज कर रहे हैं जिन्हे महिला वर्षों से झेलती आयी हैं जिसमे घरेलू हिंसा, परदे और बेपर्दे होते बलात्कार ,टीवी पर मुद्दे प्रदर्शन, पूंजीखोर लोगों द्वारा खुल्लमखुल्ला और धड़ल्ले से चलते विज्ञापन बाजार इन विभत्स मुद्दों पर कोई निषेध-नियंत्रण नहीं हो रहा। आरक्षण का आधार लेकर आने वाली महिलाएं उनकी स्वेच्छाकारी नीतियों के लिए शुभ होगा या नहीं होगा तो कितना होगा ये दलीलें दी जा रही है।
अतः आवश्वकता महिला आरक्षण की नहीं बल्कि समाज में आधारभूत किसी जमीनी जनांदोलन की है। ये परिवर्तन की इकाई परिवार के एक छोटे अंश से शुरू होती है। माॅ का, एक स्त्री का जागरुकता और आत्मविश्वासी होना ताकि वो अपनी बेटी को जागरुक बना सके और बेटे को प्रतिद्वंदी न बनाकर एक पुरुष बना सके जो स्त्री को एक देह के रुप में न देखकर एक व्यक्ति के रुप में देखंे जो हर रुप में जैसे ममतामई माॅ के रुप में, गृहणी के रुप में, एक अधिकारी के रुप में एक राजनेता एंव जननेता के रुप स्वीकार्यता मिले। आवश्कता तो आरक्षण की नहीं बल्कि समाज में उसकी पहचान की है उसके व्यक्तित्व की रक्षा की है। राजनीति के इस खेल में औरतों के पति जीतेगें या हारंेगे वे खुद नहीं आरक्षण भी पुरुषों को ही आरक्षित एवं सुरक्षित करेंगा।
लक्ष्मण जी पत्रकार और राजनैतिक विचारक हैं.

27 जून 2009

मार्क्सवादी, माओवादी और मालेवादी


चंद्रभूषण



वामपंथी मुख्यधारा का नेतृत्व भारत में लंबे समय से सीपीएम ही करती रही है। लेकिन इस बार के चुनावी नतीजों से सिर्फ उसके लिए बल्कि उसके नेतृत्व में चलने वाली सीपीआई, आरएसपी, फॉरवर्ड ब्लॉक और कुछ छिटपुट अन्य वाम दलों के लिए भी एक मुश्किल दौर की शुरुआत हो गई मालूम पड़ती है। चुनाव बाद आम धारणा यह बनी थी कि संसदीय वामपंथ के लिए संकट केरल में अंदरूनी झगड़ों से पैदा हुआ है, जो दूर भी हो सकता है, जबकि . बंगाल में संकट का स्वरूप व्यावहारिक से ज्यादा वैचारिक और आस्तित्विक किस्म का है और इसका फायदा ममता बनर्जी के नेतृत्व में चलने वाली दक्षिणपंथी और मध्यमार्गी ताकतों को मिलने वाला है।
अभी यह धारणा तेजी से बदलने लगी है। लोगों को लगने लगा है कि पश्चिम बंगाल में संसदीय वामपंथ द्वारा खाली की जा रही जगह पर सिर्फ दक्षिणपंथी और अवसरवादी मध्यमार्गी शक्तियां ही काबिज नहीं होने जा रही हैं, बल्कि राज्य में दशकों पहले कुचल दी गई रेडिकल वाम ताकतें इसे किसी और ही तरह की चीज से भर सकती हैं, जिसका पहले किसी को अंदाजा भी नहीं था।
उड़ीसा और झारखंड से सटे पश्चिम बंगाल के चारो आदिवासी बहुल जिलों पश्चिमी मिदनापुर, पूर्वी मिदनापुर, बांकुड़ा और पुरुलिया में सीपीआई (माओवादी) ने चुनाव के ठीक बाद जोरदार हस्तक्षेप किया है। यहां यह खास तौर पर चिह्नित करना जरूरी है कि इस बार उसके संघर्ष का स्वरूप ठीक उसी तरह का नहीं है, जैसा आंध्र प्रदेश, बिहार और कुछ हद तक छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में भी इसे समझा जाता रहा है। माओवादियों की आम छवि बारूदी सुरंगों से पुलिस की गाड़ी उड़ा देने या किसी थाने पर ऐक्शन करके जनता को मार खाने के लिए छोड़ कर भाग जाने वाले संगठन की रही है। इसके विपरीत लालगढ़ और उसके इर्द-गिर्द उनकी गोलबंदी नक्सल आंदोलन के पुराने संघर्षों की याद दिलाने वाली है।
यहां पहुंच कर हमें कुछ पल ठहरना चाहिए। ऊपरी तौर पर 1967 से 1971 तक बंगाल में और 1969 से 1986-87 तक बिहार में चले नक्सली संघर्षों की याद दिलाने के बावजूद लालगढ़ की लड़ाई उसका दोहराव नहीं है। दोहराव तो क्या, उसका जारी रूप भी नहीं है। नक्सली आंदोलन भारत में रूसी निर्देशों से अलग क्रांति की एक नई रणनीति तलाशने की कोशिश के रूप में शुरू हुआ था। क्रांति की उसकी समझ भारत को 1949 के पहले के चीन से मिलता-जुलता अर्धसामंती-अर्धऔपनिवेशिक देश मानने पर आधारित थी, जहां से भूमिहीन मजदूरों, गरीब किसानों की फौज बनाने, इलाके मुक्त कराने, नव-जनवादी ताकतों का मोर्चा बनाने और गांवों से शहरों को घेरने आदि जैसी कार्यनीतियां निकलती थीं।
सीपीआई (माओवादी) का वैचारिक साहित्य पढ़ें तो लगता है कि दुनिया इन चार दशकों में कहां से कहां गई लेकिन इनकी सोच की सुई वहीं की वहीं अटकी पड़ी है। इन्हें अलकायदा में भी अपना दोस्त नजर आता है क्योंकि इनके मुताबिक यह संगठन अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष कर रहा है। जमीन पर ये बेरहमी से वामपंथी कार्यकर्ताओं को मारते, निजी फायदे के लिए ठेकेदारों से वसूली करते और मध्यमार्गी पार्टियों के हाथों इस्तेमाल होते नजर आते रहे हैं, जिसका चरम बिंदु यह है कि अपने आदि गढ़ आंध्र प्रदेश को इन्होंने लगभग खाली ही कर दिया है। ये मंडल आंदोलन के दौर में यात्रियों से भरा रेल का डिब्बा जला देते हैं और बीएसपी के उभार के वक्त इनके ज्यादातर शीर्ष नेता मार्क्स, लेनिन और माओ का दामन छोड़ कर कांशीराम के साथ जाना ज्यादा बेहतर समझते हैं।
लेकिन इन सारी विकृतियों के बावजूद पिछले तीन-चार वर्षों में- मोटे तौर पर कहें तो पीपुल्स वार, पार्टी यूनिटी और एमसीसी के परस्पर विलय के जरिए सीपीआई (माओवादी) के गठन के बाद से ही- भारतीय वामपंथ की इस सबसे रेडिकल धारा का वैचारिक ढांचा पहले से काफी सुधरा है। बिहार और झारखंड में कई सारे पेशेवर लुटेरे और हत्यारे इसकी कतारों से बाहर निकाले गए हैं (हालांकि उनसे पूरी तरह मुक्त इसे आज भी नहीं माना जा सकता ) और खासकर छापामार युद्ध की संभावना लिए पठारी-जंगली संरचना वाले कई इलाकों में गरीब आदिवासी आबादी के बीच इसकी पैठ मजबूत हुई है।
खुद को भारत के रेडिकल वामपंथ का आधिकारिक प्रतिनिधि बताने वाली धारा सीपीआई एमएल (लिबरेशन) अपनी वैचारिक बहस एक तरफ सीपीएम से और दूसरी तरफ संसदीय संघर्ष का निषेध करने वाली धाराओं से मानती आई है ( जिसका एकमात्र प्रतिनिधि अब सीपीआई (माओवादी) को ही मान लेने में कोई हर्ज नहीं है) देश के वाम आंदोलन से लगाव रखने वाले लोग करीब डेढ़ दशक तक लिबरेशन के मुखपत्रों में चलने वाली ऐसी ऊर्जस्वी बहसों से जरूर वाकिफ होंगे। इन बहसों की जेनुइनिटी इनमें कही गई बातों से कहीं ज्यादा लिबरेशन के जमीनी आंदोलनात्मक प्रयोगों से बनती थी, जिनमें संघर्ष के किसी भी रूप का निषेध किए बगैर भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन का क्रांतिकारी तेवर बनाए रखने का प्रयास किया जाता था।
ये बातें भूतकाल में कहने को लेकर कोई विशेष निजी आग्रह नहीं है, लेकिन इस हकीकत का क्या करें कि पिछले कई सालों से सीपीआई एमएल (लिबरेशन) को लेकर सारी बातें उसकी चुनावी सफलताओं और विफलताओं के ही इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। पार्टी के पिछले अधिवेशन में केंद्रीय बहस संशोधनवाद के खिलाफ चलाई गई थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि उत्तर प्रदेश के कुछ बड़े नेता पार्टी छोड़ कर चले गए। इन नेताओं का आग्रह एक जेनुइन वाम-लोकतांत्रिक विकल्प के रूप में अपनी धारा की राष्ट्रीय उपस्थिति चिह्नित करने के लिए करीबी सोच वाली ताकतों का देशव्यापी मोर्चा बनाने पर था। अगर इस आग्रह को संशोधनवाद मान लिया जाए तो भी इसको परास्त करने के बाद पार्टी का जो रेडिकलाइजेशन होना चाहिए था, उस तरह की कोई खबर अभी तक सुनने में नहीं आई है।
देश का यथार्थ आज चमक-दमक और बदहाली के बीच बुरी तरह विभाजित है। इतना बंटा हुआ कि हकीकत के एक छोर की आवाज भी दूसरे छोर तक नहीं पहुंच पाती। ऐसे में कोई जरूरी नहीं कि पूरे देश पर लागू हो सकने वाली क्रांति की कोई एक ही रणनीति जब तक खोज ली जाए तब तक देश भर की रेडिकल वाम ताकतें एक-दूसरे से संवादहीनता बनाए रखें। क्या लालगढ़ की लड़ाई उनके बीच आपस में ऐसी किसी बातचीत की गुंजाइश पैदा कर सकती है........ताकि देश में जारी फर्जी विमर्शों का पैराडाइम बदला जा सके और उसमें लोगों के दुख-तकलीफ के लिए कोई जगह बनाई जा सके।
साभार पहलू

मीडिया के लिए खजाना खुला छोड़ दिया

अनिल चमड़िया

दिल्ली की राज्य सरकार ने पिछले दस वर्षों के दौरान समाचार पत्रों, रेडियो, टेलीविजन चैनलों और दूसरे प्रचार माध्यमों में विज्ञापन के मद में पचास करोड़ रूपये खर्च किया है। इन पचास करोड़ रूपये में सबसे ज्यादा खर्च चुनावी वर्ष 2008-2009 के दौरान किए गए हैं। ये रकम बाईस करोड़ छप्पन लाख अठाईस हजार पांच सौ उनसठ (225628559) रुपये है। इस वर्ष दिल्ली के लिए विधानसभा और लोकसभा, दोनों के लिए चुनाव कराए गए थे। गौरतलब ये है कि वर्ष 2001 में दिल्ली सरकार द्वारा समाचार पत्रों में विज्ञापन के मद में महज एकहत्तर लाख 56 हजार रूपये विज्ञापन के मद में खर्च किए गए। दिल्ली सरकार द्वारा खर्च की रकम अब करीब तीस गुना ज्यादा बढ़ा दी गई हैं। दिल्ली सरकार द्वारा विज्ञापन के मद में खर्च में बढ़ोतरी चुनावी वर्ष को ध्यान में रखकर किया गया है।

ये बात दिल्ली विधानसभा के चुनाव के वर्षों में खर्च की रकम को देखकर साफतौर पर कही जा सकती है। वर्ष 2003 में पिछला विधानसभा चुनाव हुआ था। दिल्ली सरकार द्वारा वर्ष 2002-2003 और वर्ष 2003-04 में विज्ञापन के मद में खर्च की जो जानकारी विधानसभा में दी गई है वह क्रमश 2 करोड़ 89 लाख 76 हजार 239 रुपये और 2 करोड़ 70 लाख 73 हजार 822 रूपये हैं। दिल्ली सरकार ने 2008-2009 में विज्ञापन में जितनी कुल राशि खर्च की है उसमें 8 करोड़ 37 लाख से ज्यादा राशि समाचार पत्रों के विज्ञापन में और 14 करोड़ 18 लाख पैतीस हजार से ज्यादा राशि रेडियों, टेलीविजन, होर्डिंग आदि में खर्च किए गए हैं। मजेदार बात ये है कि वर्ष 2004-2005 में दिल्ली सरकार ने रेडियों, टेलीविजन और होर्डिंग आदि में महज बारह लाख पन्द्रह हजार छह सौ उनसठ रूपये ही खर्च किए थे। न माध्यमों में विज्ञापन की राशि में सौ गुना से भी ज्यादा की बढ़ोतरी की गई है।

देश के विभिन्न राज्यों में राज्य सरकारों ने विज्ञापन के जरिये अपनी छवि निखारने पर जोर बढाया है। दिल्ली में ये बात खासतौर से देखी जाती है। सरकारों के कामकाज और राजनीतिज्ञों के आचरण एवं व्यवहार पर शिकायतें लगातार बढ़ी है इसमें सरकारों ने अपनी छवि बनाने के लिए विज्ञापनों का रास्ता अपनाया।इससे सरकारी खजाने पर दबाव बढ़ा है। सरकारों के विज्ञापनों की भाषा में भी एक गुणात्मक परिवर्तन देखा जा सकता है। सरकारों ने विज्ञापन में अप मार्केट को ध्यान में ठीक उसी तरह से रखा है जिस तरह से टेलीविजन चैनलों द्वारा उन्हीं दर्शकों का ध्यान ऱखा जाता है जोकि बाजार में ऐशोआराम की चीजें खरीदने की क्षमता रखते है। टेलीविजन चैनलों की भाषा में अप मार्केट शब्द का इसी तरह के उपभोक्ताओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है। सरकारे भी आम नागरिकों के बजाय समाज को प्रभावित करने वाले वर्ग की भाषा, रंग और छवि को ध्यान में रखकर विज्ञापन तैयार करवाती है। वह भी कारपोरेट क्षेत्र की तरह अपने उपभोक्ताओं को गुड फील कराना अपना उपलब्धि समझती है। कोरपोरेट क्षेत्र की पूंजी अपने अपभोक्तओं को जिस तरह से लुभाने और आकर्षित करने पर जोर लगाती है उसी तरह से सरकार वोटरों को आकर्षित करती है।

गौरतलब एक दूसरा पहलू है कि राजनीतिक पार्टियां और राजनेता चुनाव के दौरान अपने प्रचार के लिए जिस तरह से प्रचार माध्यमों की जगहों को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं, अब सरकारें भी उसी शैली में काम करने लगी हैं। चुनावी वर्षों में विज्ञापन के मद में प्रचार माध्यमों में विज्ञापन की रमक बढ़ाने का सीधा अर्थ क्या हो सकता है? सरकारें इस तरह से प्रचार माध्यमों को अपने प्रभाव में रखने की कोशिश करती है। दिल्ली सरकार ने समाचार पत्रों के बजाय दूसरे माध्यमों में विज्ञापन की राशि में खर्च में सौ गुना से ज्यादा बढ़ोतरी की तो इसकी एक वजह ये है कि इन माध्यमों से छवि को प्रभावित करने और छवि बनाने की ताकत का अंदाजा सरकार को भी बाद के वर्षों में हुआ हैं।

दिल्ली सरकार ने ही इस तरह से विज्ञापन की राशि में बढ़ोतरी की है ऐसी बात नहीं है। पत्रकार श्रृषि कुमार सिंह ने पिछले दिनों केन्द्र सरकार द्वारा विज्ञापन के मद में खर्च का ब्यौरा मांगा तो उसमें भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। केन्द्र सरकार ने चुनाव से पूर्व ने केवल विज्ञापन की दरों में बढ़ोतरी की बल्कि विज्ञापन के मद में खर्च के बजट में भी बढ़ोतरी कर दी। ये बढ़ोतरी केवल विज्ञापन दर में बढ़ोतरी की वजह से नहीं है। यह मजेदार तथ्य हो सकता है कि इस वर्ष चुनाव के पूर्व 10 दिसंबर से बीस फरवरी के बीच में केन्द्र सरकार ने केवल डीएवीपी के जरिये उपभोक्ता मामले के निदेशालय द्वारा 7 करोड़ 52 लाख रूपये से ज्यादा खर्च किए। फिलहाल 20 फरवरी के बाद के खर्चों का ब्यौरा नहीं है। वह ब्यौरा भी उपलब्ध किया जाए तो यह राशि बढ़ सकती है। इसकी तुलना पिछले वर्षों में इस निदेशालय द्वारा विज्ञापन के मद में किए गए खर्च से की जाए तो इतनी राशि के खर्च करने के उद्देश्यों का रहस्य खुल सकता है। दूसरे केन्द्र सरकार के विज्ञापनों को जारी करने वाली डीएवीपी कोई एकलौती संस्था नहीं है। विज्ञापन नीति में कई तरह के परिवर्तन किए गए हैं। दूसरी एजेसिंयों द्वारा भी विज्ञापन जारी किए जाते है।

उपभोक्ता मामले की तरह दूसरे जिन विभागों या मंत्रालयों के विज्ञापन बड़े पैमाने पर इस दौरान जारी किए गए है वे भी गौरतलब है। परिवार कल्याण ( आई ई सी ) द्वारा दो करोड़ 76 लाख के विज्ञापन जारी किए गए। स्कूल शिक्षा और साक्ष्ररता विभाग द्वारा 1 करोड 72 लाख से ज्यादा, नई और रिचार्जेबल उर्जा द्वारा दो करोड़ 95 लाख से ज्यादा, पंचायती राज द्वारा एक करोड़ 74 लाख से ज्यादा,ग्रामीण विकास विभागा द्वारा दो करोड़ 19 लाख से ज्यादा, भू संसाधन द्वारा 2 करोड़ 37 लाख से ज्यादा खर्च किए गए। इस दौरान सबसे ज्यादा विज्ञापन में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा किया गया जो रकम चौदह करोड़ से भी ज्यादा रूपये हैं। योजना फंड से 5 करोड़ 45 लाख से ज्यादा और गैर योजना फंड से 8 करोड़ 94 लाख रूपये खर्च विज्ञापन के लिए केवल चुनाव पूर्व के दो महीनों के दौरान किए गए। चुनाव आयोग को इस संबंध में लिखा जा चुका है कि सरकार द्वारा चुनाव पूर्व विज्ञापन के मद में खर्च की रकम में बढ़ोतरी के कारणों का अध्धयन कराएं। अभी तक ये सवाल उठते रहे है कि चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों के अमीर उम्मीदवारों ने प्रचार माध्यमों में इतनी जगह खरीद ली कि प्रचार माध्यमों ने पैसे का भुगतान नहीं करने वाले उम्मीदावारों के चुनाव प्रचार में किसी तरह का सहयोग नहीं किया।

26 जून 2009

कांग्रेस चली अब बहुजन की राह

लक्ष्मण प्रसाद

इस साल कांग्रेस पार्टी ने अपने युवराज राहुल गांधी के जन्मदिन को ‘समरसता’ दिवस के रुप में मनाया। इस दिन को कागे्रंस ने दलित बस्तियों में पहुंचने के अभियान का षक्ल दे दिया। तमाम छोटे-बड़े काग्रेसियों ने बकायादा पंगत में पल्थियां मारकर भोजन करके यह संदेष देने की कोषिष की कि कागें्रस के दलित प्रेम को लेकर बसपा किसी भ्रम में न रहे। वहीं काग्रेंस इस कदम से मायावती बौखलाई नजर आयीं। पानी को सर से उपर चढ़ता देख मायावती ने ‘बाबा’ के जन्मदिन को षर्म दिवस के रुप में मना कर अपनी बौखलाहट जगजाहिर कर दी। जिला मुख्यालयों पर बसपाइयों ने कागे्रसियों के खिलाफ टंट-घंट बांध करअपनी भड़ास निकाली। बीते लोकसभा चुनावों के परिणाम और खिसकते जनाधार को देखा जाय तो उनका गुस्सा ‘वाजिब’ था कि उसके दलित वोट बैंक में कागे्रंस ने जबरदस्त सेंधमारी की है।
फिलहाल अभी ऐसा कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिला है कि दलितों का बड़ा जनाधार कागें्रस की झोली में चला गया है। पर अबकी बार के चुनाव नतीजे इस बात के लिए काफी अहम हैं कि लंबे समय बाद दलित वोट बैंक के लिए फिर से काग्रेंस और बसपा के बीच रस्साकसी हो रही है। जो यह दर्शाता है कि कागे्रंस अपने यूपी से सफाए के बाद लगभग दो दशकों के राजनैतिक मंथन के बाद इस नतीजे पर है कि उसका जीर्णोधार दलित वोटों के बिना नामुमकिन है। इस आलोक में देखा जाय तो बसपा के षर्म दिवस और कांगे्रंस के समरसता दिवस के गूढ़ राजनैतिक निहतार्थ हैं। इन दोनों पार्टियों के राजनैतिक खींचतान ने यूपी की राजनीति में दलितों को लेकर काफी हलचल पैदा कर दी है।
देश को आजादी मिलने के बाद से ही दलितों और अल्पसंख्यकों की बहुसंख्या काग्रेंस के पीछे गोलबंद रही। इन्हीं वोटों के दम पर कांगे्रंस ने हिंदुस्तान में लगभग चार दषकों तक षासन किया। लेकिन कांगे्रस की लोकलुभावन नीतियां अल्पसंख्यकों, दलितों और ग्रामीण गरीबों के हित में होने की बजाय देश के सामंतों तथा नए उभरते हुए पूजींपतियों के पक्ष में ज्यादा रही। यही कारण है कि गुलाम भारत के सभी रजवाड़े काग्रेस में षामिल हुए तथा सत्ता के शीर्स में पहुंचे तथा दूसरी ओर औपनिवेषिक शासन काल में पले-बढ़े पूजींपती साम्राज्यवाद की दलाली करते हुए कांग्रेस के क्षत्रछाया में विकसित हुए। इस पूरे दौर में कांग्रेस के एजेण्डे से दलित गायब ही रहे उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। दलितों के सत्ता में हिस्सेदारी का प्रष्न तो बहुत ही पीछे छूट गया। कांगे्रस के इन्हीं नीतियों के चलते 80 के दषक से ही पिछड़ी और दलित राजनीति अपने अस्तित्व में आने लगीं आजादी के बाद इस समय अन्तराल में आने लगी। आजादी के बाद इस समय अन्तराल में षक्तिषाली हुई पिछड़ी जातियों तथा आरक्षण इत्यादि लाभ से आगे बढ़ी हुई जातियों ने अपने हिस्सेदारी के सवाल को मजबूती से उठाना षुरु कर दिया। और धीरे-धीरे यह सवाल राजनैतिक आयाम ग्रहण करता चला गया। इसी के नतीजें के रुप में 90 के दशक के शुरुवाती वर्षों में मंडल कमीषन सिफारिषों को लागू करना पड़ा। इस पृष्ठभूमि में मंडलवादी ताकतों का राजनीति मेें उभार हुआ। इसी दौर में काषीराम और मायावती के नेतृत्व में अंबेडकरवादी राजनीति ने एक नया स्वरुप ग्रहण करते हुए बहुजन समाज पार्टी राजनैतिक रुप से बहुत ताकतवार हो कर दलित के बीच उभरी। ठीक इसी समय भारतीय जनता पार्टी ने मंदिर का सवाल उठाा कर हिंदुस्तान की राजनीति में एक बड़ा उल्ट-फेर किया। और देखते-देखते सवर्ण सामाजिक आधार भाजपा के झंडे के नीचे आ खड़ा हुआ।
ये वे स्थितियां है जिसके कारण कांगे्रस के राजनैतिक वनवास की षुरुवात हुई। कांग्रेस को मजबूती प्रदान करने वाले उसके सारे मजबूत स्तंभ सवर्ण, दलित तथा अल्पसंख्यक अलग-अलग खेमों में बंट गए। और उत्तर भारत के हिंदी बेल्ट में काग्रेंस एक हाषिये की ताकत बनकर रह गयी। इस राजनैतिक वनवास से बाहर आना कांगे्रस के लिए अस्तित्व के लिए प्रष्न बन गया था। 15 वीं लोकसभा के नतीजों से यह साफ हो जाता है कि मंडल और कमंडल के रीाजनीति से लोगों का मोहभंग होने की षुरुवात हो चुकी है। क्योंकि मंडल के नाम पर राजनीति करने वाले चाहे मुलायम, लालू हों या फिर षरद ये सभी दरअसल कांगे्रस और भाजपा से इतर कोई राष्टीय विकल्प दे पाने की स्थिति में नहीं है। व्यक्तिगत रुप से इन सभी मंडलवादी नेताओं का जो भी चरित्र हो पर इन सभी ने जातीय अस्मिता के नाम भावनात्मक रुप से ठगने का काम किया। इधर दलित राजनीति की चैम्पियन मायावती भी बहुजन से षुरु करके सर्वजन तक की यात्रा हाथी की सवारी कर पूरी की। मायावती की सोषल इंजीनियरिंग का यूपी की जमीनी सामाजिक वास्तविकता से कोई मेल नहीं है। बसपा के मंच पर दलित एवं सवर्ण नेता हाथ मिलाते नजर तो आते है। लेकिन वहीं गांव में ब्राहमणों एवं दलितों के बीच जबरदस्त टकराव की स्थिति बनी रहती है। ऐसे में दलितों के सामने मायावती की असलियत की पोल खुलने लगी है। सर्वजन की राजनीति में बहन जी इस कदर भटक गयी हैं कि दलितों का सुरक्षा कवच माने जाने वाला एससीएसटी ऐक्ट भी कमजोर कर दिया। मायावती के इस कदम ने दलितों के संवेदनषील हिस्से को झकझोरने का काम किया है।
मोहभंग के इस दौर में कांग्रेस में अपनी पुरानी स्थिति में प्राप्त कर लेने की तीव्र आकांक्षा जगी है। यह भी ध्यान देने की बात है। चूंकि समूचे हिंदी बेल्ट में वामपंथी तथा रेडिकल आंदोलन अपने प्रभावी स्थिति में नहीं है। यही वे ताकतें हैं जो जाति समूहों की राजनीति का विकल्प एक सुसंगत वर्गीय राजनीति के रुप में प्रस्तुत कर सकती है।
बहरहाल कांगे्रस ने दलित सामाजिक आधार को अपने पक्ष में करने के लिए आक्रामक ाअभियान की श्षुरूआत कर दी है। इसी कड़ी के तहत यदि देखें तो कांग्रेस ने एक दलित महिला मीरा कुमार को लोकसभा का स्पीकर नियुक्त किया। तो दूसरी तरफ बसपा ने अपने परंपरागत दलित आधार को बचाए रखने के लिए वादों एंव घोसणओं का पिटारा खोल दिया है। यहां तक कि दलित उत्पीड़न के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के लिए प्रदेष के डीजीपी तक को हस्तक्षेप करने का फरमान जारी कर दिया गया। देखना है कांगेस और बसपा के इस नूराकुस्ती के बीच राजनीति कौन सी दिषा लेती है।

अपना समय